April 20, 2024

हिन्दी के शीर्षस्थ साहित्यकारों में से एक डॉ. हज़ारी प्रसाद द्विवेदी (Hazari Prasad Dwivedi) जी उच्चकोटि के निबन्धकार, उपन्यासकार, आलोचक, चिन्तक तथा शोधकर्ता थे।

परिचय…

हज़ारी प्रसाद द्विवेदी का जन्म जन्म १९ अगस्त, १९०७ (श्रावण, शुक्ल पक्ष, एकादशी, संवत १९६४) को बलिया ज़िले के ‘आरत दुबे का छपरा’ नामक गाँव के एक प्रतिष्ठित सरयूपारीण ब्राह्मण कुल एवम संस्कृत के प्रकाण्ड पंडित श्री अनमोल द्विवेदी जी के यहां हुआ था। द्विवेदी जी के प्रपितामह ने काशी में कई वर्षों तक रहकर ज्योतिष का गम्भीर अध्ययन किया था। द्विवेदी जी की माता भी प्रसिद्ध पण्डित कुल की कन्या थीं। इस तरह बालक द्विवेदी को संस्कृत के अध्ययन का संस्कार विरासत में ही मिल गया था।

कार्यक्षेत्र…

वर्ष १९३० में बारहवीं की परीक्षा उत्तीर्ण करने पश्चात द्विवेदी जी प्राध्यापक होकर शान्ति निकेतन चले गये। वर्ष १९४० से १९५० ई. तक वे वहाँ पर हिन्दी भवन के निर्देशक के पद पर कार्य करते रहे। शान्ति निकेतन में गुरूदेव रवीन्द्र नाथ टैगोर के घनिष्ठ सम्पर्क में आने पर नये मानवतावाद के प्रति उनके मन में जिस आस्था की प्रतिष्ठा हुई, वह उनके भावी विकास में बहुत ही सहायक बनी। क्षितिजमोहन सेन, विधुशेखर भट्टाचार्य और बनारसीदास चतुर्वेदी की सन्निकटता से भी उनकी साहित्यिक गतिविधि में अधिक सक्रियता आयी।

भाषा-शैली…

द्विवेदी जी की भाषा परिमार्जित खड़ी बोली है। उन्होंने भाव और विषय के अनुसार भाषा का चयनित प्रयोग किया है। उनकी भाषा के दो रूप दिखलाई पड़ते हैं…

१. प्रांजल व्यावहारिक भाषा

२. संस्कृतनिष्ठ शास्त्रीय भाषा

वर्ण्य विषय…

द्विवेदी जी के निबंधों के विषय भारतीय संस्कृति, इतिहास, ज्योतिष, साहित्य, विविध धर्मों और संप्रदायों का विवेचन आदि है। वर्गीकरण की दृष्टि से द्विवेदी जी के निबंध दो भागों में विभाजित किए जा सकते हैं…

१. विचारात्मक निबंध

२. आलोचनात्मक निबंध

कृतियाँ… हज़ारी प्रसाद द्विवेदी की कुछ कृतियाँ निम्नलिखित हैं-

हिन्दी साहित्य की भूमिका… ‘हिन्दी साहित्य की भूमिका’ उनके सिद्धान्तों की बुनियादी पुस्तक है। जिसमें साहित्य को एक अविच्छिन्न परम्परा तथा उसमें प्रतिफलित क्रिया-प्रतिक्रियाओं के रूप में देखा गया है। नवीन दिशा-निर्देश की दृष्टि से इस पुस्तक का ऐतिहासिक महत्व है।

कबीर… अपने फक्कड़ व्यक्तित्व, घर फूँक मस्ती और और क्रान्तिकारी विचारधारा के कारण कबीर ने उन्हें विशेष आकृष्ट किया। ‘कबीर’ पुस्तक में उन्होंने जिस सांस्कृतिक परम्परा, समसामयिक वातावरण और नवीन चिन्तन का उद्घाटन किया है, वह उनकी उपरिलिखित आलोचनात्मक दृष्टि के सर्वथा मेल में है। भाषा भावों की संवाहक होती है। कबीर की भाषा वही है। वे अपनी बात को साफ एवं दो टूक शब्दों में कहने के हिमायती थे। इसीलिए हज़ारी प्रसाद द्विवेदी ने उन्हें “वाणी का डिटेक्टर” कहा है।

