April 25, 2024

जा कर रण में ललकारी थी,
वह तो झाँसी की झलकारी थी।
गोरों से लड़ना सिखा गई,
है इतिहास में झलक रही,
वह भारत की ही नारी थी।

यह कविता राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त जी की है जो उन्होंने झलकारी की बहादुरी पर लिखा है। शायद आप लोगों ने कभी इतिहास के मुख से झलकारी का नाम सुना हो। कारण स्पष्ट है कि मुख्यधारा के इतिहासकारों द्वारा, झलकारी बाई के योगदान को बहुत विस्तार नहीं दिया गया है, लेकिन इस बात पर वरिष्ठ इतिहासकारों के अहम पर चोट लगे कि आधुनिक लेखकों ने ही उन्हें गुमनामी के अंधेरे से उभारा है। जनकवि बिहारी लाल हरित ने ‘वीरांगना झलकारी’ काव्य की रचना की। हरित ने झलकारी की बहादुरी को निम्न प्रकार पंक्तिबद्ध किया है,

लझ्मीबाई का रूप धार,
झलकारी खड़ग संवार चली।
वीरांगना निर्भय लश्कर में,
शस्त्र अस्त्र तन धार चली॥

अरुणाचल प्रदेश के पूर्व राज्यपाल श्री माता प्रसाद ने झलकारी बाई की जीवनी की रचना की है। इसके अलावा चोखेलाल वर्मा ने उनके जीवन पर एक वृहद काव्य लिखा है, मोहनदास नैमिशराय ने उनकी जीवनी को पुस्तक का आकार दिया है और भवानी शंकर विशारद ने उनके जीवन परिचय को लिपिबद्ध किया है। आइए हम झलकारी बाई के जीवन पर हम भी एक नजर डालें और अपने समृद्ध इतिहास पर गर्व करें…

परिचय…

झलकारी बाई का जन्म २२ नवम्बर, १८३० को झांसी के भोजला गाँव के रहने वाले एक अत्यंत निर्धन कोली परिवार के मुखिया सदोवर सिंह और जमुना देवी के यहां हुआ था। जब झलकारी बाई बहुत छोटी थीं तब उनकी माँ का देहांत हो गया था। लेकिन झलकारी के पिता ने उन्हें बड़े प्यार से एक लड़के की तरह पाला था। उन्हें घुड़सवारी और हथियारों का प्रयोग करने में प्रशिक्षित किया गया। उन दिनों अंग्रेज अपना परचम फहराने में लगे थे अतः उस समय सामाजिक परिस्थिति ऐसी नहीं थी कि उन्हें कोई औपचारिक शिक्षा प्राप्त हो सके, लेकिन उनमें जिजीविषा ऐसी थी कि उन्होंने स्वयं को एक अच्छे योद्धा के रूप में विकसित किया था। झलकारी बचपन से ही बहुत साहसी और दृढ़ प्रतिज्ञ बालिका थी। झलकारी घर के काम के अलावा पशुओं का रख-रखाव और जंगल से लकड़ी इकट्ठा करने का काम करती थीं। एक बार जंगल में उसकी मुठभेड़ एक तेंदुए से हो गयी थी और झलकारी ने अपनी कुल्हाड़ी से उस तेंदुआ को मार डाला था। एक अन्य अवसर पर जब डकैतों के एक गिरोह ने गाँव के एक व्यवसायी पर हमला किया तब झलकारी ने अपनी बहादुरी से उन्हें पीछे हटने को मजबूर कर दिया था। उसकी इस बहादुरी से खुश होकर गाँव वालों ने उसका विवाह रानी लक्ष्मीबाई की सेना के एक सैनिक पूरन कोरी से करवा दिया, पूरन भी बहुत बहादुर था और पूरी सेना उसकी बहादुरी का लोहा मानती थी। एक बार गौरी पूजा के अवसर पर झलकारी गाँव की अन्य महिलाओं के साथ महारानी को सम्मान देने झाँसी के किले में गयीं। इस बीच हम एक बात बताना तो भूल ही गए की, परिधानों को छोड़ झलकारी बिल्कुल रानी लक्ष्मीबाई की तरह दिखतीं थीं। यह दोनो के रूप में आलौकिक समानता ही थी कि रानी लक्ष्मीबाई ने उन्हें जब देखा तो अवाक रह गईं। वहां की औरतों से जब झलकारी की बहादुरी के किस्से सुनकर रानी लक्ष्मीबाई बहुत प्रभावित हुईं तो तुरंत ही रानी ने झलकारी को दुर्गा सेना में शामिल करने का आदेश दिया। झलकारी ने यहाँ अन्य महिलाओं के साथ बंदूक चलाना, तोप चलाना और तलवारबाजी की प्रशिक्षण लिया। यह वह समय था जब झांसी की सेना को किसी भी ब्रिटिश दुस्साहस का सामना करने के लिए मजबूत बनाया जा रहा था।

