March 29, 2024

यात्रा करना मनुष्य की नैसर्गिक प्रवृत्ति है, जो उसके जरूरत, उसकी आवश्यकताओं से शुरू हुई मानी जा सकती है। अगर मानव इतिहास पर एक नजर डाली जाए तो, हम यह देखेंगे कि मनुष्य के सही मायनों में ‘मनुष्य’ होने में उसकी यायावरी का महत्वपूर्ण योगदान है। अपने जीवन काल में हर एक व्यक्ति कभी-न-कभी यात्रा करता ही है, लेकिन उनमें कुछ लोग ऐसे भी होते हैं, जो सृजनशील होते हैं। वे अपनी यात्रा के अनुभवों को लोगों तक पहुंचाना चाहते हैं, इसलिए वे यात्रा-साहित्य की रचना करते हैं। मगर उनका उद्देश्य यहां खत्म नहीं होता। लेखक अपनी यात्रा अनुभवों को लोगों के साथ बांटने के साथ ही, यह अपेक्षा करता है कि मेरी रचना से प्रेरित होकर लोग उन स्थानों की यात्रा के लिए उत्सुक हों। इसके लिए रचनाकार अपनी यात्रा·रचाना को इस तरह से लिखता है कि रचना में उस स्थान की प्राकृतिक विशिष्टता, सामाजिक संरचना, सामाज के विविध वर्गों के सह-संबंध, वहाँ की भाषा, संस्कृति और सोच की जानकारी रुचिकर रूप में उपलब्ध हो पाए।

यात्रा, पर्यटन और तीर्थाटन…

हालाँकि यात्रा, पर्यटन और तीर्थाटन तीन शब्द हैं जो हमेशा एक साथ उपयोग किए जाते हैं, लेकिन इनमें से प्रत्येक शब्द के विशिष्ट अर्थ हैं। यात्रा का तात्पर्य लंबी यात्रा पर जाने की गतिविधि से है। पर्यटन का तात्पर्य यात्रा से भी है, लेकिन पर्यटन का एक विशिष्ट उद्देश्य होता है। यह आनंद के लिए एक जगह की यात्रा को संदर्भित करता है। यह यात्रा और पर्यटन के बीच मुख्य अंतर है।

यात्रा का अर्थ है, मात्र यात्रा करने से है। यह सिर्फ एक व्यक्ति के एक स्थान से दूसरे स्थान तक की गति को संदर्भित करता है। यात्रा आमतौर पर एक लंबी यात्रा को संदर्भित करती है। अगर हम उदाहरण से समझें तो, हम सब्जियां खरीदने के लिए बाजार जा रहे हैं, तो हम इसे यात्रा नहीं कह सकते हैं। लेकिन, यदि हम दो दिन के लिए कोलकाता किसी साहित्यिक सम्मेलन में जा रहे हैं, तो हम कह सकते हैं कि हम यात्रा कर रहे हैं। उसी प्रकार पर्यटन में भी हम यात्रा ही कर रहे हैं, मगर यह यात्रा आनंद के लिए है। सभी पर्यटक यात्री हैं, लेकिन सभी यात्री पर्यटक नहीं हैं। पर्यटन का तात्पर्य अवकाश के लिए किसी स्थान की यात्रा करने की गतिविधि से है। तो, एक पर्यटक कई दिनों तक एक स्थान पर रह सकता है और उस स्थान के आकर्षण का आनंद ले सकता है या कुछ दिन अवकाश में बिता सकता है। जबकि तीर्थ धार्मिक और आध्यात्मिक महत्त्व वाले स्थानों को कहते हैं, जहाँ जाने के लिए लोग लम्बी और अकसर कष्टदायक यात्राएँ करते हैं। इन यात्राओं को तीर्थयात्रा कहते हैं। वैसे कई विद्वानों का यह भी कहना है कि नदियों के तीर के किनारे के स्थान को तीर्थ कहते हैं।