हिन्दी साहित्य का आदिकाल… ‘हिन्दी साहित्य का आदिकाल’ में द्विवेदी जी ने नवीन उपलब्ध सामग्री के आधार पर जो शोधपरक विश्लेषण प्रस्तुत किया है, उससे हिन्दी साहित्य के इतिहास के पुन: परीक्षण की आवश्यकता महसूस की जा रही है।

नाथ सम्प्रदाय… ‘नाथ सम्प्रदाय’ में सिद्धों और नाथों की उपलब्धियों पर गम्भीर विचार व्यक्त किये गए हैं।

सूर-साहित्य… सूर-साहित्य उनकी प्रारम्भिक आलोचनात्मक कृति है, जो आलोचनात्मक उतनी नहीं है, जितनी की भावनात्मक। इनके अतिरिक्त उनके अनेक मार्मिक समीक्षात्मक निबन्ध विभिन्न निबन्ध-संग्रहों में संग्रहीत हैं, जो साहित्य के विभिन्न पक्षों का गम्भीर उद्घाटन करते हैं।

निबन्ध… द्विवेदी जी जहाँ विद्वत्तापरक अनुसन्धानात्मक निबन्ध लिख सकते हैं, वहाँ श्रेष्ठ निर्बन्ध निबन्धों की सृष्टि भी कर सकते हैं। उनके निर्बन्ध निबन्ध हिन्दी निबन्ध साहित्य की मूल्यवान् उपलब्धि है। द्विवेदी जी के व्यक्तित्व में विद्वत्ता और सरसता का, पाण्डित्य और विदग्धता का, गम्भीरता और विनोदमयता का, प्राचीनता और नवीनता का जो अदभुत संयोग मिलता है, वह अन्यत्र दुर्लभ है। इन विरोधाभासी तत्वों से निर्मित उनका व्यक्तित्व ही उनके निर्बन्ध निबन्धों में प्रतिफलित हुआ है। अपने निबन्धों में वे बहुत ही सहज ढंग से, अनौपचारिक रूप में, ‘नाख़ून क्यों बढ़ते हैं’, ‘आम फिर बौरा गए’, ‘अशोक के फूल’, ‘एक कुत्ता और एक मैना’, ‘कुटज’ आदि की चर्चा करते हैं, जिससे पाठकों का अनुकूल्य प्राप्त करने में उन्हें कोई कठिनाई नहीं होती। पर उनके निबन्धों का पूर्ण रसास्वादन करने के लिए जगह-जगह बिखरे हुए सांस्कृतिक-साहित्यिक सन्दर्भों को जानना बहुत आवश्यक है। इन सन्दर्भों में उनकी ऐतिहासिक चेतना को देखा जा सकता है, किन्तु सम्पूर्ण निबन्ध पढ़ने के बाद पाठक नये मानवतावादी मूल्यों की उपलब्धि भी करता चलता है। उनमें अतीत के मूल्यों के प्रति सहज ममत्व है, किन्तु नवीन के प्रति कम उत्साह नहीं है।

