April 25, 2024

“हमारा विश्वास विश्वधर्म है जो समस्त प्राचीन ज्ञान का संरक्षक है एवं जिसमें समस्त आधुनिक विज्ञान ग्राह्य है, जो सभी धर्म गुरुओं तथा संतों में एकरूपता, सभी धर्मग्रंथों में एकता एवं समस्त रूपों में सातत्य स्वीकार करता है, जिसमें उन सभी का परित्याग है जो पार्थक्य तथा विभाजन उत्पन्न करते हैं एवं जिसमें सदैव एकता तथा शांति की अभिवृद्धि है, जो तर्क तथा विश्वास योग्य तथा भक्ति तपश्चर्या और समाजधर्म को उनके उच्चतम रूपों में समरूपता प्रदान करता है एवं जो कालांतर में सभी राष्ट्रों तथा धर्मों को एक राज्य तथा एक परिवार का रूप दे सकेगा।” यह उद्धरण नवसंहिता से लिया गया है, जिसमें केशवचंद्र सेन ने विश्वधर्म का प्रतिपादन इसी प्रकार किया है।

केशवचन्द्र सेन भारतीय दार्शनिक, धार्मिक उपदेशक एवं समाज सुधारक थे। शायद आप यह नहीं जानते होंगे कि वर्ष १८५६ में ब्रह्मसमाज के अंतर्गत केशवचंद्र सेन के आगमन के साथ द्रुत गति से प्रसार पानेवाले इस आध्यात्मिक आंदोलन के सबसे गतिशील अध्याय का आरंभ हुआ था। केशवचन्द्र सेन ने ही आर्यसमाज के संस्थापक स्वामी दयानन्द सरस्वती को सलाह दी की वे सत्यार्थ प्रकाश की रचना हिन्दी में करें। आइए आज हम आपको अपने आध्यात्मिक संसार के आधुनिक पुरोधा केशवचन्द्र सेन से परिचित कराते हैं…

परिचय…

केशवचंद्र सेन का जन्म १९ नवम्बर, १८३८ को बंगाल के तत्कालीन कलकत्ता में हुआ था। उनके पिता श्री प्यारेमोहन प्रसिद्ध वैष्णव एवं विद्वान् दीवान रामकमल के पुत्र थे। बाल्यावस्था से ही केशवचंद्र का का मन आध्यात्मिक जीवन की ओर झुका रहता था। केशवचंद्र के आकर्षक व्यक्तित्व ने ब्रह्मसमाज आंदोलन को स्फूर्ति प्रदान की। उन्होंने भारत के शैक्षिक, सामाजिक तथा आध्यात्मिक पुनर्जनन में चिरस्थायी योग दिया। केशवचंद्र के सतत अग्रगामी दृष्टिकोण एवं क्रियाकलापों के साथ-साथ चल सकना देवेंद्रनाथ के लिए कठिन था, यद्यपि दोनों महानुभावों की भावना में सदैव मतैक्य था। वर्ष १८६६ में केशवचंद्र ने भारतवर्षीय ब्रह्मसमाज की स्थापना की। इस पर देवेंद्रनाथ ने अपने समाज का नाम आदि ब्रह्मसमाज रख दिया।

केशवचंद्र के प्रेरक नेतृत्व के कारण भारत का ब्रह्मसमाज देश की एक महती शक्ति बन गया। इसकी विस्तृताधारीय सर्वव्याप्ति की अभिव्यक्ति श्लोकसंग्रह में हुई जो एक अपूर्व संग्रह है तथा सभी राष्ट्रों एवं सभी युगों के धर्मग्रंथों में अपने प्रकार की प्रथम कृति है। सर्वांग उपासना की दीक्षा केशवचंद्र द्वारा ही की गई जिसके भीतर उद्बोधन, आराधना, ध्यान, साधारण प्रार्थना, तथा शांतिवाचन, पाठ एवं उपदेश प्रार्थना का समावेश है। सभी भक्तों के लिए यह उनका अमूल्य दान है।

धर्मतत्व ने तत्कालीन दार्शनिक विचारधारा को नवीन रूप दिया। वर्ष १८७९ में केशवचंद्र ने इंग्लैंड की यात्रा की। इस यात्रा से पूर्व तथा पश्चिम एक दूसरे के निकट आए तथा अंतरराष्ट्रीय एकता का मार्ग प्रशस्त हुआ। वर्ष १८७५ में केशवचंद्र ने ईश्वर के नीवन स्वरूप-नव विधान समरूप धर्म जो औपचारिक रूप से १८८० में घोषित हुआ, नवीन धर्म की संपूर्णताका संदेश दिया।

केशवचंद्र का विधान (दैवी संव्यवहार विधि), आवेश (साकार ब्रह्म की प्रत्यक्ष प्रेरणा), तथा साधु समागम (संतों तथा धर्मगुरुओं से आध्यात्मिक संयोग) पर विशेष बल देना ब्रह्मसमाजियों के एक विशेष दल को, जो नितांत तर्कवादी एवं कट्टर विधानवादी थे, उन्हें अच्छा न लगा। साथ ही केशवचंद्र की पुत्री का विवाह कूचबिहार के महाराज के साथ हुआ, यह विषय भी मतभेद एवं विघटन का कारण बना, जिसका परिणाम यह हुआ कि पंडित शिवनाथ शास्त्री के सशक्त नेतृत्व में १८७८ में साधारण ब्रह्मसमाज की स्थापना हुई।

केशवचन्द्र सेन के द्वारा टेबरनेकल ऑफ न्यू डिस्पेंसेशन (१८६८) तथा इण्डियन रिफार्म एसोसिएशन (१८७०) की स्थापना की गयी। वर्ष १८८४ में ‘ब्रह्मानंद’ केशवचन्द्र सेन ब्रह्म में विलीन हो गए।

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