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वन्दे मातरम्

परिचय…

वन्दे मातरम् बंकिमचन्द्र चट्टोपाध्याय द्वारा संस्कृत बाँग्ला मिश्रित भाषा में रचित इस गीत का प्रकाशन वर्ष १८८२ में उनके उपन्यास आनन्द मठ में अन्तर्निहित गीत के रूप में हुआ था। इस उपन्यास में यह गीत भवानन्द नाम के संन्यासी द्वारा गाया गया है। इसकी धुन यदुनाथ भट्टाचार्य ने बनायी थी। इस गीत को गाने में ६५ सेकेंड (१ मिनट और ५ सेकेंड) का समय लगता है। वर्ष २००३ में, बीबीसी वर्ल्ड सर्विस द्वारा आयोजित एक अन्तरराष्ट्रीय सर्वेक्षण में, जिसमें उस समय तक के सबसे मशहूर दस गीतों का चयन करने के लिये दुनिया भर से लगभग ७,००० गीतों को चुना गया था और बीबीसी के अनुसार १५५ देशों/द्वीप के लोगों ने इसमें मतदान किया था उसमें वन्दे मातरम् शीर्ष के १० गीतों में दूसरे स्थान पर था।

भारतीय संविधान के पृष्ठ १६७ पर व्यौहार राममनोहर सिंहा द्वारा चित्रित वन्दे–मातरम् (सुजलाम् सुफलाम् मलयजशीतलाम् शस्यश्यामलाम् मातरम्) यदि बाँग्ला भाषा को ध्यान में रखा जाय तो इसका शीर्षक “बन्दे मातरम्” होना चाहिये “वन्दे मातरम्” नहीं। चूँकि हिन्दी व संस्कृत भाषा में ‘वन्दे’ शब्द ही सही है, लेकिन यह गीत मूलरूप में बाँग्ला लिपि में लिखा गया था और चूँकि बाँग्ला लिपि में व अक्षर है ही नहीं अत: बन्दे मातरम् शीर्षक से ही बंकिम चन्द्र चट्टोपाध्याय ने इसे लिखा था। इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए शीर्षक ‘बन्दे मातरम्’ होना चाहिये था। परन्तु संस्कृत में ‘बन्दे मातरम्’ का कोई शब्दार्थ नहीं है तथा “वन्दे मातरम्” उच्चारण करने से “माता की वन्दना करता हूँ” ऐसा अर्थ निकलता है, अतः देवनागरी लिपि में इसे वन्दे मातरम् ही लिखना व पढ़ना समीचीन होगा।

गीत…

वन्दे मातरम्
सुजलां सुफलाम्
मलयजशीतलाम्
शस्यश्यामलाम्
मातरम्।

शुभ्रज्योत्स्नापुलकितयामिनीम्
फुल्लकुसुमितद्रुमदलशोभिनीम्
सुहासिनीं सुमधुर भाषिणीम्
सुखदां वरदां मातरम्॥ १॥

कोटि कोटि-कण्ठ-कल-कल-निनाद-कराले
कोटि-कोटि-भुजैर्धृत-खरकरवाले,
अबला केन मा एत बले।
बहुबलधारिणीं
नमामि तारिणीं
रिपुदलवारिणीं
मातरम्॥ २॥

तुमि विद्या, तुमि धर्म
तुमि हृदि, तुमि मर्म
त्वम् हि प्राणा: शरीरे
बाहुते तुमि मा शक्ति,
हृदये तुमि मा भक्ति,
तोमारई प्रतिमा गडी मन्दिरे-मन्दिरे॥ ३॥

त्वम् हि दुर्गा दशप्रहरणधारिणी
कमला कमलदलविहारिणी
वाणी विद्यादायिनी,
नमामि त्वाम्
नमामि कमलाम्
अमलां अतुलाम्
सुजलां सुफलाम्
मातरम्॥ ४ ॥

वन्दे मातरम्
श्यामलाम् सरलाम्
सुस्मिताम् भूषिताम्
धरणीं भरणीं
मातरम्॥ ५ ॥

आनन्दमठ के हिन्दी, मराठी, तमिल, तेलुगु, कन्नड आदि अनेक भारतीय भाषाओं के अतिरिक्त अंग्रेजी-अनुवाद भी प्रकाशित हुए। डॉ॰ नरेशचन्द्र सेनगुप्त ने सन् १९०६ में Abbey of Bliss के नाम से इसका अंग्रेजी-अनुवाद प्रकाशित किया। अरविन्द घोष ने ‘आनन्दमठ’ में वर्णित गीत ‘वन्दे मातरम्’ का अंग्रेजी गद्य और पद्य में अनुवाद किया। महर्षि अरविन्द द्वारा किए गये अंग्रेजी गद्य-अनुवाद का हिन्दी-अनुवाद इस प्रकार है:

मैं आपके सामने नतमस्तक होता हूँ। ओ माता!
पानी से सींची, फलों से भरी,
दक्षिण की वायु के साथ शान्त,
कटाई की फसलों के साथ गहरी,
माता!