तीर्थ यात्रा…

दुनिया के लगभग सभी देशों और धर्मों के लोगों के अपने देवी-देवता और उनसे जुड़े स्थान तो हैं ही और ना जाने कितने दिनों, वर्षों अथवा सदियों से उन विशेष तीर्थ स्थलों पर लोग जाते भी रहे हैं। यह स्थल, यात्रा और पर्यटन से कहीं अलग उनकी अपनी श्रद्धा, आस्था और विश्वास जैसे अभिन्न आंतरिक भाव से जुड़े हुए होते हैं। हर एक अनुयायी की इच्छा होती है कि वह अपने पूरे जीवन काल में कम से कम एक बार अपने उस पवित्र स्थल के दर्शन कर सके। यह यात्रा सांसारिक सुख और अंतर्मन के कलिष्ट विकारों यानी अपने अहंकार को पूरी तरह से छोड़कर की जाती है। तीर्थ यात्राओं का सीधा संबंध मन, विचार और आत्मा की शुद्धि से होता है। ये अपने आपमें निरंतर सकारात्मक ऊर्जा स्पंदित करने वाले स्थान होते हैं। इन यात्राओं का स्वरूप हमेशा आध्यात्मिक होता है। अगर हम अपने देश और धर्म की बात करें तो, भारत के हर एक अंचल की अपनी विशेष वाणी, पानी, कहानी है जो वहां स्थित तीर्थस्थलों को विशिष्टता प्रदान करती है। पुराने समय से ही हमारे यहां तीन प्रकार के तीर्थों की संकल्पना रही है- नित्य तीर्थ, भगवतीय तीर्थ और संत तीर्थ। सभी धर्मों के तीर्थों को अमूमन इस वर्गीकरण के अंतर्गत देखा जा सकता है।

(क) नित्य तीर्थ…

नित्य तीर्थ वह पवित्र स्थल होते हैं जो आदि काल से विद्यमान हैं और जो हमेशा मौजूद भी रहेंगे, ऐसा माना जाता है। सृष्टि से पूर्व और सृजन के पश्चात भी जिनका अस्तित्व बना रहता है। इसे इस तरह समझा जा सकता है कि वे तीर्थ जो सृष्टि के प्रत्येक चक्र के दौरान समान अवस्था में रहते हैं, उन्हें नित्य तीर्थ कहा जाता है। जैसे; काशी, कैलाश और मानसरोवर। ये तीन नित्य तीर्थ हैं, जो देवाधी देव महादेव से जुड़े हुए हैं। इन तीनों के अलावा, गंगा, नर्मदा, गोदावरी तथा कावेरी नदी को भी नित्य तीर्थ भी माना जाता है, क्योंकि इन पवित्र नदियों में स्नान को हमेशा पापों से मुक्ति और मोक्ष प्राप्त करने का साधन माना गया है।

(ख) भगवदीय तीर्थ…

भगवदीय तीर्थ वह हैं, जहां भगवान का अवतार हुआ हो अथवा जहां भगवान ने किसी भी प्रकार की लीला की हो, वे सभी भगवदीय तीर्थ हैं। जैसे; श्रीराम और श्री कृष्ण की यात्राओं से संबंधित इस ग्रंथ में वर्णित सभी स्थल भगवदीय तीर्थ की श्रेणी में आते हैं। जिन स्थलों पर कभी श्रीराम एवं श्री कृष्ण के चरण पड़े वह भूमि दिव्य हो गई अतः उस स्थान पर चरणारविंद का चिन्मय प्रभाव आ गया जिसे काल भी प्रभावित नहीं कर सकता।

(ग) संत तीर्थ…

संत तीर्थ जो जीवन मुक्त तन्मय संत हैं उनकी देह भी दिव्य गुणों से ओत-प्रोत होती है। उनकी दिव्य देह से गुणों के परमाणु सदा बाहर निकलते रहते हैं और संपर्क में आने वाली वस्तुओं को भी प्रभावित करते हैं इसलिए संत के संपर्क में आई भूमि भी तीर्थ बन जाती है। जैसे; संत की जन्म भूमि, संत की साधना भूमि तथा संत की देह त्याग भूमि।

