March 29, 2024

गुजरात विद्यापीठ के सह संस्थापक एवं भारत के प्रसिद्ध शिक्षाशास्त्री, पत्रकार और स्वतंत्रता संग्राम सेनानी दत्तात्रेय बालकृष्ण कालेलकर जी का जन्म १ दिसम्बर, १८८५ को महाराष्ट्र के सतारा में हुआ था। जिन्हें आदर और सम्मान से लोग काका कालेलकर कहते थे और आज भी कहते हैं। काका कालेलकर गांधीजी के निकटतम सहयोगी एवं साबरमती आश्रम के सदस्य थे, साथ ही वे सर्वोदय पत्रिका के संपादक भी रहे। काका साहेब की पकड़ गुजराती और हिन्दी भाषा पर समान थी अतः उन्होंने दोनों ही भाषाओं में साहित्यरचना की। वे हिन्दी भाषा के महान सेवक थे। उनके द्वारा रचित जीवन–व्यवस्था नामक निबन्ध–संग्रह के लिये उन्हें वर्ष १९६५ में साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया।

परिचय…

जबकी काका साहेब का परिवार मूल रूप से कर्नाटक के करवार जिले का रहने वाला था और उनकी मातृभाषा कोंकणी थी। लेकिन सालों से गुजरात में बस जाने के कारण गुजराती भाषा पर उनका बहुत अच्छा अधिकार था और वे गुजराती के प्रख्यात लेखक थे।

जिन नेताओं ने राष्ट्रभाषा प्रचार के कार्य में विशेष दिलचस्पी ली और अपना समय इसी काम को दिया, उनमें प्रमुख नाम काकासाहब कालेलकर का आता है। उन्होंने राष्ट्रभाषा के प्रचार को राष्ट्रीय कार्यक्रम के अंतर्गत माना है। दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा के अधिवेशन, जो वर्ष १९३८ में था, में भाषण देते हुए उन्होंने कहा था, “हमारा राष्ट्रभाषा प्रचार एक राष्ट्रीय कार्यक्रम है।”

उन्होंने पहले स्वयं हिंदी सीखी और फिर कई वर्षतक दक्षिण में सम्मेलन की ओर से प्रचार-कार्य किया। अपनी सूझ-बूझ, विलक्षणता और व्यापक अध्ययन के कारण उनकी गणना प्रमुख अध्यापकों और व्यवस्थापकों में होने लगी। हिंदी-प्रचार के कार्य में जहाँ कहीं कोई दोष दिखाई देते अथवा किन्हीं कारणों से उसकी प्रगति रुक जाती, गांधीजी काका कालेलकर को जाँच के लिए वहीं भेजते। इस प्रकार के नाज़ुक काम काका कालेलकर ने सदा सफलता से किए। इसलिए ‘राष्ट्रभाषा प्रचार समिति’ की स्थापना के बाद गुजरात में हिंदी-प्रचार की व्यवस्था के लिए गांधीजी ने काका कालेलकर को चुना। काका साहब की मातृभाषा मराठी थी। नया काम सौंपे जाने पर उन्होंने गुजराती का अध्ययन प्रारंभ किया। कुछ वर्ष तक गुजरात में रह चुकने के बाद वे गुजराती में धाराप्रवाह बोलने लगे। साहित्य अकादमी में काका साहब गुजराती भाषा के प्रतिनिधि रहे। गुजरात में हिंदी-प्रचार को जो सफलता मिली, उसका मुख्य श्रेय काका साहब को ही जाता है।

कार्य…

आज भी आचार्य काका साहब कालेलकर जी का नाम हिंदी भाषा के विकास और प्रचार के लिए जाना जाता है।