उसकी रातें चाँदनी की गरिमा में प्रफुल्लित हो रही हैं,
उसकी जमीन खिलते फूलों वाले वृक्षों से बहुत सुन्दर ढकी हुई है,
हँसी की मिठास, वाणी की मिठास,
माता! वरदान देने वाली, आनन्द देने वाली।

रचना की पृष्ठभूमि…

वर्ष १८७०-८० के दशक में ब्रिटिश शासकों ने सरकारी समारोहों में ‘गॉड! सेव द क्वीन’ गीत गाया जाना अनिवार्य कर दिया था। अंग्रेजों के इस आदेश से बंकिमचन्द्र चटर्जी को, जो उन दिनों एक सरकारी अधिकारी (डिप्टी कलेक्टर) थे, बहुत ठेस पहुँची और उन्होंने सम्भवत: १८७६ में इसके विकल्प के तौर पर संस्कृत और बाँग्ला के मिश्रण से एक नये गीत की रचना की और उसका शीर्षक दिया – ‘वन्दे मातरम्’। शुरुआत में इसके केवल दो ही पद रचे गये थे जो संस्कृत में थे। इन दोनों पदों में केवल मातृभूमि की वन्दना थी। उन्होंने १८८२ में जब आनन्द मठ नामक बाँग्ला उपन्यास लिखा तब मातृभूमि के प्रेम से ओतप्रोत इस गीत को भी उसमें शामिल कर लिया। यह उपन्यास अंग्रेजी शासन, जमींदारों के शोषण व प्राकृतिक प्रकोप (अकाल) में मर रही जनता को जागृत करने हेतु अचानक उठ खड़े हुए संन्यासी विद्रोह पर आधारित था। इस तथ्यात्मक इतिहास का उल्लेख बंकिम बाबू ने ‘आनन्द मठ’ के तीसरे संस्करण में स्वयं ही कर दिया था। और मजे की बात यह है कि सारे तथ्य भी उन्होंने अंग्रेजी विद्वानों-ग्लेग व हण्टर की पुस्तकों से दिये थे। उपन्यास में यह गीत भवानन्द नाम का एक संन्यासी विद्रोही गाता है। गीत का मुखड़ा विशुद्ध संस्कृत में इस प्रकार है: “वन्दे मातरम् ! सुजलां सुफलां मलयज शीतलाम्, शस्य श्यामलाम् मातरम्।” मुखड़े के बाद वाला पद भी संस्कृत में ही है: “शुभ्र ज्योत्स्नां पुलकित यमिनीम्, फुल्ल कुसुमित द्रुमदल शोभिनीम् ; सुहासिनीं सुमधुर भाषिणीम्, सुखदां वरदां मातरम्।” किन्तु उपन्यास में इस गीत के आगे जो पद लिखे गये थे वे उपन्यास की मूल भाषा अर्थात् बाँग्ला में ही थे। बाद वाले इन सभी पदों में मातृभूमि की दुर्गा के रूप में स्तुति की गई है। यह गीत रविवार, कार्तिक सुदी नवमी, शके १७९७ (७ नवम्बर १८७५) को पूरा हुआ।कहा जाता है कि यह गीत उन्होंने सियालदह से नैहाटी आते वक्त ट्रेन में ही लिखी थी।

आज़ादी में भूमिका…

बंगाल में चले स्वाधीनता-आन्दोलन के दौरान विभिन्न रैलियों में जोश भरने के लिए यह गीत गाया जाने लगा। धीरे-धीरे यह गीत लोगों में अत्यधिक लोकप्रिय हो गया। ब्रिटिश सरकार इसकी लोकप्रियता से भयाक्रान्त हो उठी और उसने इस पर प्रतिबन्ध लगाने पर विचार करना शुरू कर दिया। वर्ष १८९६ में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन में गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने यह गीत गाया। पाँच साल बाद यानी वर्ष १९०१ में कलकत्ता में हुए एक अन्य अधिवेशन में श्री चरणदास ने यह गीत पुनः गाया। वर्ष १९०५ के बनारस अधिवेशन में इस गीत को सरलादेवी चौधरानी ने स्वर दिया।

कांग्रेस-अधिवेशनों के अलावा आजादी के आन्दोलन के दौरान इस गीत के प्रयोग के काफी उदाहरण मौजूद हैं। लाला लाजपत राय ने लाहौर से जिस ‘जर्नल’ का प्रकाशन शुरू किया था उसका नाम वन्दे मातरम् रखा। अंग्रेजों की गोली का शिकार बनकर दम तोड़नेवाली आजादी की दीवानी मातंगिनी हाजरा की जुबान पर आखिरी शब्द “वन्दे मातरम्” ही थे। वर्ष १९०७ में मैडम भीखाजी कामा ने जब जर्मनी के स्टुटगार्ट में तिरंगा फहराया तो उसके मध्य में “वन्दे मातरम्” ही लिखा हुआ था। आर्य प्रिन्टिंग प्रेस, लाहौर तथा भारतीय प्रेस, देहरादून से वर्ष १९२९ में प्रकाशित काकोरी के शहीद पं० राम प्रसाद ‘बिस्मिल’ की प्रतिबन्धित पुस्तक “क्रान्ति गीतांजलि” में पहला गीत “मातृ-वन्दना” वन्दे मातरम् ही था जिसमें उन्होंने केवल इस गीत के दो ही पद दिये थे और उसके बाद इस गीत की प्रशस्ति में वन्दे मातरम् शीर्षक से एक स्वरचित उर्दू गजल दी थी जो उस कालखण्ड के असंख्य अनाम हुतात्माओं की आवाज को अभिव्यक्ति देती है। ब्रिटिश काल में प्रतिबन्धित यह पुस्तक अब सुसम्पादित होकर पुस्तकालयों में उपलब्ध है।

