April 25, 2024

महात्मा गाँधी के साथ भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के असहयोग आंदोलन में भाग लेने वाले एकक कवि मनोवैज्ञानिक कथाकार, उपन्यासकार तथा निबंधकार यानी कुल मिलाकर समूर्ण साहित्यकार जैनेन्द्र कुमार जी हिंदी उपन्यास के इतिहास में मनोविश्लेषणात्मक परंपरा के प्रवर्तक के रूप में सर्वमान्य हैं।जैनेन्द्र अपने पात्रों की सामान्यगति में सूक्ष्म संकेतों की निहिति की खोज करके उन्हें बड़े कौशल से प्रस्तुत करते हैं। उनके पात्रों की चारित्रिक विशेषताएँ इसी कारण से संयुक्त होकर उभरती हैं। वैसे तो जैनेन्द्र जी किसी परिचय के मोहताज नहीं हैं मगर एक बार फिर से उनके बारे में सिलसिलेवार ढंग से जानकारी प्राप्त करते हैं…

परिचय…

२ जनवरी, १९०५ को अलीगढ़ में जन्मे जैनेन्द्र ने बाल्यावस्था से ही सामान्य जीवन नहीं जिया था। कारण यह था कि मात्र दो वर्ष की अल्प आयु में ही वे अपने पिता को खो चुके थे। इनके मामा जी ने हस्तिनापुर में एक गुरुकुल स्थापित किया था, वहीं उनका बचपन बीता और वहीं उनकी पढ़ाई भी हुई। उनके बचपन का नाम आनंदी लाल था। आनंदी लाल की उच्च शिक्षा काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से प्राप्त हुई। मगर गांधी जी के आह्वान पर वर्ष १९२१ में पढ़ाई छोड़कर वे असहयोग आंदोलन में कूद पड़े। वर्ष १९२३ में राजनीतिक संवाददाता हो गए। ब्रिटिश सरकार ने अन्य स्वतंत्रता सेनानी की भांति उन्हें भी गिरफ्तार कर लिया। गिरफ्तारी के दौरान मन में उठने वाले प्रश्नों का जवाब उन्होंने छूटने के कुछ समय बाद लेखनी करके ढूंढना शुरू किया।

साहित्यिक परिचय…

खोजकर्ताओं और जानकारों के अनुसार ‘फाँसी’ इनका पहला कहानी संग्रह था, जिसने इनको प्रसिद्ध कहानीकार बना दिया। उपन्यास ‘परख’ से वर्ष १९२९ में पहचान बनी। ‘सुनीता’ का प्रकाशन वर्ष १९३५ में हुआ। ‘त्यागपत्र’ १९३७ में और ‘कल्याणी’ १९३९ में प्रकाशित हुए। १९२९ में पहला कहानी-संग्रह ‘फाँसी’ छपा। इसके बाद १९३० में ‘वातायन’, १९३३ में ‘नीलम देश की राजकन्या’, १९३४ में ‘एक रात’, १९३५ में ‘दो चिड़ियाँ’ और १९४२ में ‘पाजेब’ का प्रकाशन हुआ। अब तो ‘जैनेन्द्र की कहानियां’ सात भागों उपलब्ध हैं। उनके अन्य महत्त्वपूर्ण उपन्यास हैं- ‘विवर्त,’ ‘सुखदा’, ‘व्यतीत’, ‘जयवर्धन’ और ‘दशार्क’। ‘प्रस्तुत प्रश्न’, ‘जड़ की बात’, ‘पूर्वोदय’, ‘साहित्य का श्रेय और प्रेय’, ‘मंथन’, ‘सोच-विचार’, ‘काम और परिवार’, ‘ये और वे’ इनके निबंध संग्रह हैं। तालस्तोय की रचनाओं का इनका अनुवाद उल्लेखनीय है। ‘समय और हम’ प्रश्नोत्तर शैली में जैनेन्द्र को समझने की दृष्टि से सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण पुस्तक है।

कृतियाँ…

उपन्यास…

१. परख (१९२९)

२. सुनीता (१९३५)

३. त्यागपत्र (१९३७)

४. कल्याणी (१९३९)

५. विवर्त (१९५३)

६. सुखदा (१९५३)

७. व्यतीत (१९५३)

८. जयवर्धन (१९५६)

कहानी संग्रह…

१. फाँसी (१९२९)

२. वातायन (१९३०)

३. नीलम देश की राजकन्या (१९३३)

४. एक रात (१९३४)

५. दो चिड़ियाँ (१९३५)

६. पाजेब (१९४२)

७. जयसंधि (१९४९)