यात्रा साहित्य…

हिंदी साहित्य में अन्य गद्य विधाओं की भाँति ही यात्रा-साहित्य को भी तीन भागों में बांटा जाता है। १. आरंभिक युग, २. स्वतंत्रता-पूर्व युग और ३.
स्वातंत्रयोत्तर युग।

१. आरंभिक युग…

साहित्यिक मनीषियों व विद्वानों के अनुसार यात्रा-साहित्य का आरंभिक युग भी हिंदी साहित्य के अन्य गद्य विधाओं की भाँति ही भारतेंदु-युग से ही माना जाता है। इस युग में कुछ और बड़े नाम हैं, जैसे; बाबू शिवप्रसाद गुप्त, स्वामी सत्यदेव परिव्राजक, कन्हैयालाल मिश्र, रामनारायण मिश्र आदि।

२. स्वतंत्रता-पूर्व युग…

भारतेंदु-युग के पश्चात यात्रा-साहित्य के विकास में राहुल सांकृत्यायान का योगदान अप्रतिम है। इसलिए यात्रा-साहित्य में इस काल को राहुल सांकृत्यायान का काल भी कहा जा सकता है। गुणवत्ता और परिमाण की दृष्टि से इनके यात्रा-वृतांतों की तुलना में कोई दूसरा लेखक कहीं नहीं ठहरता है। इनके अधिकांश यात्रा-साहित्य वर्ष १९२६ से वर्ष १९५६ के मध्य लिखा गया है।

३. स्वातंत्रयोत्तर युग…

राहुल सांकृत्यायन के बाद यात्रा-साहित्य में अज्ञेय का नाम बड़े सम्मान से लिया जाता है। इस काल में रामवृक्ष बेनीपुरी, भगवतशरण उपाध्याय, मोहन राकेश तथा निर्मल वर्मा ने भी यात्रा साहित्य को अपनी रचना से समृद्ध किया है।

मगर इन तीनो कालों के पूर्व भी यात्रा साहित्य पर बृहद रूप में कार्य हुए हैं। पौराणिक काल को अगर हम लें तो, देखते हैं कि रामायण और महाभारत तथा अन्य धार्मिक ग्रंथों में यात्रा पर विस्तार से वर्णन मिलते हैं। श्रीराम का वन गमन, हनुमान, शुग्रीव आदि द्वारा सीता की खोज जैसे प्रसंग यात्रा पर ही आधारित हैं। उसी तरह महाभारत में भी यात्रा संबंधित उदाहरण भरे पड़े हैं। जैसे; वन गमन और संन्यास के ढेरों उदाहरण आपको पढ़ने को मिल जाएंगे। मगर उस काल के ज्यादतर यात्रा तीर्थ पर ही आधारित हुआ करते थे, इसलिए इन यात्राओं को हम तीर्थाटन कह सकते हैं।

तीर्थाटन…

उदाहरण के लिए हम महाभारत के वनपर्व पर चर्चा करते हैं, क्योंकि इसमें तीर्थाटन का विस्तृत वर्णन किया गया है।

गंगाद्वार (अब हरिद्वार) में निवास के दौरान भीष्म पितामह ने ऋषि पुलस्त्य से कहा कि मुझे तीर्थयात्रा और उनके महात्म्य के विषय में कुछ संशय है, आप उसका समाधान कीजिए। इस पर महर्षि पुलस्त्य ने कहा कि जिसके हांथ, पैर और मन अपने काबू में हों तथा जो विद्या, तप और कीर्ति से संपन्न हो, वही तीर्थसेवन का फल पाता है। जो व्यक्ति लोभ और अहंकार से रहित हो, उसे ही तीर्थ्याता का फल मिलता है। जो व्यक्ति संतुलित जीवन जीता हो, अर्थात अल्पाहारी और जितेन्द्रिय हो, जिसमें क्रोध नहीं और जो सत्य के प्रति आग्रहशील हो, उसे ही तीर्थयात्रा का फल मिलता है। जो व्यक्ति सभी प्राणियों के प्रति आत्मभाव रखता हो, वही तीर्थयात्रा का फल पाने का पात्र होता है। जो मनुष्य तीर्थस्थल में तीन रात तक उपवास और दान-पुण्य नहीं करता, उसे तीर्थयात्रा का फल नहीं मिलता। महर्षि पुलस्त्य ने आगे कहा कि तीर्थयात्रा बड़ा पवित्र सत्कर्म है, जो यज्ञों से भी बढ़कर है। इसके बाद पुलस्त्यजी ने तीर्थयात्रा का क्रम बताया।