राष्ट्रगीत के रूप में स्वीकृति…

स्वाधीनता संग्राम में इस गीत की निर्णायक भागीदारी के बावजूद जब राष्ट्रगान के चयन की बात आयी तो वन्दे मातरम् के स्थान पर रवीन्द्रनाथ ठाकुर द्वारा लिखे व गाये गये गीत जन गण मन को वरीयता दी गयी। इसकी वजह यही थी कि कुछ मुसलमानों को “वन्दे मातरम्” गाने पर आपत्ति थी, क्योंकि इस गीत में देवी दुर्गा को राष्ट्र के रूप में देखा गया है। इसके अलावा उनका यह भी मानना था कि यह गीत जिस आनन्द मठ उपन्यास से लिया गया है वह मुसलमानों के खिलाफ लिखा गया है। इन आपत्तियों के मद्देनजर वर्ष १९३७ में कांग्रेस ने इस विवाद पर गहरा चिन्तन किया। जवाहरलाल नेहरू की अध्यक्षता में गठित समिति जिसमें मौलाना अबुल कलाम आजाद भी शामिल थे, ने पाया कि इस गीत के शुरूआती दो पद तो मातृभूमि की प्रशंसा में कहे गये हैं, लेकिन बाद के पदों में हिन्दू देवी-देवताओं का जिक्र होने लगता है; इसलिये यह निर्णय लिया गया कि इस गीत के शुरुआती दो पदों को ही राष्ट्र-गीत के रूप में प्रयुक्त किया जायेगा। इस तरह गुरुदेव रवीन्द्र नाथ ठाकुर के जन-गण-मन अधिनायक जय हे को यथावत राष्ट्रगान ही रहने दिया गया और मोहम्मद इकबाल के कौमी तराने सारे जहाँ से अच्छा के साथ बंकिमचन्द्र चटर्जी द्वारा रचित प्रारम्भिक दो पदों का गीत वन्दे मातरम् राष्ट्रगीत स्वीकृत हुआ।

स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद डॉ॰ राजेन्द्र प्रसाद ने संविधान सभा में २४ जनवरी १९५० में ‘वन्दे मातरम्’ को राष्ट्रगीत के रूप में अपनाने सम्बन्धी वक्तव्य पढ़ा जिसे स्वीकार कर लिया गया।

डॉ॰ राजेन्द्र प्रसाद का संविधान सभा को दिया गया वक्तव्य इस प्रकार है) : शब्दों व संगीत की वह रचना जिसे जन गण मन से सम्बोधित किया जाता है, भारत का राष्ट्रगान है; बदलाव के ऐसे विषय, अवसर आने पर सरकार अधिकृत करे और वन्दे मातरम् गान, जिसने कि भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम में ऐतिहासिक भूमिका निभायी है; को जन गण मन के समकक्ष सम्मान व पद मिले। (हर्षध्वनि)। मैं आशा करता हूँ कि यह सदस्यों को सन्तुष्ट करेगा। (भारतीय संविधान परिषद, द्वादश खण्ड, २४-१-१९५०)

विवाद…

आनन्द मठ उपन्यास को लेकर भी कुछ विवाद हैं, कुछ लोग इसे मुस्लिम विरोधी मानते हैं। उनका कहना है कि इसमें मुसलमानों को विदेशी और देशद्रोही बताया गया है। वन्दे मातरम् गाने पर भी विवाद किया जा रहा है। लोगों का कहना है कि- इस्लाम किसी व्यक्ति या वस्तु की पूजा करने को मना करता है और इस गीत में भारत की माँ के रूप में वन्दना की गयी है; यह ऐसे उपन्यास से लिया गया है जो कि मुस्लिम विरोधी है।

हैदराबाद मुक्ति आंदोलन

भारत का हर एक नागरिक चाहे वह बच्चा हो या बड़ा, स्त्री हो या पुरुष १५ अगस्त, १९४७ के दिन से भली भांति परिचित है, उस दिन जहां देशवासियों में आजादी की बेपनाह खुशी थी तो वहीं बंटवारे का बेइंतहा दर्द भी था। और ये दर्द तब और भी बढ़ गया, जब स्वतंत्र होने के बाद भी भारत को यह पता चला कि वह एक राष्ट्र के बजाय स्वतंत्र रियासतों में अब भी बंटा हुआ है, जो एक षड़यंत्र के तहत जान बूझकर लार्ड लुई माउण्टबेटन का किया धरा था, जिससे स्वतंत्र हुए सारे भूखंड, खण्ड खण्ड में बंटे रहें और उनकी आपसी सीमा विवाद वर्षो तक चलती रहे और ये मजबूती से कभी भी खड़े ना हो सकें, जैसे कि आज भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश की स्थिति है। परंतु उन्हें यह कहां पता था कि सरदार पटेल लगभग ५६५ देशी रियासतों को एक दिन भारत में मिलाकर भारत को एक सूत्र में बांध लेंगे और भारत को मौजूदा स्वरूप दे पाएंगे। इसीलिए कृतज्ञ राष्ट्र अपने कुशल प्रशासक यानी सरदार वल्लभ भाई पटेल को ’लौह पुरुष‘ के रूप में आज भी याद करता है।

रियासतों का विलय…

स्वतंत्रता प्राप्ति के समय देश में तकरीबन ५६५ देशी रियासतें थीं। उस समय सरदार पटेल अंतरिम सरकार में उपप्रधानमंत्री के साथ देश के गृहमंत्री भी थे। जूनागढ, हैदराबाद और कश्मीर को छोड़कर सभी ५६२ रियासतों ने स्वेच्छा से भारतीय परिसंघ में शामिल होने की स्वीकृति दी थी।