८. जैनेन्द्र की कहानियाँ (सात भाग)

निबंध संग्रह…

१. प्रस्तुत प्रश्न (१९३६)

२. जड़ की बात (१९४५)

३. पूर्वोदय (१९५१)

४. साहित्य का श्रेय और प्रेय (१९५३)

५. मंथन (१९५३)

६. सोच विचार (१९५३)

७. काम, प्रेम और परिवार (१९५३)

८. ये और वे (१९५४)

हिन्दी साहित्य में स्थान…

जैनेन्द्र पहले ऐसे लेखक हैं जिन्होंने हिन्दी गद्य को मनोवैज्ञानिक गहराइयों से जोड़ा। जिस समय प्रेमचन्द सामाजिक पृष्ठभूमि के उपन्यास और कहानियाँ लिख कर जनता को जीवन की सच्चाइयों से जोड़ने के काम में महारथ सिद्ध कर रहे थे, जब हिन्दी गद्य ‘प्रेमचन्द युग’ के नाम से जाना जा रहा था, तब उस नयी लहर के मध्य एक बिल्कुल नयी धारा प्रारम्भ करना सरल कार्य नहीं था। आलोचकों और पाठकों की प्रतिक्रिया की चिन्ता किये बिना, कहानी और उपन्यास लिखना जैनेन्द्र के लिये कितना कठिन रहा होगा, इसका अनुमान किया जा सकता है। बहुत से आलोचकों ने जैनेन्द्र के साहित्य के व्यक्तिनिष्ठ वातावरण और स्वतंत्र मानसिकता वाली नायिकाओं की आलोचना भी की परंतु व्यक्ति को रूढ़ियों, प्रचलित मान्यताओं और प्रतिष्ठित संबंधों से हट कर देखने और दिखाने के संकल्प से जैनेन्द्र विचलित नहीं हुए। जीवन और व्यक्ति को बँधी लकीरों के बीच से हटा कर देखने वाले जैनेन्द्र के साहित्य ने हिन्दी साहित्य को नयी दिशा दी जिस पर बाद में हमें अज्ञेय चलते हुए सफल दिखाई पड़ते हैं।

प्रेमचन्द साहित्य के पूरक…

मनुष्य का व्यक्तित्व सामाजिक स्थितियों और भीतरी चिंतन-चिंताओं से मिल कर बनता है। दोनों में से किसी एक का अभाव उसके होने को खंडित करता है। इस दृष्टि से जैनेन्द्र, प्रेमचन्द युग और प्रेमचन्द साहित्य के पूरक हैं। प्रेमचन्द के साहित्य की सामाजिकता में व्यक्ति के जिस निजत्व की कमी कभी- कभी खलती थी वह जैनेन्द्र ने पूरी की। इस दृष्टि से जैनेन्द्र को हिन्दी गद्य में ‘प्रयोगवाद’ का प्रारम्भकर्ता कहा जा सकता है। उनके प्रारम्भ के उपन्यासों ‘परख’ (१९२९), ‘सुनीता'(१९३५) और ‘त्यागपत्र’ (१९३७) ने वयस्क पाठकों को सोचने के लिए बहुत सी नयी सामग्री दी। ‘हिन्दी साहित्य का इतिहास’ में गोपाल राय जी लिखते हैं ‘उनके उपन्यासों की कहानी अधिकतर एक परिवार की कहानी होती है और वे ’शहर की गली और कोठरी की सभ्यता’ में ही सिमट कर व्यक्ति-पात्रों की मानसिक गहराइयों में प्रवेश करने की कोशिश करते हैं।’ जैनेन्द्र के पात्र बने-बनाये सामाजिक नियमों को स्वीकार कर, उनमें अपना जीवन बिताने की चेष्टा नहीं करते अपितु उन नियमों को चुनौती देते हैं। यह चुनौती प्राय: उनकी नायिकाओं की ओर से आती है जो उनकी लगभग सभी रचनाओं में मुख्य पात्र भी हैं। १९३०-३५ या फिर ४० में स्त्रियों का समाज की चिन्ता किये बिना, विवाह संस्था के प्रति प्रश्न उठाना स्वयं में नयी बात थी।

