April 20, 2024

१८ अगस्त, १७३४ को जन्में रघुनाथराव उर्फ राघोबा पेशवा बाजीराव प्रथम के द्वितीय पुत्र थे, वे एक कुशल सेना नायक थे। वे अपने बड़े भाई बालाजी बाजीराव के पेशवाई के समय में तथा होल्कर के सहयोग से उत्तरी भारत में बृहत सैनिक अभियान चलाया था। रघुनाथराव अपने बड़े भाई बालाजी बाजीराव की मृत्यु के बाद माधवराव को पेशवा बनाने के ख़िलाफ़ था, वह स्वयं को पेशवा के पद पर देखना चाहता था। अतः माधवराव प्रथम की मृत्यु के बाद उसने दसवें पेशवा नारायणराव की हत्या करवा कर पेशवा पद पर आसिन हो गया। जहां वह वर्ष १७७३ से वर्ष १७७४ तक रहा।

अब्दाली से सामना…

वर्ष १७५८ में उसने अहमदशाह अब्दाली के पुत्र तैमूरशाह को हरा कर वापस भेज दिया। इस तरह उसने मराठों (हिन्दुओं) की सत्ता अटक तक संस्थापित कर दी। किन्तु राजनीतिक तथा आर्थिक दृष्टियों से उक्त उपलब्धियाँ लाभदायक सिद्ध नहीं हुईं। तैमूरशाह को पंजाब से खदेड़ने के कारण उसके पिता अहमदशाह अब्दाली ने वर्ष १७५९ में भारत पर एक बार फिर से आक्रमण करके मराठों की शक्ति का उन्मूलन कर दिया। इसके उपरान्त वर्ष १७६१ मे हुए पानीपत के तृतीय युद्ध में मराठों की गहरी पराजय हुई। इस युद्ध में भीषण नर संहार हुआ, जिसमें किसी तरह रघुनावराव बच निकला।

लालच…

बड़े भाई बालाजी बाजीराव की मृत्यु के बाद वह पेशवा बनना चाहता था, परंतु उपरान्त पेशवा के पुत्र और अपने भतीजे माधवराव के पेशवा बनने पर वह बेहद क्षुब्ध हो गया। उसकी देशभक्ति ईमानदारी जाती रही, उसने नए पेशवा को परेशान करना शुरू कर दिया किन्तु नवयुवक पेशवा माधवराव योग्य एवं चतुर निकला। उसने रघुनावराव की समस्त चालों को विफल कर दिया। परंतु वर्ष १७७२ में कम उम्र में ही माधवराव प्रथम की अचानक मृत्यु हो जाने के कारण जब उसका छोटा भाई नारायणराव पेशवा हुआ तो रघुनाथराव अपनी महत्त्वाकांक्षा को अंकुश में नहीं रख सका। उसने वर्ष १७७३ में षडयंत्र करके नवयुवक पेशवा को अपनी आँखों के सामने ही मरवा डाला। जिस समय नारायणराव की मृत्यु हुई थी उसका कोई भी पुत्र नहीं था, परंतु उनकी पत्नी गर्भवती थी। अत: उस समय रघुनाथराव पेशवा पद का अकेला दावेदार बचा था अतः उसने स्वयं को वर्ष १७७३ में स्वयं को पेशवा घोषित कर दिया।

विरोध…

किन्तु नाना फड़नवीस के नेतृत्व में मराठों के एक शक्तिशाली दल ने पूना में उसके पदासीन होने का सबल विरोध किया। इस दल को नारायणराव के मरणोपरान्त वर्ष १७७४ में उनका एक पुत्र उत्पन्न होने से और भी अधिक सहारा मिल गया। रघुनाथराव के विरोधियों ने अविलम्ब नवजात शिशु माधवराव नारायण को पेशवा नियुक्त कर दिया। उन्होंने एक संरक्षक समिति बना ली तथा बालक पेशवा के नाम पर समस्त मराठा राज्य का संचालन सम्भाल लिया। इस प्रकार रघुनाथराव अकेला पड़ गया और उसे महाराष्ट्र से निकाल दिया गया।

अंग्रेज़ों की शरण…

अपनी महत्त्वाकांक्षाओं पर पानी फिरता देख, रघुनाथराव की समस्त देशभक्ति कुण्ठित हो गई और उसने बम्बई जाकर अंग्रेज़ों से सहायता की याचना की तथा वर्ष १७७५ में उनसे सन्धि कर ली, जो कि सूरत की सन्धि के नाम से प्रसिद्ध है। सन्धि के अंतर्गत अंग्रेज़ों ने रघुनाथराव की सहायता के लिए २५०० सैनिक देने का वचन दिया, परन्तु इनका समस्त व्यय भार रघुनाथराव को ही वहन करना था। इसके बाद में रघुनाथराव ने साष्टी और बसई तथा भड़ौच और सूरत ज़िलों की आय का कुछ भाग अंग्रेज़ों को देना स्वीकार कर लिया। साथ ही उसने ईस्ट इण्डिया कम्पनी के शत्रुओं से किसी प्रकार की सन्धि न करने तथा पूना सरकार से सन्धि या समझौता करते समय अंग्रेज़ों को भी भागी बनाने का वचन दिया।

मराठा युद्ध…

सन्धि के अनुसार बम्बई के अंग्रेज़ों ने रघुनाथराव का पक्ष लिया और प्रथम मराठा युद्ध आरम्भ हो गया। यह युद्ध वर्ष १७७५ से शुरू होकर वर्ष १७८३ तक चलता रहा और इसकी समाप्ति सालबाई की सन्धि से हुई। अपनी देशद्रोहिता एवं घृणित स्वार्थपरता के परिणामस्वरूप रघुनाथराव को केवल पेंशन ही प्राप्त हुई, जिसका उपभोग वह अपनी मृत्यु यानी ११ दिसम्बर, १७८३ तक करता रहा।

माधवराव नारायण 

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