वास्तव में, माउण्टबैटन ने जो प्रस्ताव भारत की आजादी को लेकर जवाहरलाल नेहरू के सामने रखा था उसमें ये प्रावधान था कि भारत के ५६५ रजवाड़े भारत या पाकिस्तान में से किसी एक में विलय को चुनेंगे और वे चाहें तो दोनों के साथ न जाकर अपने को स्वतंत्र भी रख सकेंगे। इन ५६५ रजवाड़ों जिनमें से अधिकांश प्रिंसली स्टेट यानी ब्रिटिश भारतीय साम्राज्य का हिस्सा थे, में से भारत के हिस्से में आए रजवाड़ों ने एक-एक करके विलय पत्र पर हस्ताक्षर कर दिए, या यूँ कह सकते हैं कि सरदार वल्लभ भाई पटेल तथा वीपी मेनन ने हस्ताक्षर करवा लिए और बचे रह गए – हैदराबाद, जूनागढ़, कश्मीर और भोपाल।

जूनागढ़, काश्मीर तथा हैदराबाद तीनों राज्यों को सेना की मदद से विलय करवाया गया किन्तु भोपाल में इसकी आवश्यकता नहीं पड़ी, क्योंकि पटेल और वीपी मेनन को पता था कि भोपाल को अंतत: मिलना ही होगा। और भोपाल का विलय हुआ भी, किंतु सबसे अंत में।

हैदराबाद…

हैदराबाद सभी रियासतों में सबसे बड़ी एवं सबसे समृद्धशाली रियासत थी, जो दक्कन पठार के अधिकांश भाग तक फैली थी। इस रियासत की अधिसंख्यक जनसंख्या हिंदू थी, जिस पर एक मुस्लिम शासक निजाम मीर उस्मान अली का शासन था। इसने एक स्वतंत्र राज्य की मांग की एवं भारत में शामिल होने से मना कर दिया, उसके पीछे जिन्ना का आश्वासन प्राप्त था, कि जरूरत पड़ने पर हम तुम्हारे साथ रहेंगे। दूसरी तरफ निजाम लगातार यूरोप से हथियारों के आयात को जारी रखे हुए था। इस प्रकार भारत और पटेल की उलझनें लगातार बढ़ती ही जा रही थी। पटेल ने कई बार मध्यस्थों से निवेदन प्रस्ताव भेजा तथा कई बार तो निजाम को धमकियाँ भी दी, मगर वे सफल ना हो सके। परिस्थितियाँ तब और भी भयावह हो गईं, जब सशस्त्र कट्टरपंथियों ने हैदराबाद की हिंदू प्रजा पर हिंसक वारदातें शुरू कर दीं। अब पटेल को पास कोई चारा नहीं रह गया सिवाय सशस्त्र संघर्ष के। और एक दिन वो समय आ ही गया, यानी १३ सितंबर, १९४८ को ‘ऑपरेशन पोलों’ के तहत भारतीय सैनिकों को हैदराबाद भेजा गया।

हैदराबाद राज्य का संक्षिप्त इतिहास…

आजादी के उपरांत सरदार पटेल अगर सैन्य कार्रवाई शुरू ना करते, तो आज भारत के ठीक मध्य में एक दूसरा देश होता, जिसका क्षेत्रफल २३९३१४ वर्ग किलोमीटर होता, यानी उत्तरप्रदेश के लगभग बराबर।

हैदराबाद का निजाम एक तुर्की मुसलमान था, जो मुगल शासकों के अधीन दक्षिण की जिम्मेदारी संभालता था। कालांतर में जब मुगल कमजोर पड़ने लगे तो निजाम ने स्वयं को सेनापति घोषित कर दिया, मगर यह उसकी एक राजनीतिक चाल थी। वो मुगलों के बजाय स्वयं को मजबूत करने लगा। और फिर वर्ष १७२० को कमरुद्दीन खान ने मुगलिया राज्य से अलग हैदराबाद राज्य का ऐलान कर दिया, जिसमे अविभाजित आंध्रप्रदेश समेत कर्नाटक और महाराष्ट्र के कुछ हिस्से भी आते थे। धीरे धीरे हैदराबाद भारत का सबसे अमीर राज्य बन गया और उसका निजाम सारे संसार का सबसे अमीर आदमी। निजाम को अमीर बनाने में गोलकुंडा के हीरे की खानों का काफी योगदान था। हैदराबाद राज्य ने कालांतर में अपनी अलग रेलवे लाइन, अपनी निजी एयरलाइंस, अपना अलग रेडियो स्टेशन आदि सब कुछ तैयार कर लिया था।

हैदराबाद के इतिहास में एक समय ऐसा भी आया था, जब मराठों ने निजाम से चौथ वसूली थी, लेकिन वह समय इतिहास के काल खंड के बहुत ही छोटा था और बाजीराव के जाने के बाद जब मराठे कमजोर हो गए तो वह फिर से हैदराबाद अपनी शक्ति के साथ राज्य करने लगा, मगर वर्ष १७९८ में उसे ब्रिटिश आधिपत्य को स्वीकारना पड़ा। निजाम आसफ अली द्वितीय ने अंग्रेजों के साथ संधि पर हस्ताक्षर कर दिए। और हैदराबाद अंग्रेजी मिल्कियत बन गई।

