April 19, 2024

TSM मासिक प्रतियोगिता : ०३
विषय : शिक्षा की आवश्यकता

(गीता जयंती विशेष)

योगेश्वर श्रीकृष्ण ने अर्जुन को कुरुक्षेत्र की रणभूमि में अत्यन्त विषम परिस्थिति में गीता का ज्ञान दिया था! धर्मक्षेत्र कुरुक्षेत्र में जब सहस्त्रों मृतोत्सुक आत्मायें सैनिकों का स्वरूप धारण कर अपने परिजनों का हीं लहू पीने के लिए व्याकुल हो रही थीं, तब ऐसा विकट दृश्य देखकर अर्जुन मोहवश लोक परलोक पर विचार करते हुये भयभीत हो जाते हैं।
इतना हीं नहीं उन्होंने अपने कन्धे से गाण्डीव धनुष पौरुष को उतार कर युद्ध न करने का निर्णय ले लिया।

तब भगवान ने पूछा, “क्या हुआ पार्थ?”
अर्जुन ने कहा, “मैं युद्ध नहीं करूँगा केशव!”

युद्ध न करने के पक्ष में उन्होंने अनेकों तर्क प्रस्तुत किये।
तब श्रीकृष्ण ने विचार किया, यह अज्ञानता अर्जुन को युद्ध से विरत कर देगा। तब तो न केवल पाण्डवों (समाज)का पराभव होगा, अपितु मानवता के लिए अज्ञानता बहुत बड़ा संकट खड़ा कर देगा। जिससे सृष्टि का संतुलन बिगड़ सकता है। अतः मानव धर्म की रक्षा के लिए भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन को गीता का अद्भुत ज्ञान दिया।

इसी को “श्रीमद्भगवद्गीता” कहते हैं। यह एक सर्वोच्च और सार्वभौमिक ग्रन्थ है। गीता समता और सद्भाव का अलौकिक ज्ञान प्रस्तुत करती है।

अब विचारणीय विषय यह है कि भगवान श्रीकृष्ण जब अर्जुन को गीतोपदेश प्रदान कर महाभारत के युद्ध के लिए कृतनिश्चय कर हीं चुके, फिर शिक्षा में इसके प्रचार और प्रसार का क्या औचित्य है?

तो मित्रों द्वापरयुग में सिर्फ एक अर्जुन और वह भी केवल एक बार मोहवश विषाद को प्राप्त हुए थे, परन्तु वर्तमान युग में हम सभी मानव हर बार उचित अनुचित के विषमताओं में फँस कर अपने कर्म के प्रति उदासीन हो जाते हैं।

अतः हम सभी के लिए गीता रूपी शिक्षा की आवश्यकता है।

परन्तु विडम्बना देखिए कि ऐसे महान ग्रन्थ को जो अमरता का प्रतिनिधित्व करता है उसे हम अशिक्षित मनुष्यों ने मृत्यु की प्रतिनिधि पुस्तिका के रूप में प्रचारित कर रखा है। आज तकरीबन सभी परिवारों में देखा जाये तो किसी के निधनोपरान्त शव के समीप एक पंडितजी कुछ अगरबत्तियाँ जलाये गीता पाठ गुनगुना रहे होते हैं।

जबकि विचार करें तो गीता केवल और केवल जीवनमुक्त हीं करती है। इसकी विषयवस्तु कर्म पर आधारित है इसलिए मानव मात्र जीवित रहते हुये हीं इसका अनुसंधान करे तो मोक्ष सुनिश्चित है।
लेकिन अशिक्षा के कारण यह हम करते नहीं और मरने के बाद मृतात्मा के चित्र पर

“वासाँसि जीर्णानि यथा विहाय……..…..।। और नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि…….……।।
जैसे श्लोक अवश्य अँकित करते हैं। यही अज्ञान है कि जो श्लोक विशुद्धत: आत्मतत्व का प्रतिपादन करते हैं उन्हीं को कुछ मृत्यु का सूचनापट्ट बना दिया जाता है।

हमारे विचार से यह भी एक प्रकार की अशिक्षा ही है।
किसी भी विषय को समझने के लिए आपको अध्ययन करना हीं होगा।

प्रसंगवश मैं यह भी स्पष्ट करना चाह रहा हूँ, शिक्षा का मतलब शिक्षित होने से है ना की साक्षर अथवा निपुण, जैसे सर्कस के जानवर निपुण तो होते हैं मगर शिक्षित नहीं होते। क्यूंकि उन्हें ये पता तो अवश्य होता है की कैसे करना है मगर यह क्यूँ करना है वे नहीं जानते। यहाँ बहेलिए और कबूतर की कथा सरल और सटीक उदाहरण है।

धन्यवाद !

अश्विनी राय ‘अरूण’

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