इतिहास में स्थान…

लार्ड डलहौजी की राज्य हड़पने की नीति के चलते, ब्रिटिशों ने निःसंतान लक्ष्मीबाई को उनका उत्तराधिकारी गोद लेने की अनुमति नहीं दी, क्योंकि वे ऐसा करके राज्य को अपने नियंत्रण में लाना चाहते थे। हालांकि, ब्रिटिश की इस कार्रवाई के विरोध में रानी के सारी सेना, उसके सेनानायक और झांसी के लोग रानी के साथ लामबंद हो गये और उन्होने आत्मसमर्पण करने के बजाय ब्रिटिशों के खिलाफ हथियार उठाने का संकल्प लिया। अप्रैल १८५८ के दौरान, लक्ष्मीबाई ने झांसी के किले के भीतर से, अपनी सेना का नेतृत्व किया और ब्रिटिश और उनके स्थानीय सहयोगियों द्वारा किये कई हमलों को नाकाम कर दिया। रानी के सेनानायकों में से एक दूल्हेराव ने धोखा दिया और किले का एक संरक्षित द्वार ब्रिटिश सेना के लिए खोल दिया। जब किले का पतन निश्चित हो गया तो रानी के सेनापतियों और झलकारी बाई ने उन्हें कुछ सैनिकों के साथ किला छोड़कर भागने की सलाह दी। रानी अपने घोड़े पर बैठ अपने कुछ विश्वस्त सैनिकों के साथ झांसी से दूर निकल गईं।

झलकारी बाई का पति पूरन किले की रक्षा करते हुए शहीद हो गया लेकिन झलकारी ने बजाय अपने पति की मृत्यु का शोक मनाने के, ब्रिटिशों को धोखा देने की एक बेहतरीन योजना बनाई। झलकारी ने लक्ष्मीबाई की तरह कपड़े पहने और झांसी की सेना की कमान अपने हाथ में ले ली। जिसके बाद वह किले के बाहर निकल ब्रिटिश जनरल ह्यूग रोज़ के शिविर में उससे मिलने पहँची। ब्रिटिश शिविर में पहुँचने पर उसने चिल्लाकर कहा कि वो जनरल ह्यूग रोज़ से मिलना चाहती है। रोज़ और उसके सैनिक प्रसन्न थे कि न सिर्फ उन्होने झांसी पर कब्जा कर लिया है बल्कि जीवित रानी भी उनके कब्ज़े में है। जनरल ह्यूग रोज़ जो उसे रानी ही समझ रहा था, ने झलकारी बाई से पूछा कि उसके साथ क्या किया जाना चाहिए? तो उसने दृढ़ता के साथ कहा,मुझे फाँसी दो। जनरल ह्यूग रोज़ झलकारी का साहस और उसकी नेतृत्व क्षमता से बहुत प्रभावित हुआ और झलकारी बाई को रिहा कर दिया गया। इसके विपरीत कुछ इतिहासकार यह मानते हैं कि झलकारी बाई इस युद्ध में एक बारूदी धमाके करने के दौरान रानी का भेष लिए वीरगति को प्राप्त हो गईं जिससे रानी को फिर से सेना इकठ्ठा करने का समय मिल सके। साथ ही बुंदेलखंड किंवदंती यह भी है कि झलकारी उत्तर से जनरल ह्यूग रोज़ दंग रह गया और उसने कहा कि, “यदि भारत की १% महिलायें भी उसके जैसी हो जायें तो ब्रिटिशों को जल्दी ही भारत छोड़ना होगा”।

सच्चाई…

इतिहास चाहे कुछ भी कहे, इतिहास सिर्फ बामपंथ और अंग्रेजी सरकार के द्वारा ही लिखा गया है और भारतीय वीरता को विरोधियों के विरूद्ध सिर्फ छुपाया गया है। झलकारी बाई झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई की नियमित सेना में, महिला शाखा दुर्गा दल की सेनापति थीं। वे लक्ष्मीबाई की हमशक्ल थीं इस कारण शत्रु को गुमराह करने के लिए वे रानी के वेश में युद्ध करती थीं। अपने अंतिम समय में भी वे रानी के वेश में युद्ध करते हुए अंग्रेज़ों के हाथों पकड़ी गयीं थी और रानी को किले से निकलने का अवसर मिल गया। उन्होंने प्रथम स्वाधीनता संग्राम में झाँसी की रानी के साथ ब्रिटिश सेना के विरुद्ध अद्भुत वीरता से लड़ते हुए ब्रिटिश सेना के कई हमलों को विफल किया था। यदि लक्ष्मीबाई के सेनानायकों में से एक ने उनके साथ विश्वासघात न किया होता तो झांसी का किला ब्रिटिश सेना के लिए प्राय: अभेद्य था। झलकारी बाई की गाथा आज भी बुंदेलखंड की लोकगाथाओं और लोकगीतों में सुनी जा सकती है। भारत सरकार ने २२ जुलाई, २००१ में झलकारी बाई के सम्मान में एक डाक टिकट जारी किया है, उनकी प्रतिमा और एक स्मारक अजमेर, राजस्थान में निर्माणाधीन है, उत्तरप्रदेश सरकार द्वारा उनकी एक प्रतिमा आगरा में स्थापित की गयी है, साथ ही उनके नाम से लखनऊ में एक धर्मार्थ चिकित्सालय भी शुरु किया गया है।

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