April 25, 2024

एक समय यानी एक बहुत बड़ा समय अंतराल ऐसा था जब ब्रिटिश शासन के अन्तर्गत भारतीय समाज, संस्कृति, अर्थव्यवस्था और राजनीति सभी संक्रमणकालीन दौर से गुजर रहे थे। वह दौर समाज सुधारकों का था एवं कांग्रेस भी अभी शैशवावस्था में थी। तभी एक घुमक्कड़ का जन्म हुआ। उत्तरप्रदेश के आजमगढ़ जिले के पंदहा गाँव में ९ अप्रैल, १८९३ को गोवर्धन पाण्डेय एवं कुलवंती देवी के यहाँ बालक केदारनाथ पाण्डेय का जन्म हुआ था। उनके पिता एक धार्मिक विचारों वाले किसान थे, तथा उनकी माताजी अपने माता-पिता के साथ रहती थीं। केदारनाथ पाण्डेय के बचपन में ही माताजी का देहांत हो गया था, अतः इनका पालन-पोषण नाना श्री रामशरण पाठक और नानी ने किया था। उनका विवाह बचपन में कर दिया गया। यह विवाह उनके जीवन की एक संक्रान्तिक घटना उन्हें जान पड़ी थी। अतः प्रतिक्रियास्वरूप किशोरावस्था में ही घर छोड़ कर वे भाग गए और एक मठ में साधु हो गए। लेकिन अपनी यायावरी स्वभाव के कारण वे वहां भी टिक नही पाये। चौदह वर्ष की अल्प अवस्था में कलकत्ता चले गए। मगर कलकत्ता भी उनके ज्ञान लिए छोटा था, इसीलिए यहाँ से सारे भारत का भ्रमण करते रहे। केदारनाथ जी का समग्र जीवन ही रचनाधर्मिता की यात्रा थी। जहाँ भी वे गए वहाँ की भाषा व बोलियों को सीखा और इस तरह वहाँ के लोगों में घुलमिल कर वहाँ की संस्कृति, समाज व साहित्य का गूढ़ अध्ययन किया। इन सब से वे अप्रभावित न रह सके एवं अपनी जिज्ञासु व घुमक्कड़ प्रवृत्ति के चलते घर-बार त्याग कर साधु वेषधारी संन्यासी से लेकर वेदान्ती, आर्यसमाजी व किसान नेता एवं बौद्ध भिक्षु से लेकर साम्यवादी चिन्तक तक का लम्बा सफर तय किया।

केदारनाथ से राहुल बनने का सफर

बात १९३० की है, जब वे श्रीलंका गए थे और वहां जाकर वे बौद्ध धर्म की दीक्षा प्राप्त कर ली। तभी से वे ‘रामोदर साधु’ से ‘राहुल’ हो गये और सांकृत्य गोत्र के कारण सांकृत्यायन कहलाये। अब वे दुनिया में नए नाम राहुल सांकृत्यायन के नाम से जाने जाने लगे अतः हम भी आगे राहुल के नाम से ही अपनी लेखनी को आगे बढ़ाएंगे…

राहुलजी की अद्भुत तर्कशक्ति और अनुपम ज्ञान भण्डार को देखकर काशी के पंडितों ने उन्हें महापंडित की उपाधि दी एवं इस प्रकार वे केदारनाथ पाण्डे से महापंडित राहुल सांकृत्यायन हो गये। सन् १९३७ में रूस के लेनिनग्राद में एक स्कूल में उन्होंने संस्कृत अध्यापक की नौकरी कर ली और उसी दौरान ऐलेना नामक महिला से दूसरी शादी कर ली, जिससे उन्हें इगोर राहुलोविच नामक पुत्र-रत्न की प्राप्ति हुई। छत्तीस भाषाओं के ज्ञाता राहुलजी ने उपन्यास, निबंध, कहानी, आत्मकथा, संस्मरण व जीवनी आदि विधाओं में साहित्य सृजन किया परन्तु अधिकांश साहित्य हिन्दी में ही रचा। राहुल तथ्यान्वेषी व जिज्ञासु प्रवृत्ति के थे सो उन्होंने हर धर्म के ग्रन्थों का गहन अध्ययन किया। अपनी दक्षिण भारत यात्रा के दौरान संस्कृत-ग्रन्थों, तिब्बत प्रवास के दौरान पालि-ग्रन्थों तो लाहौर यात्रा के दौरान अरबी भाषा सीखकर इस्लामी धर्म-ग्रन्थों का अध्ययन किया। निश्चितत: राहुल सांकृत्यायन जी की मेधा को साहित्य, अध्यात्म, ज्योतिष, विज्ञान, इतिहास, समाज शास्त्र, राजनीति, भाषा, संस्कृति, धर्म एवं दर्शन के टुकड़ों में बाँटकर नहीं देखा जा सकता, वरन सम्पूर्ण साहित्य को एक साथ देखना श्रेयस्कर होगा।

