April 20, 2024

आज अगर मैं जय श्री राम बोलता हूँ तो लोग मुझे भाजपाई समझते है, भारत माता की जय बोला तो संघी समझते हैं। दलितों के हित में बोलने पर बसपा या xyz का समझते हैं। मुसलमनो के हित में बोलने पर एंटी भाजपा, xyz, कांग्रेसी या पाकिस्तानी तक समझते हैं। कुछ लोगो ने तो सामंतवाद की परिभाषा ही बदल दी है, उनके अनुसार तो सामन्ती मतलब सवर्ण के घर पैदा होना और इसका विरोध करने पर मनुवादी या सामंतवादी समझते हैं। अब तो आम आदमी की बात  करने पर भी डर लगने लगा है की लोग मुझे केजरीवाल भक्त न समझ लें। भारत में लोकतंत्र की नहीं बल्कि पार्टियों की जड़ें बहुत गहरी हो गई हैं। लोग आज राष्ट्र के नागरिक नही बल्की किसी पार्टी के कार्यकर्ता के रुप मे रहना चाहते हैं। आज राष्ट्रवाद की परिभाषा पाकिस्तान, चीन के डर से शुरू होकर कुछ नारो तक सिमट कर रह गया है। अगर राष्ट्रवाद सिर्फ नारो और नेताओ के जलूस तक ही है तो हमें ऐसे राष्ट्रवाद से बचना चाहिए, यह भारत कि पुरानी बिमारी है, ऐसे ही राष्ट्रवादीयो से भारत का इतिहास भरा पडा है जो राष्ट्रवाद को अपने सत्ता तक ही सीमित रखते थे।

आज भारत उस फल की तरह होता जा रहा है जो ऊपर से तो चमक रहा है पर अंदर से सड़ रहा है, इसका एक ही बिकल्प है नेताओ पार्टियो और पूरी चुनावी प्रक्रिया से पूरी तरह उदासीनता। अगर देखा जाये तो कोई साफ नहीं है?     न्यूज़ मिडिया के दबाव में आकर कोर्ट को फैसले देने से बचना चाहिए। कोई भी जनहित याचिका पर फैसला देने से पहले कोर्ट को अपने अंदर के सड़न को भी देखना चाहिए, चालीस पचास सालो के लटके दीवानी मुक़दमे, भ्रष्टाचार, कोर्ट परिसर में फैली गंदगी इस बात का प्रमाण है की न्यायपालिका भी दूध की धुली नहीं है। क्यों आज सीधा साधा आदमी सौ जुते खा लेता है लेकिन कोर्ट कचहरी से दूर रहना चाहता है ? क्योंकि आम आदमी के लिए कोर्ट कचहरी न्याय की उम्मीद से ज्यादा मानसिक परेशानियों का कारण बन जाता है। इतना ही नहीं, भारत मे एक ही अपराध का अलग अलग नाम क्यो है ? जैसे आम लोगो पर होने वाला अपराध सिर्फ अपराध है, लेकिन वही अपराध दलित पर हो तो दलित अपराध, शोषण य़ा उत्पीडन कैसे हो जाता है? और प्रचारित भी इस तरह किया जाता है की सिर्फ कुछेक अपराधों को छोड़ ज्यादतर अपराध दलित उत्पीड़न ही है, तो देखिये दलितो पर एक साल मे  करीब 48000 अपराध हुए देखने मे यह बहुत ज्यादा है लेकिन जब देश मे हुए कुल अपराध और दलितो के अबादी के अनुसार इस आकडे का औसत निकालें तो यह बनेगा करीब  00.0020 % जो बहुत ही  कम है।

 हमारे यहां हर एक छोटे छोटे कार्य को विकास से देखा जाता है; जैसे बिजली, सड़क आदि। जबतक बिजली सड़क से रोजगार और उद्योग धंधे नही बढते तब तक इसे सुविथा देने का व्यापार कह सकते है पर विकास नही। रोजगार से आदमी का विकास होता है सुबिधा से नही। बिजली विकास का पैमाना नही, यह एक सुविधा जरुर है लेकिन उससे ज्यादा व्यापार है, एक मुनाफे का सौदा। इसका दोहन भी तो गरीब और बेरोजगार लोगो से ही किया जायेगा। वाह रे सिस्टम तूने तो  लोगों को यह भी जानने नहीं दिया की विकास किसे कहते हैं। विकास का दो रुप है पहला मानवीय विकास; जैसै पोलियो, कुपोषण, शिक्षा, सडक, बिजली आदी। दुसरा है अर्थिक विकास; जैसे नौकरी, धंधा, ब्यापार, रोजगार आदी, लेकिन सरकार  चालाकी से दोनो तरह के विकास को मिला कर विकास विकास कि रट लगाती है, पर सच तो यह है कि मानविय विकास में सरकार को कामयावी मिली है, पर आर्थिक विकास के मामले मे सरकार को अभी कोई खास कामयाबी नहीं मिली पाई है। मगर हाँथ पर हाँथ धरे हमारी बदलती सरकार को अब यह सोचना होगा, अगर वो सिर्फ अपने दल की सरकार बनाने से बढ़कर आगे की नहीं सोचेंगे तो बढ़ती आबादी के बोझ तले देश एक घमासान गृहयुद्ध देखेगा।

शिक्षा अब नौकरी की गारन्टी नही रही, पहले हमारे नेता इस बात को दबे जुबान से बोलते थे, लेकिन अब इस सच को दबाना मुश्किल हो गया है इसलिए अब नेतालोग इस बात को अब खुले मंचो से बोलने लगे हैं क्योकी नौकरी अब किसी भी सरकार के बुते के बाहर कि बात हो गई है। अब तो अनपढ लोग भी पढे लिखो का मजाक उड़ाने लगे हैं, इसलिये अब लोगो को अपने बच्चो की शिक्षा स्टेटस नही बल्की निवेश के रुप मे देखना होगा, क्योंकि आपको इसका रिटर्न कितना मिल रहा है, जितना आप अपने बच्चे की शिक्षा पर निवेश कर रहे हैं क्या उसका प्रतिफल आपको मिलेगा, और कितना। अगर आपके बच्चे मे छमता है तो ठीक वरना उसका दिशा बदलिये, और स्वरोजगार का रास्ता दिखाइये वरना कुछ समय बाद आप खुद से ही कहियेगा, अब पछताये होत क्या, जब चिड़िया चुग गई खेत।

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