April 19, 2024

 

रात की अलसाई मंजरी
भोर के एक चुम्बन से,
सकुचाई लालिमा लिए
रवि के लाली से
और भी लाल हो गई।

अब तो ना उसे
किसी भंवरे का डर है
और ना ही माली की
रह गई कोई कदर है

आज फिर तैयार है
बिछ जाने को
बिखर जाने को
उसे संवारने को

वह जैसे जानती है
अभ्र मींच कर दृग
बाट जोहता होगा
वसुधा को सजाने को
उससे पुनः मिलाने को

विद्यावाचस्पति अश्विनी राय ‘अरुण’

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