ग्यारह वर्ष की उम्र में हुए अपने विवाह को नकारकर वे बता चुके थे कि उनके अंतःकरण में कहीं न कहीं विद्रोह के बीजों का वपन हुआ है। यायावरी और विद्रोह ये दोनों ही प्रवृत्तियाँ कालांतर में विकसित हो गईं, जिसके कारण पंदहा गाँव, आजमगढ़ में जन्मा यह केदारनाथ पांडेय नामक बालक देशभर में महापंडित राहुल सांकृत्यायन के नाम से प्रख्यात हो गया। राहुल सांकृत्यायन सदैव घुमक्कड़ ही रहे। सन्‌ १९२३ से उनकी विदेश यात्राओं का सिलसिला शुरू हुआ तो फिर इसका अंत उनके जीवन के साथ ही हुआ। ज्ञानार्जन के उद्देश्य से प्रेरित उनकी इन यात्राओं में श्रीलंका, तिब्बत, जापान और रूस की यात्राएँ विशेष उल्लेखनीय हैं। वे चार बार तिब्बत पहुँचे। वहाँ लम्बे समय तक रहे और भारत की उस विरासत का उद्धार किया, जो हमारे लिए अज्ञात, अलभ्य और विस्मृत हो चुकी थी। अध्ययन-अनुसंधान की विभा के साथ वे वहाँ से प्रभूत सामग्री लेकर लौटे, जिसके कारण हिन्दी भाषा एवं साहित्य की इतिहास संबंधी कई पूर्व निर्धारित मान्यताओं एवं निष्कर्षों में परिवर्तन होना अनिवार्य हो गया। साथ ही शोध एवं अध्ययन के नए क्षितिज खुले। राष्ट्र के लिए एक राष्ट्रभाषा के वे प्रबल हिमायती थे। बिना भाषा के राष्ट्र गूँगा है, ऐसा उनका मानना था। वे राष्ट्रभाषा तथा जनपदीय भाषाओं के विकास व उन्नति में किसी प्रकार का विरोध नहीं देखते थे।

उनके शब्दों में- ‘‘समदर्शिता घुमक्कड़ का एकमात्र दृष्टिकोण है और आत्मीयता उसके हरेक बर्ताव का सार।’’ यही कारण था कि सारे संसार को अपना घर समझने वाले राहुल सन् १९१० में घर छोड़ने के पश्चात पुन: सन् १९४३ में ही अपने ननिहाल पन्दहा पहुँचे। वस्तुत: बचपन में अपने घुमक्कड़ी स्वभाव के कारण पिताजी से मिली डाँट के पश्चात् उन्होंने प्रण लिया था कि वे अपनी उम्र के पचासवें वर्ष में ही घर में कदम रखेंगे। चूँकि उनका पालन-पोषण और शिक्षा-दीक्षा ननिहाल में ही हुआ था सो ननिहाल के प्रति ज्यादा स्नेह स्वाभाविक था। बहरहाल जब वे पन्दहा पहुँचे तो कोई उन्हें पहचान न सका पर अन्तत: लोहार नामक एक वृद्ध व्यक्ति ने उन्हें पहचाना और स्नेहासक्ति रूधे कण्ठ से ‘कुलवन्ती के पूत केदार’ कहकर राहुल को अपनी बाँहों में भर लिया। अपनी जन्मभूमि पर एक बुजुर्ग की परिचित आवाज ने राहुल को भावविभोर कर दिया। उन्होंने अपनी डायरी में इसका उल्लेख भी किया है- ‘‘लोहार नाना ने जब यह कहा कि ‘अरे ई जब भागत जाय त भगइया गिरत जाय’ तब मेरे सामने अपना बचपन नाचने लगा। उन दिनों गाँव के बच्चे छोटी पतली धोती भगई पहना करते थे। गाँववासी बड़े बुजुर्गों का यह भाव देखकर मुझे महसूस होने लगा कि तुलसी बाबा ने यह झूठ कहा है कि- “तुलसी तहाँ न जाइये, जहाँ जन्म को ठाँव, भाव भगति को मरम न जाने धरे पाछिलो नाँव।’’

घुमक्कड़ी स्वभाव वाले राहुल सांकृत्यायन सार्वदेशिक दृष्टि की ऐसी प्रतिभा थे, जिनकी साहित्य, इतिहास, दर्शन संस्कृति सभी पर समान पकड़ थी। विलक्षण व्यक्तित्व के अद्भुत मनीषी, चिन्तक, दार्शनिक, साहित्यकार, लेखक, कर्मयोगी और सामाजिक क्रान्ति के अग्रदूत रूप में राहुल ने जिन्दगी के सभी पक्षों को जिया। यही कारण है कि उनकी रचनाधर्मिता शुद्ध कलावादी साहित्य नहीं है, वरन् वह समाज, सभ्यता, संस्कृति, इतिहास, विज्ञान, धर्म, दर्शन इत्यादि से अनुप्राणित है जो रूढ़ धारणाओं पर कुठाराघात करती है तथा जीवन-सापेक्ष बनकर समाज की प्रगतिशील शक्तियों को संगठित कर संघर्ष एवं गतिशीलता की राह दिखाती है। ऐसे मनीषी को अपने जीवन के अंतिम दिनों में ‘स्मृति लोप’ जैसी अवस्था से गुजरना पड़ा एवं इलाज हेतु उन्हें मास्को भी ले जाया गया। पर घुमक्कड़ी को कौन बाँध पाया है, सो अप्रैल १९६३ में वे पुन: मास्को से दिल्ली आ गए और १४ अप्रैल १९६३ को सत्तर वर्ष की आयु में दार्जिलिंग में सन्यास से साम्यवाद तक का उनका सफर पूरा हो गया पर उनका जीवन दर्शन और घुमक्कड़ी स्वभाव आज भी हमारे बीच जीवित है।