जैनेन्द्र के पात्रों का व्यक्तित्त्व…

जैनेन्द्र के पात्रों में यह शंका, उलझन दिखाई देती है कि स्त्रियाँ संबंधों की मर्यादा में रहते हुए भी स्वतंत्र व्यक्तित्त्व बनाए रखना चाहती हैं जो नि:संदेह भारतीय परिवेश में आज, यानी जैनेन्द्र के इन उपन्यासों के समय के ६९-७० वर्ष बाद भी यथार्थ नहीं है जैनेन्द्र जानते थे कि वह जिस नारी स्वतंत्रता के विषय में सोच रहे हैं, वह एक दुर्लभ वस्तु है। समाज के स्वीकार और प्रतिक्रिया के प्रश्नों से वे भी उलझे थे इसलिये वे प्रश्नों को उठाते तो हैं किन्तु उनका उत्तर स्पष्ट रूप से नहीं देते बल्कि कहानी को एक मोड़ पर लाकर छोड़ देते जहाँ से पाठक की कल्पना और भाव-बुद्धि अपने इच्छानुसार विचरती है। बहुधा यह स्थिति खीज भी उत्पन्न करती थी विशेषकर उस समय में, जब ये उपन्यास लिखे गये थे। प्रेमचन्द के उपन्यासों में समस्याओं का प्राय: समाधान हुआ करता था, उस समय एक भिन्न प्रकार की समस्या उठा कर, बिना निदान दिए, छोड़ देना निस्संदेह एक नई शुरूआत थी। उनके उपन्यासों- ‘कल्याणी’, ‘सुखदा’, ‘विवर्त’, ‘व्यतीत’, ‘जयवर्धन’ आदि में उनके स्त्री-पात्र समाज की विचारधारा को बदलने में असमर्थ होने के कारण अन्तत: आत्मयातना के शिकार बनते हैं यह आत्मयातना उनके जीवन दर्शन का एक अंग बन जाती है। उनमें समाज से अलग हट कर अपने अस्तित्व को ढूँढने का आत्मतोष तो है किन्तु उस स्वतंत्र अस्तित्व के साथ रह न पाने की निराशा भी है। जैनेन्द्र के उपन्यासों ने निस्संदेह साहित्यिक विचारधारा और दर्शन को नई दिशा दी। आपको अज्ञेय के उपन्यास इसी दिशा में आगे बढ़े हुए प्रतीत होंगे।

जैनेन्द्र की कहानियों में भी हमें यह नई दिशा दिखाई देती है। आलोचकों का मानना है कि ‘उन्होंने कहानी को ’घटना’ के स्तर से उठाकर ’चरित्र’ और ’मनोवैज्ञानिक सत्य’ पर लाने का प्रयास किया। उन्होंने कथावस्तु को सामाजिक धरातल से समेट कर व्यक्तिगत और मनोवैज्ञानिक भूमिका पर प्रतिष्ठित किया।’ चाहे उनकी कहानी ‘हत्या’ हो या ‘खेल’, ‘अपना-अपना भाग्य’, ‘बाहुबली’, ‘पाजेब’, ध्रुवतारा, ‘दो चिड़ियाँ’ आदि सभी कहानियों में व्यक्ति-मन की शंकाओं, प्रश्नों को प्रस्तुत करती हैं। कहा जा सकता है कि जैनेन्द्र के उपन्यासों और कहानियों में व्यक्ति की प्रतिष्ठा, हिन्दी साहित्य में नई बात थी जिसने न केवल व्यक्ति और समाज के पारस्परिक संबंध नई व्याख्या की बल्कि व्यक्ति मन को उचित महत्ता भी दिलवाई। जैनेन्द्र के इस योगदान को हिन्दी साहित्य कभी नहीं भूल सकता।

प्रेमचंद और जैनेन्द्र या बनाम…

जैनेन्द्र कुमार प्रेमचंद युग के महत्वपूर्ण कथाकार माने जाते हैं। उनकी प्रतिभा को प्रेमचंद जी ने भरपूर मान दिया। वे समकालीन दौर में प्रेमचंद के निकटतम सहयात्रियों में से एक थे मगर दोनों का व्यक्तित्व जुदा था। प्रेमचंद लगातार विकास करते हुए अंतत: महाजनी सभ्यता के घिनौने चेहरे से पर्दा हटाने में पूरी शक्ति लगाते हुए ‘कफ़न’ जैसी कहानी और किसान से मज़दूर बनकर रह गए। होरी के जीवन की महागाथा गोदान लिखकर विदा हुए। जैनेन्द्र ने जवानी के दिनों में जिस वैचारिक पीठिका पर खड़े होकर रचनाओं का सृजन किया जीवन भर उसी से टिके रहकर मनोविज्ञान, धर्म, ईश्वर, इहलोक, परलोक पर गहन चिंतन करते रहे। समय और हम उनकी वैचारिक किताब है। प्रेमचंद के अंतिम दिनों में जैनेन्द्र ने अपनी आस्था पर जोर देते हुए उनसे पूछा था कि अब ईश्वर के बारे में क्या सोचते हैं। प्रेमचंद ने दुनिया से विदाई के अवसर पर भी तब जवाब दिया था कि इस बदहाल दुनिया में ईश्वर है ऐसा तो मुझे भी नहीं लगता। वे अंतिम समय में भी अपनी वैचारिक दृढ़ता बरकरार रख सके यह देखकर जैनेन्द्र बेहद प्रभावित हुए। वामपंथी विचारधारा से जुड़े लेखकों के वर्चस्व को महसूस करते हुए जैनेन्द्र कलावाद का झंडा बुलंद करते हुए अपनी ठसक के साथ समकालीन साहित्यिक परिदृश्य पर अलग नजर आते थे। गहरी मित्रता के बावजूद प्रेमचंद और जैनेन्द्र एक दूसरे के विचारों में भिन्नता का भरपूर सम्मान करते रहे और साथ- साथ चले।

