April 25, 2024

आज हम बात करने वाले हैं १८५७ की क्रांति के ‘अंतिम शाहिद’ कहे जाने वाले वीर सुरेन्द्र साय के बारे में…

परिचय…

सुरेन्द्र साय का जन्म २३ जनवरी, १८०९ को उड़ीसा के सम्बलपुर अंर्तगत एवं ३० किलोमीटर दूर खिण्डा नामक गांव के चौहान राजवंश में हुआ था। सुरेन्द्र साय का विवाह हटीबाड़ी के जमींदार की पुत्री से हुआ था, जिनसे उन्हें एक पुत्र मित्रभानु और एक पुत्री प्राप्त हुए।

राज्य एवं राजनीति…

वर्ष १८२७ की बात है, सम्बलपुर के राजा की निःसन्तान अवस्था में मृत्यु हो गई। उस समय राजगद्दी का मूल अधिकारी सुरेन्द्र साय ही थे; परंतु अंग्रेजी सरकार को यह मंजूर नहीं था, क्योंकि वे भलीभांति जानते थे कि सुरेन्द्र साय गद्दी पर बैठते ही उन्हें अपने राज्य से बाहर निकाल देगा। इसलिए उन्होंने राजरानी मोहन कुमारी को ही राज्य का प्रशासक न्युक्त कर दिया। मोहन कुमारी बेहद सरल महिला थीं, उन्हें राजनीतिक कलाबाजियों की समझ नहीं थी। अतः अंग्रेज उन्हें अपनी उँगलियों पर नचाने लगे। लेकिन क्या यह अंग्रेजों के लिए इतना आसान था? नहीं! उस राज्य के सभी जमींदार नाराज हो गये। उन्होंने अंग्रेजों को हिदायत भी दी, परंतु अंग्रेजी सरकार के कान में जूं तक नहीं रेंगी। अब जमींदारों ने इसका मिलकर सशस्त्र विरोध करने का निश्चय कर लिया। इसके लिए उन्होंने सुरेन्द्र साय को अपना नेता चुन लिया। धीरे-धीरे ही सही प्रतिरोध की गति बढ़ने लगी, जनमानस में असंतोष बढ़ने लगा। इससे अंग्रेज अधिकारी परेशान होने लगे। शासन व्यवस्था बिगड़ने लगी।

युद्ध…

अब अंग्रेज सुरेन्द्र साय और उनके साथियों के थाह में रहने लगे। इसके लिए उन्होंने साम, दाम, दण्ड और भेद की नीति अपना ली। बात वर्ष १८३७ की है, एक दिन सुरेन्द्र साय, उदन्त साय, बलराम सिंह तथा लखनपुर के जमींदार बलभद्र देव डेब्रीगढ़ में कुछ विचार-विमर्श कर रहे थे, तभी अंग्रेजों ने वहाँ अचानक से धावा बोल दिया। सुरेन्द्र साय, उदन्त साय और बलराम सिंह तो बच गए परन्तु बलभद्र देव पकड़े गए। उन्होंने बलभद्र देव को बंधक बनाने के बजाए वहीं निर्ममता से हत्या कर दी।

इस हमले के बाद तो सुरेन्द्र साय की गतिविधियाँ और भी तेज हो गई। इससे अंग्रेज बाकियों के बजाय सिर्फ इनके पीछे लग गए। उन्होंने सुरेन्द्र साय को पकड़ने के लिए कुछ जासूस भी लगा दिए। जैसा की बाकी क्रान्ति वीरों के साथ हुआ है, ठीक वैसा ही यहां भी हुआ। कुछ देशद्रोहियों की सूचना पर वर्ष १८४० में सुरेन्द्र साय, उदन्त साय तथा बलराम सिंह भी अंग्रेजों की गिरफ्त में आ गये। तीनों को आजन्म कारावास का दण्ड देकर हजारीबाग जेल में डाल दिया गया।

मगर इनके साथी शान्त नहीं बैठे। बात ३० जुलाई, १८५७ की है, सैकड़ों की तादात में सुरेन्द्र साय के साथियों ने हजारीबाग जेल पर धावा बोल दिया। सुरेन्द्र साय और उनके ३२ साथियों सहित छुड़ा कर ले गए। यह उस समय की, या यूं बोलें कि इतिहास की एक बहुत बड़ी उपलब्धि थी।

अब सुरेन्द्र साय और अंग्रेज खुलकर सामने आ गए। हुआ यूं कि सम्बलपुर पहुँचकर सुरेन्द्र साय अपने राज्य को अंग्रेजों से मुक्त कराने के लिए सशस्त्र संग्राम शुरू कर दिया। अंग्रेज सेना और सुरेन्द्र साय के सैनिकों में परस्पर झड़प होने लगी। कभी एक का पलड़ा भारी रहता, तो कभी दूसरे का। सुरेन्द्र साय और उनके साथियों ने अंग्रेजों को कभी चैन की नींद नहीं सोने दिया।

अंत में…

२३ जनवरी, १८६४ की बात है, अपने जन्मदिन के अवसर पर सुरेन्द्र साय अपने परिवार से मिलने के लिए निवास पर आए हुए थे, इस बीच किसी भेदिया के कहने पर अंग्रेज पुलिस ने उन्हें चारों तरफ से घेर लिया। खूब गोलियां चली, मगर अंत में वे पकड़ लिए गए। रात में ही उन्हें सपरिवार रायपुर ले जाया गया और फिर अगले दिन नागपुर की असीरगढ़ जेल में बन्द कर दिया गया। जेल में शारीरिक और मानसिक उत्पीड़न के बाद भी सुरेन्द्र ने विदेशी शासन के आगे झुकना स्वीकार नहीं किया। अपने जीवन के ३७ साल जेल में बिताने वाले उस वीर ने २८ फरवरी, १८८४ को असीरगढ़ किले की जेल में ही अन्तिम साँस ली।

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