March 28, 2024

नाना एक मराठा राजनेता थे, जो पानीपत के तृतीय युद्ध के समय पेशवा की सेवा में नियुक्त थे। वह अपनी चतुराई और बुद्धिमत्ता के लिये इतने प्रसिद्ध थे कि यूरोपीयों द्वारा उन्हें मराठा मैकियावेली यानी इतालवी कूटनीतिज्ञ निकोलो मैकियावेली कहा जाता था। राज्य में अनगिनत विरोधियों के होते हुए भी नाना अपनी चतुराई से समस्त विरोधों के बावजूद अपनी सत्ता बनाये रखने में सफल हुए। इतना ही नहीं उन्होंने अंग्रेज़ों के विरुद्ध प्रथम मराठा युद्ध का भी संचालन किया, जो सालबाई की सन्धि पर आकर समाप्त हुआ। नाना ने रघुनाथराव (राघोवा) की स्वयं पेशवा बनने की सारी कोशिशें नाकाम कर दी थीं। नाना ने मराठा साम्राज्य की शक्ति को एक छत्र के नीचे एकत्र करने की सफल चेष्टा की। पेशवा शासन के दौरान नाना फड़नवीस मराठा साम्राज्य के प्रभावशाली मंत्री व कूटनीतिज्ञ। अगर हम नाना को यूरोपियन ऐनक हटाकर देखें तो नाना मैकियावेली से कहीं बहुत आगे कौटिल्य के समातुल्य नजर आएंगे। अब विस्तार से…

परिचय…

नाना फडणवीस का जन्म १२ फरवरी, १७४२ को महाराष्ट्र के वर्तमान सतारा में हुआ था। उनका वास्तविक नाम बालाजी जनार्दन भानु जो कालांतर में अत्यंत चतुर और प्रभावशाली मराठा मंत्री हुए।

बात पानीपत के तृतीय युद्ध के बाद की है, यानी वर्ष १७७३ ई. में नारायणराव पेशवा की हत्या करा कर उसके चाचा राघोबा ने जब स्वयं गद्दी हथियाने की कोशिश की तो नाना ने उसका भरपूर विरोध किया। जिसके फलस्वरूप नारायणराव के मरणोपरान्त उनके पुत्र माधवराव नारायण को वर्ष १७७४ ई. में पेशवा की गद्दी पर बैठाकर राघोवा की चाल को विफल कर दिया। नाना, अल्पवयस्क पेशवा के मुख्यमंत्री बने और वर्ष १७७४ से वर्ष १८०० ई. तक मृत्युपर्यन्त मराठा राज्य का संचालन करते रहे। किंतु यह इतना आसान नहीं था, क्योंकि राघोवा तथा उसके अन्य सहयोगी मराठा सरदारों के साथ महादजी शिन्दे उसके घुर विरोधी थे।

नाना की चतुराई…

नाना अपनी चतुराई से समस्त विरोधों के बावजूद अपनी सत्ता बनाये रखने में सफल रहे। वर्ष १७७५ से १७८३ तक उन्होंने अंग्रेज़ों के विरुद्ध प्रथम मराठा युद्ध का संचालन किया जो सालबाई की सन्धि पर आकर समाप्त हुआ। इस संधि के अनुसार राघोबा की शक्ति को कम कर पेंशन तय की गई और मराठों को साष्टी के अतिरिक्त अन्य किसी भूभाग से हाथ नहीं धोना पड़ा, जो नाना की चातुर्य का ही कमाल था। वर्ष १७८४ में नाना ने मैसूर के शासक टीपू सुल्तान से लोहा लिया और कुछ ऐसे इलाके पुन: प्राप्त कर लिये, जिन्हें टीपू ने कभी बलपूर्वक अपने अधिकार में कर लिया था। वर्ष १७८९ में टीपू सुल्तान के विरुद्ध उसने अंग्रेज़ों और निज़ाम का साथ दिया तथा तृतीय मैसूर युद्ध में भी भाग लिया। जिसके फलस्वरूप मराठों को टीपू के राज्य का भी एक भूभाग प्राप्त हुआ। जिससे अंग्रेजो द्वारा सन्धि की आंशिक हानि का बहुत ही बड़ा लाभदायक प्रतिफल था।

वर्ष १७९४ में महादजी शिन्दे की मृत्यु हो जाने के बाद नाना का एक प्रबल प्रतिद्वन्द्वी उठ गया और उसके बाद नाना ने निर्विरोध मराठा राजनीति का संचालन किया। वर्ष १७९५ में उन्होंने मराठा संघ की सम्मिलित सेनाओं का निज़ाम के विरुद्ध संचालन किया और खर्दा के युद्ध में निज़ाम की पराजय हुई। जिसके फलस्वरूप निज़ाम को अपने राज्य के कई महत्त्वपूर्ण भूभाग मराठों को देने पड़े।

शक्ति का विभाजन…

वर्ष १७९६ में नाना के कठोर नियंत्रण से तंग आकर माधवराव नारायण पेशवा ने आत्महत्या कर ली। उपरान्त राघोवा का पुत्र बाजीराव द्वितीय पेशवा बना, जो प्रारम्भ से ही नाना का प्रबल विरोधी था। इस प्रकार पेशवा और उसके मुख्यमंत्री में प्रतिद्वन्द्विता चल पड़ी। दोनों में से किसी में भी सैनिक क्षमता नहीं थी, किन्तु दोनों ही राजनीति के चतुर एवं धूर्त खिलाड़ी थे। दोनों के परस्पर षड़यंत्र से मराठों का दो विरोधी शिविरों में विभाजन हो गया, जिससे पेशवा की स्थिति और भी कमज़ोर पड़ गई। इसके बावजूद नाना आजीवन मराठा संघ को एक सूत्र में आबद्ध रखने में समर्थ रहे।

अंत में…

१३ मार्च, १८०० को महाराष्ट्र के वर्तमान पुणे में नाना की मृत्यु हो गई और इसके साथ ही मराठों की समस्त क्षमता, चतुरता और सूझबूझ का भी अंत हो गया।

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