काका कालेलकर उच्चकोटि के विचारक और विद्वान थे। उनका योगदान हिंदी-भाषा के प्रचार तक ही सीमित नहीं था। उन्होंने मौलिक रचनाओं से हिंदी साहित्य जगत को और भी समृद्ध किया है। सरल और ओजस्वी भाषा में विचारपूर्ण निबंध और विभिन्न विषयों की तर्कपूर्ण व्याख्या उनकी लेखन-शैली के विशेष गुण हैं। मूलरूप से विचारक और साहित्यकार होने के कारण उनकी अभिव्यक्ति की अपनी शैली थी, जिसे वह हिंदी-गुजराती, मराठी और बंगला में सामान्य रूप से प्रयोग करते थे। अपनी सूक्ष्म दृष्टि से वे लेखनी को एक चलचित्र का रूप दे देते थे। उनकी मौलिकता इतनी प्रमाणिक होती थी कि हर बार नये दृष्टिकोण प्रदान करती थी। कहने वाले यहां तक कहते हैं कि उनकी भाषा और शैली इतनी सजीव और प्रभावशाली होती है कि उनके गद्य भी पद्यमय लगते हैं। सही मायने में उसमें सरलता होने के कारण स्वाभाविक प्रवाह है और विचारों का बाहुल्य होने के कारण भावों के लिए उड़ान की क्षमता है। उनकी शैली प्रबुद्ध विचार की सहज उपदेशात्मक शैली है, जिसमें विद्वत्ता, व्यंग्य, हास्य, नीति सभी तत्व विद्यमान हैं।

काका साहब मँजे हुए लेखक थे। किसी भी सुंदर दृश्य का वर्णन अथवा पेचीदा समस्या का सुगम विश्लेषण उनके लिए आनंद का विषय रहे। उन्होंने देश, विदेशों का भ्रमण कर वहाँ के भूगोल का ही ज्ञान नहीं कराया, अपितु उन प्रदेशों और देशों की समस्याओं, उनके समाज और उनके रहन-सहन उनकी विशेषताओं इत्यादि का स्थान-स्थान पर अपनी पुस्तकों में बड़ा सजीव वर्णन किया है। वे जीवन-दर्शन के जैसे उत्सुक विद्यार्थी थे, देश-दर्शन के भी वैसे ही शौकिन रहे।

काका कालेलकर की शायद ३० पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं जिनमें अधिकांशतः का अन्य भारतीय भाषाओं में भी अनुवाद हुआ है। जैसे ; स्मरण-यात्रा, धर्मोदय (दोनों आत्मचरित)। हिमालयनो प्रवास, लोकमाता (दोनों यात्रा विवरण)। जीवननो आनंद, अवरनावर (दोनों निबंध संग्रह)।

काका कालेलकर सच्चे बुद्धिजीवी व्यक्ति थे। लिखना सदा से उनका व्यसन रहा। सार्वजनिक कार्य की अनिश्चितता और व्यस्तताओं के बावजूद यदि उन्होंने बीस से ऊपर ग्रंथों की रचना कर डाली इस पर किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए। इनमें से कुछ तो उन्होंने हिंदी में लिखी। यहाँ इस बात का उल्लेख भी अनुपयुक्त न होगा कि दो-चार को छोड़ बाकी ग्रंथों का अनुवाद स्वयं काका साहब ने किया, अतः मौलिक हो या अनूदित वह काका साहब की ही भाषा शैली का परिचायक हैं। हिंदी में यात्रा-साहित्य का अभी तक अभाव रहा है। इस कमी को काका साहब ने काफी हदतक भरा है। उनकी अधिकांश पुस्तकें और लेख यात्रा के वर्णन अथवा लोक-जीवन के अनुभवों के आधार पर हैं।

साहित्यिक कृतियों का संसार…

गुजराती भाषा…

१. हिमालयनो प्रवास
२. जीवन-व्यवस्था
३. पूर्व अफ्रीकामां
४. जीवनानो आनन्द
५. जीवत तेहवारो
६. मारा संस्मरणो
७. उगमानो देश
८. ओत्तेराती दिवारो
९. ब्रह्मदेशनो प्रवास
१०.रखादवानो आनन्द

हिन्दी भाषा…

१. महात्मा गांधी का स्वदेशी धर्म
२. राष्ट्रीय शिक्षा का आदर्श

मराठी भाषा…

१. स्मरण यात्रा
२. उत्तरेकादिल भिन्टी
३. हिन्दलग्याचा प्रसाद
४. लोकमाता
५. लतान्चे ताण्डव
६. हिमालयतिल प्रवास

अंग्रेजी भाषा…

1. Quintessence of Gandhian Thought
2. Profiles in Inspiration
3. Stray Glimpses of Bapu
4. Mahatma Gandhi’s Gospel of Swadeshi

काका साहेब कालेलकर जी का निधन ९६ वर्ष की आयु में, २१ अगस्त, १९८१ को नई जानकारियों के अध्ययन करने और उन्हें संकलन और साझा करने के दौरान है हुआ। वे महान भाषा सेवक थे।

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