हिन्दी से खड़ी बोली तक का सफर

हिन्दी से राहुलजी को बहुत प्यार था। उन्हीं के शब्दों में, ’’मैंने नाम बदला, वेशभूषा बदली, खान-पान बदला, संप्रदाय बदला लेकिन हिन्दी के संबंध में मैंने विचारों में कोई परिवर्तन नहीं किया।‘‘ राहुलजी के विचार आज बेहद प्रासंगिक हैं। उनकी उक्तियाँ सूत्र-रूप में हमारा मार्गदर्शन करती हैं। हिन्दी को खड़ी बोली का नाम भी राहुल जी ने ही दिया था।

हिन्दी के प्रसंग में वह कहते हैं, “हिंदी, अंग्रेजी के बाद दुनिया के अधिक संख्यावाले लोगों की भाषा है। इसका साहित्य ७५० इसवी से शुरू होता है और सरहपा, कन्हापा, गोरखनाथ, चन्द्र, कबीर, जायसी, सूर, तुलसी, बिहारी, हरिश्चंद्र, जैसे कवि और लल्लूलाल, प्रेमचंद जैसे प्रलेखक दिए हैं इसका भविष्य अत्यंत उज्जवल, भूत से भी अधिक प्रशस्त है। हिंदी भाषी लोग भूत से ही नहीं आज भी सब से अधिक प्रवास निरत जाति हैं। गायना (दक्षिण अमेरिका), फिजी, मर्शेस, दक्षिण अफ्रीका, तक लाखों की संख्या में आज भी हिंदी भाषा भाषी फैले हुए हैं।”

पुरस्कार व सम्मान

राहुल सांकृत्यायन की स्मृति में भारतीय डाकतार विभाग की ओर से १९९३ में उनकी जन्मशती के अवसर पर १०० पैसे मूल्य का एक डाक टिकट जारी किया गया। पटना में राहुल सांकृत्यायन साहित्य संस्थान की स्थापना की गई है। यहाँ उनसे संबंधित वस्तुओं का एक संग्रहालय भी है। उत्तरप्रदेश के आजमगढ़ जिले के पंदहा गाँव में राहुल सांकृत्यायन साहित्य संग्रहालय की स्थापना की गई है, जहाँ उनका जन्म हुआ था। वहाँ उनकी एक वक्षप्रतिमा भी है। साहित्यकार प्रभाकर मावचे ने राहुलजी की जीवनी लिखी है और उनके व्यक्तित्व के उस हिस्से को उजागर किया है, जिससे लोग अनभिज्ञ थे। यह पुस्तक १९७८ में पहली बार प्रकाशित हुई थी। इसका अनुवाद अंग्रेज़ी, रूसी आदि अनेक विदेशी भाषाओं में भी प्रकाशित हुआ। राहुलजी की कई पुस्तकों के अंग्रेज़ी रूपांतर तो हुए ही हैं, चीनी, रूसी आदि अनेक विदेशी भाषाओं में भी उनकी कृतियां लोकप्रिय हुई हैं। उन्हें १९५८ में साहित्य अकादमी पुरस्कार, तथा १९६३ में भारत सरकार के पद्मभूषण अलंकरण से विभूषित किया गया।

साहित्यिक कृतियां

कहानियाँ…

सतमी के बच्चे
वोल्गा से गंगा
बहुरंगी मधुपुरी
कनैला की कथा

उपन्यास…

बाईसवीं सदी
जीने के लिए
सिंह सेनापति
जय यौधेय
भागो नहीं, दुनिया को बदलो
मधुर स्वप्न
राजस्थान निवास
विस्मृत यात्री
दिवोदास

आत्मकथा…मेरी जीवन यात्रा

जीवनियाँ…

सरदार पृथ्वीसिंह
नए भारत के नए नेता
बचपन की स्मृतियाँ
अतीत से वर्तमान
स्तालिन
लेनिन
कार्ल मार्क्स
माओ-त्से-तुंग
घुमक्कड़ स्वामी
मेरे असहयोग के साथी
जिनका मैं कृतज्ञ
वीर चन्द्रसिंह गढ़वाली
सिंहल घुमक्कड़ जयवर्धन
कप्तान लाल
सिंहल के वीर पुरुष
महामानव बुद्ध

यात्रा साहित्य…

लंका
जापान
इरान
किन्नर देश की ओर
चीन में क्या देखा
मेरी लद्दाख यात्रा
मेरी तिब्बत यात्रा
तिब्बत में सवा वर्ष
रूस में पच्चीस मास
विश्व की रूपरेखा

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1 thought on “राहुल सांकृत्यायन

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