समय तेजी से गुजरा और जब भारत के स्वतंत्रता की बात हो रही थी, तो हैदराबाद स्वयं को स्वतंत्र रखने की चाहत लिए हुए था। वहां उस समय ८५ फीसदी हिंदू थे, परंतु प्रशासन में ९० फीसदी मुसलमान थे। हैदराबाद ही वह विषय था, जिसे लेकर सावरकर और गांधीजी के रिश्ते कभी भी मीठे नहीं हो सके। जहां एक तरफ हैदराबाद शासन में हिंदुओं की संख्या बढ़ाने के लिए सावरकर ने आंदोलन किया, तो गांधीजी ने आंदोलन में भाग लेने से साफ मना कर दिया, इसके जवाब में सावरकर ने भी भारत छोड़ो आंदोलन में सहयोग करने से मना कर दिया।

इधर एक साल के लिए स्टेंडस्टिल एग्रीमेंट के बावजूद सरदार पटेल को निजाम उस्मान अली पर भरोसा नहीं था। उन्होंने एक सीक्रेट इन्वेस्टीगेशन टीम को निजाम के मन की थाह लेने के काम पर लगाया। तो पता चला कि निजाम पाकिस्तान से दोस्ती बढ़ा रहा है, उनके कराची पोर्ट को इस्तेमाल करने का एग्रीमेंट करने जा रहा और पाकिस्तान को बिना ब्याज के बीस करोड़ का कर्ज देने वाला है और पाकिस्तान उस पैसे को भारत के साथ कश्मीर की जंग में इस्तेमाल करने वाला था ताकि उससे हथियार खरीद सके। पटेल ने फौरन एक्शन लिया और निजाम को एग्रीमेट की याद दिलाई, जो नवम्बर तक लागू था। निजाम ने पैसे की मदद तो पाकिस्तान को रोक दी, लेकिन एक नए तरीके से जंग छेड़ दी। आज जिसे आप ओबेसी के संगठन एआईएमआईएम के तौर पर जानते हैं, वो संगठन कभी मजलिस एक इत्तिहादुल मसलिमीन यानी एमआईएम के नाम से शुरू हुआ था। रजाकारों का ये संगठन उन मुस्लिमों का था, जो हैदराबाद को खलीफा के राज्य के तौर पर देखना चाहते थे। इसके सिपाहियों को रजाकार कहा जाता था। उस वक्त इस संगठन का मुखिया कासिम रिजवी था। रिजवी ने दो लाख ऐसे रजाकारों को सैन्य ट्रेनिंग देनी शुरू की, जो हैदराबाद रियासत के लिए अपनी जान दे सकें। इधर राज्य के हिंदू यह सोचकर परेशान थे कि हैदराबाद अगर भारत में नहीं मिला तो उनका भविष्य क्या होगा?

ऑपरेशन पोलो…

ऑपरेशन शुरू करने से पहले सरदार पटेल ने एक बार रिजवी से मुलाकात भी की, तो रिजवी ने उनसे काफी रूखा व्यवहार किया। अब तो वो स्वयं को जिन्ना की तरह समझने लगा, उसने अपने भाषणों में दूसरे डायरेक्ट एक्शन की बातें करने लगा। जिसका सीधा असर यह हुआ कि हिंदुओं के खिलाफ हिंसा होने लगी, पूरे हैदराबाद राज्य में हिंदू आतंक के साए में जीने लगे, जुलाई अगस्त के महीने में ही हजार के लगभग बलात्कार और तकरीबन ५०० लोगों की हत्या की गई, अनगिनत लूट और दंगे की वारदातें हुईं तो पटेल अब रुक नहीं पाए। सितम्बर के पहले हफ्ते में इंडियन आर्मी के आला अफसरों के साथ सरदार पटेल ने मीटिंग रखी। जबकि नेहरू पुलिस एक्शन के खिलाफ थे, मगर पटेल ने नेहरू की राय को दरकिनार करते हुए एक्शन लेने का जो मन बना लिया था, उस पर वे कायम रहे और सेना को हरी झंडी दिखा दी।

मेजर जनरल चौधरी की अगुवाई में ३६००० भारतीय सैनिक १३ सितम्बर को सुबह ४ बजे राज्य में प्रवेश किया। पहली लड़ाई सोलापुर सिकंदराबाद राजमार्ग पर नालदुर्ग किले में पहली हैदराबाद इन्फैंट्री के बचाव दल और सातवीं ब्रिगेड के हमलावारों के मध्य लड़ी गई। गति का आश्चर्यजनक उपयोग करते हुए, भारतीय सेना ने अव्यवस्थित और नकारा हैदराबादी सेना को हरा दिया और नालदुर्ग किले को अपने अधीन सुरक्षित कर लिया। पहले दिन का हाल समाचार यह रहा कि भारतीयों द्वारा पश्चिमी मोर्चे पर हैदराबादी सेना को भारी नुकसान हुआ और उनके हाथ से एक बड़ा क्षेत्र निकल गया।

१४ सितंबर को, उमरगे में डेरा डालने वाला बल ४८ किमी पूर्व में राजेश्वर शहर के लिए रवाना हुआ, जिसे पहले से ही हवाई टोही के टेम्पेस्ट विमानों ने रास्ता बना दिया था। भूमि बलों को यह आदेश था कि दोपहर तक राजेश्वर पहुंचना है और उसे अपने अधीन सुरक्षित करना है। सेना ने आदेशानुसार कार्य को सही तरह से अंजाम दिया। उसके बाद जालना शहर पर कब्जा करने के लिए ३/११ गोरखाओं की एक कंपनी को छोड़कर, शेष बल लातूर चले गए, और उसके बाद वे वहां से मोमिनाबाद को निकल लिए, जहां उन्हें गोलकुंडा लांसर्स के खिलाफ कार्रवाई का सामना करना पड़ा।