महाभाग हम अगर आज के परिवेश में अथवा अन्य किसी विद्वान के क्रम को देखेंगे तो हो सकता है कि यह क्रम सही ना दिखता हो, हो सकता है कि यह उनके अपने विचार हों अथवा यह भी हो सकता है कि उस युग में तीर्थाटन का यही क्रम रहा हो, क्योंकि महाभारत काल के बाद अनेकों तीर्थ स्थलों की स्थापना हुई हैं, जैसे; मथुरा और द्वारका। इसलिए हम मात्र उदाहरण के लिए इस महाभारत के वन पर्व के संदर्भ को यहां प्रस्तुत कर रहे हैं। हो सकता है कि कितने ही विद्वानों को मेरे इस सन्दर्भ पर आपत्ति हो सकती है, अतः उन्हें भी हम उनकी संतुष्टि के लिए बताते चलें कि महर्षि पुलस्त्य ने इस क्रम को एक बार पितामह भीष्म से और दूसरी बार धर्मराज युधिष्ठिर को बताया है, अब आगे…

तीर्थ यात्रा का क्रम…

महर्षि पुलस्त्य कहते हैं कि एकबार स्वयं धर्म ने तपस्या करके, धरती पर अपने नाम से विख्यात पुण्य तीर्थों की स्थापना की थी। वहाँ जाकर मनुष्य धर्मशील एवं एकाग्रचित्त होता है और अपने कुल की सातवीं पीढ़ी तक के लोगों को पवित्र कर देता है। पुलस्त्य जी ने तीर्थाटन का आरंभ पावनतीर्थ (कुरुक्षेत्र) से करने को कहा है और साथ ही हर एक तीर्थ स्थल में स्थित देवी देवताओं, पावन स्थल का परिचय, उसका इतिहास, उसकी भौगोलिक स्थिति और उसके पुण्य फल की जानकारी भी दी है। पावनतीर्थ से तीर्थयात्री को सौगंधिक वन की ओर जाना चहिए, जिसके आगे सरिताओं में श्रेष्ठ और नदियों में उत्तम नदी परम पुण्यमयी सरस्वती देवी का उदग्‍म स्थल है, उनके पावन जंल में स्नान कर, वहीं ईशनाध्युषित नामक परम दुर्लभ तीर्थ के दर्शन करते हुए सुगन्धा, शतकुम्भा, पंचयज्ञा, त्रिशूलखात तीर्थ जाना चाहिए। वहाँ से शाकम्भरी देवी के दर्शन के लिए यात्रा करनी चाहिए। तदनन्तर सुवर्णतीर्थ होते हुए धूमावती तीर्थ को और फिर दक्षिणार्थ भाग में रथावर्त नामक तीर्थ को जाए तथा तीर्थ की परिक्रमा करके धारा की यात्रा करे। वहाँ से महापर्वत हिमालय को प्रणाम कर गंगा द्वार (हरिद्वार) की यात्रा कर, वहां के कोटितीर्थ में स्नान करे। फिर सप्तगंग, त्रिकगंग और शक्रावर्ततीर्थ जाए। कनखल में स्नान करके तीर्थसेवी मनुष्य नागराज महात्मा कपित का कपितवद्ध तीर्थ में जाय। तत्पश्चात् शान्तनु के उत्तम तीर्थ ललितक में जाए।

तीर्थयात्री का अगला पड़ाव प्रयाग है, जहां वह गंगा-यमुना संगम में स्नान कर सुगन्धातीर्थ की यात्रा करे। वहां से रुद्रावर्ततीर्थ और फिर गंगा और सरस्वती के संगम में स्नान कर भगवान भद्रकर्णेश्वर के दर्शन को जाए। तत्पश्चात् तीर्थसेवी कुब्जाम्रक तीर्थ में जाय। उसके बाद अरुन्धतीवट के समीप जाय और समुद्रकतीर्थ में स्नान कर ब्रह्मवर्ततीर्थ को जाए। फिर यमुनाप्रभव नामक तीर्थ में जाकर यमुना जल में स्नान करे।