बाणभट्ट… ‘बाणभट्ट’ की आत्मकथा’ द्विवेदी जी का अपने ढंग का असमान्तर उपन्यास है, जो अपने कथ्य तथा शैली के कारण सहृदयों द्वारा विशेष रूप से समादृत हुआ है। यह हिन्दी उपन्यास साहित्य की विशिष्ट उपलब्धि है। इस उपन्यास में उनके विस्तृत और गम्भीर अध्ययन तथा प्रतिभा का अदभुत मिश्रण हुआ है। इसके माध्यम से अपने जीवन-दर्शन के विविध पक्षों को उद्घाटित करते हुए उन्होंने इसे वैचारिक दृष्टि से भी विशिष्ट ऊँचाई प्रदान की है। हर्षकालीन जिस विशाल फलक पर बाणभट्ट को चित्रित किया गया है, वह गहन अध्ययन तथा गत्यात्मक ऐतिहासिक चेतना की अपेक्षा रखता है। कहना न होगा कि द्विवेदी जी के व्यक्तित्व के निर्माण में इस ऐतिहासिक चेतना का बहुत महत्त्वपूर्ण योग रहा है। यही कारण है कि वे समाज और संस्कृति के विविध आयामों को, उसके सम्पूर्ण परिवेश को, एक इकाई में सफलता पूर्वक बाँधने में समर्थ हो सके हैं।

इस उपन्यास में कुछ पात्र, घटनाएँ और प्रसंग इतिहासाश्रित हैं और कुछ काल्पनिक। बाण, हर्ष, कुमार कृष्ण, बाण का घुमक्कड़ के रूप में भटकते फिरना, हर्ष द्वारा तिरस्कृत और सम्मानित होना आदि इतिहास द्वारा अनुमोदित हैं। निपुणिका, भट्टिनी, सुचरिता, महामाया, अवधूत पाद तथा इनसे सम्बद्ध घटनाएँ कल्पना प्रसूत हैं। इतिहास और कल्पना के समुचित विनियोग द्वारा लेखक ने उपन्यास को जो रूप-रंग दिया है, वह बहुत ही आकर्षक बन पड़ा है। इस ऐतिहासिक उपन्यास में मानव-मूल्य की नये मानवतावादी मूल्य की प्रतिष्ठा करना भी लेखक का प्रमुख उद्देश्य रहा है। जिनको लोक ‘बण्ड’ या कुल भ्रष्ट समझता है, वे भीतर से कितने महान् हैं, इसे बाणभट्ट और निपुणिका (निउनिया) में देखा जा सकता है। लोक चेतना या लोक शक्ति को अत्यन्त विश्वासमयी वाणी में महामाया द्वारा जगाया गया है। यह लेखक का अपना विश्वास भी है। द्विवेदी जी प्रेम को सेक्स से सम्पृक्त न करते हुए भी उसे जिस ऊँचाई पर प्रतिष्ठित करते हैं, वह सर्वथा मनोवैज्ञानिक है। प्रेम के उच्चतर सोपान पर पहुँचने के लिए अपना सब कुछ उत्सर्ग करना पड़ता है। निपुणिका को नारीत्व प्राप्त हुआ तपस्या की अग्नि में जलने पर। बाणभट्ट की प्रतिभा को चार-चाँद लगा प्रेम का उन्नयनात्मक स्वरूप समझने पर। सुचरिता को अभीप्सित की उपलब्धि हुई प्रेम के वासनात्मक स्वरूप की निष्कृति पर। शैली की दृष्टि से यह पारम्परिक स्वच्छन्दतावादी (क्लैसिकल रोमाण्टिक) रचना है। बाणभट्ट की शैली को आधार मानने के कारण लेखक को वर्णन की विस्तृत और संश्लिष्ट पद्धति अपनानी पड़ी है, पर बीच-बीच में उसकी अपनी स्वच्छन्द प्रवृत्ति भी जागरूक रही है, जिससे लम्बी अलंकृत शैली की दुरूहता का बहुत कुछ परिष्कार हो जाता है। उनका दूसरा उपन्यास चारुचन्द्रलेख भी प्रकाशित हो चुका है।

उपलब्धियाँ तथा पुरस्कार…

हज़ारी प्रसाद द्विवेदी को भारत सरकार ने उनकी विद्वत्ता और साहित्यिक सेवाओं को ध्यान में रखते हुए साहित्य एवं शिक्षा के क्षेत्र में वर्ष १९५७ में ‘पद्म भूषण’ से सम्मानित किया था।

मृत्यु…

हज़ारी प्रसाद द्विवेदी जी की मृत्यु १९ मई, १९७९ ई. में हुई थी

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