१५ सितंबर को, आत्मसमर्पण करने से पूर्व गोलकुंडा लांसर्स प्रतिरोध किया था, जिनमें से अधिकांश प्रतिरोध रजाकार इकाइयों से था जिन्होंने शहरी क्षेत्रों से गुजरते हुए भारतीयों पर घात लगाकर हमला किया था।

१६ सितंबर को, भारतीय सेना के समक्ष रजाकार इकाइयों सहित गोलकुंडा लांसर्स ने समर्पण कर दिया।

१७ सितंबर की तड़के भारतीय सेना बीदर में प्रवेश कर गई। इस बीच, सेना की पहली बख़्तरबंद रेजिमेंट हैदराबाद से लगभग ६० किलोमीटर दूर चित्याल शहर में अपना डेरा जमा चुकी थी, जबकि एक अन्य दल ने हिंगोली शहर पर कब्जा कर लिया था।

जब पूरी तरह से स्पष्ट हो गया कि हैदराबादी सेना सहित रजाकारों का सभी मोर्चों पर भारी नुकसान हो चुका है और अब वे उस स्थिति में नहीं हैं कि भारतीय सेना से सामना कर सकें तो, १७ सितंबर को शाम पांच बजे निज़ाम ने युद्धविराम की घोषणा कर दी। इस प्रकार भारतीय सेना की सशस्त्र कार्रवाई समाप्त हो गई।

ऑपरेशन बमुश्किल १०८ घंटे तक चला था। १७ सितंबर को लाइक अली और उनके मंत्रिमंडल ने अपना इस्तीफा दे दिया। मेजर-जनरल चौधरी ने १८ सितंबर को सैन्य गवर्नर के रूप में कार्यभार संभाला। लाइक अली मंत्रालय के सदस्यों को नजरबंद रखा गया। एमआईएम के चीफ रिजवी को १९ सितंबर को गिरफ्तार किया गया। रिजवी को उम्रकैद की सजा दी गई, लेकिन एक राहत भी दी गई कि अगर वो पाकिस्तान चला जाए तो उसकी सजा कम भी हो सकती है। ९ वर्ष बाद १९५७ को वो पाकिस्तान चला गया, लेकिन जाने से पूर्व एक हरकत कर गया। वह एक बार हैदराबाद आया और अब्दुल वाहिद ओबेसी को एमआईएम की जिम्मेदारी सौंप गया। ओबैसी ने उसमें ऑल इंडिया शब्द जोडकर AIMIM बना दिया। आज भी पार्टी वही ओबैसी परिवार चला रहा है। ऑपरेशन के दौरान पूरे भारत में एक भी सांप्रदायिक घटना घटित नहीं हुई थी। हैदराबाद प्रकरण के तेजी से और सफलतापूर्वक समाप्त होने पर विश्वभर में हर्ष का माहौल था और देश के सभी हिस्सों से भारत सरकार को बधाई संदेश आने लगे।

विद्यावाचस्पति अश्विनी राय ‘अरुण’

महामंत्री, अखिल भारतीय साहित्य परिषद्, बक्सर (बिहार)

ग्राम : मांगोडेहरी, डाक : खीरी

जिला: बक्सर (बिहार)

पिन कोड : ८०२१२८

मो. : ७७३९५९७९६९

निर्धन विचारों से शोषित मानस

 

प्रभु भल कीन्ह मोहि सिख दीन्हीं।
मरजादा पुनि तुम्हरी कीन्हीं॥
ढोल गंवार सूद्र पसु नारी।
सकल ताड़ना के अधिकारी॥

अर्थात : प्रभु ने अच्छा किया जो मुझे शिक्षा दी (दंड दिया), किंतु मर्यादा (जीवों का स्वभाव) भी आपकी ही बनाई हुई है। ढोल, गंवार, शूद्र, पशु और स्त्री ये सब शिक्षा के अधिकारी हैं।

मगर इस चौपाई का अपनी अपनी बुद्धि और अतिज्ञान के कारण कितने ही लोग विपरीत अर्थ निकाल लेते हैं। वे गोस्वामी तुलसीदास और उनकी रचित रामचरित मानस पर आक्षेप लगाते हैं, जैसा कि बिहार के तात्कालिक शिक्षा मंत्री माननीय श्री चंद्रशेखर जी ने रामचरित मानस को नफरत फैलाने वाला ग्रंथ बताया है। उन्होंने अपने रामचरित मानस के ज्ञान का प्रदर्शन करते हुए कहा कि उत्तरकांड में लिखा है कि नीच जाति के लोग शिक्षा ग्रहण करने के बाद सांप की तरह जहरीले हो जाते हैं। यह नफरत को बोने वाले ग्रंथ है।

सामान्य समझ की बात है कि अगर तुलसीदास जी स्त्रियों से द्वेष या घृणा करते तो रामचरित मानस में उन्होंने स्त्री को देवी समान क्यों बताया? और तो और तुलसीदास जी ने तो,

एक नारिब्रतरत सब झारी।
ते मन बच क्रम पतिहितकारी।

अर्थात, पुरुष के विशेषाधिकारों को न मानकर दोनों को समान रूप से एक ही व्रत पालने का आदेश दिया है। साथ ही उन्होंने सीता जी को परम आदर्शवादी महिला कहा है एवं मानस में उनकी नैतिकता का चित्रण, उर्मिला के विरह और त्याग का चित्रण यहां तक कि लंका से मंदोदरी और त्रिजटा का चित्रण भी सकारात्मक ही किया है। सिर्फ इतना ही नहीं सुरसा जैसी राक्षसी को भी हनुमान द्वारा माता कहना, कैकेई और मंथरा को भी सहानुभूति का पात्र माना है, जब उन्हें अपनी गलती का पश्चाताप होता है ऐसे में तुलसीदासजी के शब्द का अर्थ स्त्री को पीटना अथवा प्रताड़ित करना कैसे हो सकता है?