तीर्थयात्री उसके बाद दर्वी संक्रमण नामक तीर्थ के यात्रा पर निकले। सिंधु के उद्गमस्थान में स्थित दुर्गम वेदीतीर्थ में जाए। वहां ऋषिकुल्या एवं वासिष्ठतीर्थ में जाकर स्नान आदि कर आगे भृगुतुंग में जाए। तत्पश्चात वीरप्रभोक्षतीर्थ, कृत्तिका और मघा के तीर्थ का फल प्राप्त करे। वहीं प्रातः-संध्या के समय परम उत्तम विद्यातीर्थ में जाकर स्नान करे। वहां से महाश्रमतीर्थ तत्पश्चात एक मास तक महालयतीर्थ में निवास करे। तत्पश्चात् ब्रह्माजी के द्वारा सेवित वेतसिकातीर्थ जाए वहां से ब्राह्मणीतीर्थ तदनन्तर सिद्धसेवित पुण्यमय नैमिष (नैमिषारण्य) तीर्थ में जाय और वहां भी एक मास तक निवास करे।

महर्षि पुलस्त्य ने नैमिष के बाद गंगोदतीर्थ होते हुए सरस्वती तीर्थ जाने की विधि बताई है। तदनन्तर बाहुदा-तीर्थ में जाय। वहाँ से क्षीरवती नामक पुण्यतीर्थ का लाभ लेते हुए विमलाशोक नामक उत्तम तीर्थ को जाए। वहाँ से सरयू के उत्तम तीर्थ गोप्रतार में जाय। तत्पश्चात गोमती के रामतीर्थ में स्नान कर वहीं शतसाहस्त्रतीर्थ का लाभ प्राप्त करे। वहां से परम उत्तम भर्तृस्थान को जाय। फिर कोटितीर्थ में स्नान कर कार्तिकेयजी का पूजन करे। तदनन्तर वाराणसी (काशी) तीर्थ में जाकर भगवान शंकर की पूजा अर्चना करे और कपिलाह्रद में गोता लगाये; वहां से अविमुक्त तीर्थ में जाकर तीर्थसेवी मनुष्य महादेवजी का दर्शन करे। गोमती और गंगा के लोकविख्यात संगम के समीप मार्कण्डेयजी के दुर्लभ तीर्थ को जाए। वहाँ तीनों लोकों में विख्यात अक्षयवट के दर्शन करे। तदनन्तर धर्मारण्य से सुशोभित ब्रह्मसरोवर की यात्रा करे। वहाँ से लोकविख्यात धेनुतीर्थ को जाए, जहां एक पर्वत पर चरने वाली बछड़े सहित कपिला गौ का विशाल चरणचिह्र आज भी अंकित है। तदनन्तर महादेवजी के गृध्रवट नामक स्थान की यात्रा करे और भगवान शंकर के समीप जाकर भस्म से स्नान करे। उसके बाद संगीत की ध्वनि से गूंजते हुए उदयगिरीपर जाए। वहीं सावित्री का चरणचिह्र आज भी दिखायी देता है। वहीं विख्यात योनिद्वारतीर्थ भी है। वहां से तीर्थव्रती कृष्ण और शुंक दोनों पक्षों में गया तीर्थ में निवास करे। तदनन्तर तीर्थ सेवी फल्गुतीर्थ के दर्शन कर धर्मप्रस्थ की यात्रा करे। वहाँ कुएं का जल लेकर उससे स्नान कर वहीं भावितात्मा महर्षि मतंग का आश्रम को जाए। तदनन्तर परम उत्तम ब्रह्मस्थान होते हुए तीर्थसेवी मनुष्य राजगृह को जाए। उस तीर्थ में पवित्र हो कर पुरुष यक्षिणीदेवी का नैवेद्य भक्षण करे। तदनन्तर मणिनाग तीर्थ होते हुए ब्रह्मार्षि गौतम के प्रिय वन की यात्रा करे और वहाँ अहल्याकुण्ड, त्रिभुवनविख्यात कूप और फिर राजर्षि जन कूप के जल से स्नान करने के पश्चात विनशन तीर्थ को जाए। उसके बाद गण्डकी नदी के तीर्थ पश्चात् त्रिलोकी में विख्यात विशल्या नदी के तट पर जाकर स्नान करे।

