April 20, 2024

रामकृष्ण परमहंस के प्रिय शिष्य स्वामी विवेकानंद के गुरुभाई तथा रामकृष्ण मिशन के द्वितीय अध्यक्ष स्वामी शिवानंद के प्रिय शिष्य स्वामी रंगनाथानन्द जी रामकृष्ण संघ के रामकृष्ण मिशन के तेरहवें संघध्यक्ष बने थे।

परिचय…

स्वामी रंगनाथनन्द का जन्म १५ दिसंबर, १९०८ को केरल के त्रिसूर नामक गांव में हुआ था। उनका बचपन का नाम शंकरम् था। आगे चलकर उन्होंने न केवल भारत अपितु विश्व के अनेक देशों में भ्रमण कर हिंदू चेतना एवं वेदांत के प्रति सार्थक दृष्टिकोण निर्माण करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी। इससे उन्होंने अपने बचपन के शंकरम् नाम को सच में सार्थक कर दिया।

दीक्षा…

वर्ष १९२६ में शंकरम् मात्र १८ वर्ष की आयु में मैसूर के रामकृष्ण मिशन से जुड़ गए। इसके बाद तो मिशन की गतिविधियों को ही उन्होंने अपने जीवन का एकमात्र कार्य बना लिया। रामकृष्ण परमहंस के स्वामी विवेकानंद के अलावा भी अनेकों शिष्य थे, जिनमें स्वामी शिवानंद भी मुख्य थे, जो कालांतर में मिशन के द्वितीय अध्यक्ष भी बने थे, उन्होंने शंकरम् को वर्ष १९३३ में संन्यास की दीक्षा दी। उन्होंने प्रारंभ में मैसूर और फिर बंगलौर में सफलता पूर्वक सेवाकार्य किये। इससे रामकृष्ण मिशन के काम में लगे संन्यासियों के मन में शंकरम् के प्रति प्रेम, आदर एवं श्रद्धा का भाव क्रमशः बढ़ने लगा।

मिशन कार्य…

वर्ष १९३९ से वर्ष १९४२ तक वे रामकृष्ण मिशन, रंगून (बर्मा) के अध्यक्ष और पुस्तकालय प्रमुख रहे। इसके बाद वर्ष १९४८ तक वे करांची में अध्यक्ष के नाते कार्यरत रहे। देश विभाजन के उपरांत वर्ष १९६२ तक उन्होंने दिल्ली और फिर वर्ष १९६७ तक कोलकाता में रामकृष्ण मिशन की गतिविधियों का संचालन किया। इसके बाद वे हैदराबाद भेज दिये गये। वर्ष १९८९ में उन्हें रामकृष्ण मिशन का उपाध्यक्ष तथा वर्ष १९९८ में अध्यक्ष चुना गया। भारत के सांस्कृतिक दूत के नाते वे विश्व के अनेक देशों में गये। सब स्थानों पर उन्होंने अपनी विद्यत्ता तथा भाषण शैली से वेदांत का प्रचार किया। उन्होंने कितने ही पुस्तकों का लेखन किया। उनकी वाणी को कैसेट में रिकॉर्ड किया गया है।

कन्याकुमारी में विवेकानंद शिला स्मारक के निर्माण के वक्त वे प्रारंभ से ही जुड़े रहे। शिला स्मारक के संस्थापक श्री एकनाथ रानडे से उनकी बहुत घनिष्ठता थी। १५ सितम्बर, १९७० को ‘विवेकानंद शिला स्मारक समिति’ द्वारा आयोजित एक समारोह में तात्कालिक प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी आयीं। इस कार्यक्रम की अध्यक्षता स्वामी रंगनाथानंद ने ही किया था।

मृत्यु…

स्वामी रंगनाथानन्द २६ अप्रैल, २००४ को अपनी अनंत यात्रा जाने से पूर्व एक बार, एक निराश कार्यकर्ता को लिखे पत्र में उन्होंने कहा था, “यह एक दिन का कार्य नहीं है। पथ कण्टकाकीर्ण है, पर पार्थस्वामी हमारे भी सारथी बनने को तैयार हैं। उनके नाम पर और उनमें नित्य विश्वास रखकर हम भारत पर सदियों से पड़े दीनता के पर्वतों को भस्म कर देंगे। सैंकड़ों लोग संघर्ष के इस पथ पर गिरेंगे और सैकड़ों नये आरूढ़ होंगे। बढ़े चलो। पीछे मुड़कर मत देखो कि कौन गिर गया। ईश्वर ही हमारा सेनाध्यक्ष है। हम निश्चित ही सफल होंगे।” सदा ऐसे ही आशावादी दृष्टिकोण अपनाते थे स्वामी रंगनाथानन्द जी।

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