अब बात करते हैं शूद्रों के बारे में, जैसा कि माननीय शिक्षा मंत्री महोदय सहित तथाकथित ज्ञानी और सेक्युलर लोगों ने आमजन के मध्य एक गलत जानकारी के द्वारा विष फैला रखा है कि तुलसीदास जी ने अपने ग्रंथ में शूद्रों को मारने पीटने की बात कही है, जबकि वे कदापि ऐसा लिख ही नहीं सकते क्योंकि उनके प्रिय राम द्वारा शबरी, निषाद, केवट आदि से मिलन के जो प्रसंग मानस में आए हैं, वे अनुपम और आनंद कर देने वाले हैं।

गोस्वामी जी ने मानस की रचना अवधी में की है और प्रचलित शब्द ज्यादा आए हैं, इसलिए ‘ताड़न’ शब्द को संस्कृत से जोड़कर नहीं देखा जा सकता, राजा दशरथ ने स्त्री को दिए वचन के कारण ही तो अपने प्राण दे दिए थे। श्रीराम ने स्त्री की रक्षा के लिए रावण से युद्ध किया, रामायण के प्रत्येक पात्र द्वारा पूरी रामायण में स्त्रियों का सम्मान किया गया और उन्हें देवी बताया गया।

असल में यह चौपाइयां उस समय कही गई है जब समुद्र द्वारा विनय स्वीकार न करने पर श्रीराम क्रोधित हो गए और अपने तरकश से बाण निकाल लिया, तब समुद्र देव श्रीराम के चरणों मे आए और श्रीराम से क्षमा मांगते हुए अनुनय विनय करने लगे…

प्रभु भल कीन्ह मोहि सिख दीन्हीं।
मरजादा पुनि तुम्हरी कीन्हीं॥
ढोल गंवार सूद्र पसु नारी।
सकल ताड़ना के अधिकारी॥

अर्थात : हे प्रभु आपने अच्छा ही किया जो मुझे शिक्षा दी (दंड दिया), किंतु मर्यादा (जीवों का स्वभाव) भी आपकी ही बनाई हुई है। ढोल, गंवार, शूद्र, पशु और स्त्री ये सब शिक्षा के अधिकारी हैं।

चौपाइ में जो ताड़ना शब्द आया है, वह एक अवधी शब्द है जिसका अर्थ पहचानना परखना या रेकी करना होता है। तुलसीदास जी के कहने का मंतव्य यह है कि अगर हम ढोल के व्यवहार (सुर) को नहीं पहचानते तो, उसे बजाते समय उसकी आवाज कर्कश होगी अतः उससे स्वभाव को जानना आवश्यक है। इसी तरह गंवार का अर्थ किसी का मजाक उड़ाना नहीं बल्कि उनसे है जो अज्ञानी हैं और उनकी प्रकृति या व्यवहार को जाने बिना उसके साथ जीवन सही से नहीं बिताया जा सकता। इसी तरह पशु और नारी के परिप्रेक्ष में भी वही अर्थ है कि जब तक हम नारी के स्वभाव को नहीं पहचानते उसके साथ जीवन का निर्वाह अच्छी तरह और सुखपूर्वक नहीं कर सकते। इसका सीधा सा भावार्थ यह है कि ढोल, गंवार, शूद्र, पशु और नारी के व्यवहार को ठीक से समझना चाहिए और उनके किसी भी बात का बुरा नहीं मानना चाहिए। परन्तु दुर्भाग्य तुलसीदास जी रचित इस चौपाई को लोग अपने जीवन में गलत तरीके से उतारते हैं।

दर्शन…

१. ढोल का अर्थ कान से है

उदाहरण : जब कान के पर्दे पर अच्छी आवाज की धमक पड़ती है तो मन आनंदित होता है, जिससे हम अच्छा बोल पाते हैं। मगर जब कान कर्कश आवाज सुनता है तो मन गलत बोलने पर आतुर हो जाता है। उसी प्रकार ढोल अच्छी थाप से सुंदर और गलत थाप से कर्कश आवाज उत्पन करता है। उसे साधना से ही सही किया जा सकता है।

२. गंवार का अर्थ आंख से है

उदाहरण : आंख हर एक चीज देखती है, चाहे जागृत अवस्था में सजीव दृश्य अथवा निंद्रा में स्वप्न। अगर उसे देखने की पूरी आजादी दी जाएगी तो वह भगवान राम से लेकर अश्लील से अश्लील दृश्य तक को देख सकती है अतः उसे भी समझाना पड़ता है कि तुम्हें क्या देखना चाहिए और क्या नहीं।

३. शुद्र का अर्थ मन से है

उदाहरण : सबसे पहले मन ही है जो प्रारूप तैयार करता है। क्या करना है क्या नहीं करना है। अगर मन को एकाग्र नहीं करेंगे उसे सही दिशा निर्देश नहीं देंगे तो वह गलत राह पकड़ सकता है, और मन की एक गलती से पूरे के पूरे मनुष्य का समूल नाश हो सकता है। यानी शुद्र समाज के नींव के समान है।