आगे वंगदेशीय तपोवन होते हुए तीर्थयात्री कम्पना नदी तक जाए। तत्पश्चात् माहेश्वरी धारा की यात्रा कर, देवपुष्करिणी तीर्थ का लाभ प्राप्त करते हुए, मपद तीर्थ को जाए। मपद तीर्थ से नारायण स्थान को जाए, जहां एक कूप है। उस कूप में सदा चारों समुद्र निवास करते हैं। वहीं जातिस्मर तीर्थ है। उसके बाद माहेश्वरपुर में जाकर भगवान शंकर की पूजा कर वामनतीर्थ की यात्रा करते हुए कुशिका श्रम की यात्रा करे, जहां पपनाशिनी कौशिकी (कोशी) नदी है। वहां से चम्पकारण्य (चम्पारन) की यात्रा कर परम दुलर्भ ज्योष्ठिल तीर्थ को जाए, जहां पार्वतीदेवी के साथ महातेजस्वी भगवान विश्वेश्वर निवास करते हैं, उनका दर्शन कर तीर्थयात्री कन्यासंवेद्य नामक तीर्थ को जाए। तदनन्तर निंश्चीरा नदी की यात्रा करे, जहां तीनों लोकों में विख्यात वसिष्ठ-आश्रम है।

तदनन्तर ब्रह्मर्षियों से सेवित देवकूट तीर्थ में जाकर स्नान करे। फिर वीराश्रम निवासी कुमार कार्तिकेय के दर्शन करे। वहां से गिरिराज हिमालय के निकट पितामह सरोवर में जाकर स्नान करे। पितामह सरोवर से एक धारा प्रवाहित होती है, जो तीनों में कुमारधारा के नाम से विख्यात है। उसमें स्नान करे। तदनन्तर तीर्थयात्री महादेवी गौरी के शिखर पर जाय। फिर ताम्रारूण तीर्थ की यात्रा करते हुए नन्दिनीतीर्थ को जाए, जहां एक कूप है, वहाँ जाकर स्नान करे। तत्पश्चात कौशिकी-अरुणा-संगम और कालिका संगम में स्नान कर, उर्वशीतीर्थ, सोमाश्रम और कुम्भकर्णाश्रम की यात्रा करे। उसके बाद प्राड्नदी तीर्थ, ऋषभद्वीप और कौंचनिषूदनतीर्थ में जाकर सरस्वती में स्नान करे। फिर औद्दालकतीर्थ में स्नान करने के बाद परम पवित्र ब्रह्मर्षिसेवित धर्मतीर्थ में जाकर स्नान करे।

अपनी बात…

अगर जीवन को समीप से देखता हो तो उसके लिए सबसे सरल माध्यम यात्रा करना हैै। रचनात्मक लेखन करने वाला हर लेखक अपने साहित्य में किसी न किसी रूप में यात्रा-साहित्य का सृजन अवश्य करता है। हमने उपर्युक्त संक्षिप्त विवरण में देखा कि हिंदी में यात्रा विषयक प्रचुर साहित्य उपलब्ध है। हिंदी गद्य के साथ-साथ इसने भी पर्याप्त विकास किया है। अधिकांश लेखकों ने इस विधा को अपनी अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया है।

विद्यावाचस्पति अश्विनी राय ‘अरुण’
महामंत्री,
अखिल भारतीय साहित्य परिषद, बक्सर (बिहार)
ग्राम: मांगोडेहरी, डाक: खीरी,
जिला: बक्सर (बिहार),
पिनकोड: ८०२१२८

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