सम्मान और पुरस्कार…

१. हिन्दुस्तानी अकादमी पुरस्कार, १९२९ में ‘परख’ (उपन्यास) के लिए।

२. भारत सरकार शिक्षा मंत्रालय पुरस्कार, १९५२ में ‘प्रेम में भगवान्’ (अनुवाद) के लिए।

३. साहित्य अकादमी पुरस्कार ‘मुक्तिबोध’ (लघु उपन्यास १९६६) के लिए।

४. पद्मभूषण, १९७१

५. साहित्य अकादमी फैलोशिप, १९७४

६. हस्तीमल डालमिया पुरस्कार (नई दिल्ली)

७. उत्तरप्रदेश राज्य सरकार (समय और हम-१९७०)

८. उत्तरप्रदेश सरकार का शिखर सम्मान ‘भारत-भारती’

९. मानद डी. लिट् (दिल्ली विश्वविद्यालय, १९७३, आगरा विश्वविद्यालय,१९७४)

१०. हिन्दी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग (साहित्य वाचस्पति-१९७३)

११. विद्या वाचस्पति (उपाधिः गुरुकुल कांगड़ी)

१२. साहित्य अकादमी की प्राथमिक सदस्यता

१३. प्रथम राष्ट्रीय यूनेस्को की सदस्यत

१४. भारतीय लेखक परिषद् की अध्यक्षता

१५. दिल्ली प्रादेशिक हिन्दी साहित्य सम्मेलन का सभापतित्व

निधन…

२४ दिसंबर, १९८८ को उनका निधन हो गया।

जैनेन्द्र एक ही है…

हिन्दी के सुप्रसिद्ध आलोचक प्रो. नामवर सिंह ने कहा है कि विश्व साहित्य में भारतीय कहानियों का अपना मौलिक चरित्र है और विश्व साहित्य में जब कभी भारतीय कहानियों की बात होगी तो प्रेमचंद के साथ जैनेन्द्र को ज़रूर याद किया जाएगा। उन्होंने जैनेन्द्र को याद करते हुए कहा कि “नई कहानी से जुड़े लोगों ने उन पर बड़े आरोप लगाए। एक अधिवेशन में कोलकाता बुलाकर खूब खरीखोटी सुनाई लेकिन जैनेन्द्र जरा भी उत्तेजित नहीं हुए। आज ऐसे कम साहित्यकार हैं जो अपनी आलोचनाओं को इतनी सहजता से सुनते हैं।” उन्होंने कहा कि वह क़िस्सा गोई के कथाकार नहीं थे और न ही उनकी कहानियाँ घटना प्रधान होती थीं। वह तो प्रतिक्रियावादी थे। इस मौके पर उन्होंने जैनेन्द्र की ‘खेल’ और ‘नीलम देश की राजकन्या’ नामक कहानियों की याद दिलाई। जैनेन्द्र के साथ लंबे समय तक रहे प्रदीप कुमार ने कहा, “वह कहानी किसी भी पंक्ति से शुरू कर देते थे। कहते थे- तुम्हीं पहली पंक्ति कह दो! वह कबीर के भक्त थे और हमेशा कबीर के दोहे गाते रहते थे। कठिन परिस्थितियों में भी सरकार से सहायता की उम्मीद नहीं रखते थे और न ही उसे स्वीकारते थे।” कवि अशोक वाजपेयी ने कहा, “सत्ता के गलियारों में गहरी पैठ रखने वालों से वह बराबरी का संवाद करते थे और स्पष्टत: अपनी बात कहते थे। वह मानते थे कि भाषा हो तो श्रृंगारहीन हो। उन्हें शब्द के संकोच का कथाकार कहा जा सकता है।”

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