४. पशु का अर्थ शरीर से है

उदाहरण : यह पाल कर रखे शरीर को सदा काम से व्यस्त रखें, जिससे वह किसी गलत संगत, रोग और आलस्य का शिकार ना हो जाए।

५. नारी का अर्थ जीभ से है

उदाहरण : यह सभी तरह का स्वाद चखता है, जैसे एक स्त्री अपने पूरे जीवन काल में मायके से लेकर ससुराल सहित अनेकों स्थान और रिश्तों के मध्य से गुजराती है, जिनसे वह अनजान रहती है, अतः उसके पुरुष को उसे भली भांति समझना होता है, उसे रास्ता बताना होता है, नए परिवेश से परिचय कराना होता है।

६. ताड़न का अर्थ समझाने से है

इन सभी को समझा कर चलना है। इसी को कहा गया है कस्तूरी कुंडली बसे मृग ढूंढे बन माहि । ऐसी घटि घटि राम है दुनिया देखत नाही।। हम खुद समझें दुनिया को क्यों दोष लगा रहे हैं। तुलसीदास जी ने यह श्लोक मानव के हित में संस्कार युक्त बहुत अच्छा ही कहा है।

शुद्र सहित वर्ण व्यवस्था को समझने का प्रयास…

माननीय शिक्षा मंत्री श्री चंद्रशेखर जी ने अपने भाषण के दौरान कहा है कि एक युग में मनुस्मृति, दूसरे युग में रामचरितमानस, तीसरे युग में गुरु गोवलकर का बंच ऑफ थॉट, ये सभी देश को, समाज को नफरत में बांटते हैं। उन्होंने वर्ण व्यवस्था पर भी उंगली उठाया। इसलिए हम आसान भाषा में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र के चरित्र को समझते हैं।

ब्राह्मण : ब्राह्मण वह है, जो दान पर जीता है, उसकी ना तो कोई अपनी संपत्ति होती है और ना ही किसी प्रकार की कोई नौकरी और ना तो कोई उसे बाध्य ही कर सकता है। वह सिर्फ ब्रह्म को खोजता है और हर एक जीव में ब्रह्म को देखता है। जो सिर्फ और सिर्फ समाज के सात्विक बदलवा के लिए जीता है। वो कोई भी हो सकता है। इसमें जाति प्रमाण की कोई आवश्यकता नहीं है।

क्षत्रिय : क्षत्रिय वह है जो कर यानी टैक्स पर जीता हो और बदले में देश और समाज को सुरक्षा प्रदान करता हो। यहां भी जाति प्रमाण की कोई आवश्यकता नहीं है।

वैश्य : वैश्य वह है जो लाभ पर जीता हो, यानी व्यापारी। यहां भी जाति प्रमाण की कोई आवश्यकता नहीं है।

शूद्र : शूद्र वह है जो वेतन पर जीता हो, हर वो व्यक्ति जो नौकरी करता है, चाहे वह दो हजार रुपए की हो अथवा मल्टीनेशनल कंपनियों में करोड़ों कमाता हो। जो भी वेतन भोगी है वह शूद्र है।

नोट : अजीब बात है कि जिस प्रकार गोस्वामी जी की मानस की चौपाइयों को बिना पढ़े अथवा समझे गलत बयान देते फिर रहे हैं, उसी प्रकार मनु के वर्ण व्यवस्था को भी आज अज्ञानता की वजह से जाति व्यवस्था में जोड़ समाज को विखंडित करने की साजिश में हम सभी सहभागी बने हुए हैं। फिर भी यह मेरे अपने विचार है, बाकी तो आप सब स्वयं समझदार हैं।

धन्यवाद!

विधावाचस्पति अश्विनि राय ‘अरुण’

सूरजमुखी का सूरज प्रेम

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UBI Contest १०३
हिन्दी
श्रेणी कविता
सूरजमुखी

शीर्षक : सूरजमुखी का सूरज प्रेम

सूरज सरीखा रूप लिए
वह डाली पर लहराया है,
चेहरे पर उसके वही तेज है, जो
सूरज मेरे उपवन में उतर आया है।

फैलाकर अपनी अनोखी आभा
बहकाता सबके अंतर्मन को,
रंग-बिरंगी फूलों में भी रहकर
देखता घूम घूम कर उपवन को।

नाम है उसका सूरजमुखी
सूरज से बड़ा पुराना नाता है,
सूरज के आने से हंसता
जाते ही वो तड़प जाता है।

सूरज से है उसकी प्रेम निराली
नहीं चेतना कभी बदलने वाली,
पूरे दिन सूरज को चलते देखे वो
बेचैनी उसकी हैरान करने वाली।

छुईमुई का फूल नहीं वो
जो छूते ही कुम्हला जाए,
कड़ी धूप की परीक्षा में वो
खड़े खड़े डाली पर मुस्काए।

टूट जाये डाली से फिर भी
ना शोक मनाता जीवन का,
दे अपना सर्वस्य समर्पण
आनंद मनाता जीवन का।

(मौलिक एवं स्वरचित)

विद्यावाचस्पति अश्विनी राय ‘अरुण’
बक्सर (बिहार) 

बम की पूजा

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मोहन दास करमचंद गांधी

बम की पूजा

२३ दिसंबर, १९२९ को क्रांतिकारी ने ब्रिटिश सरकार के भारतीय स्तंभ वायसराय की गाड़ी को उड़ाने का असफल प्रयास किया। इस घटना की आलोचना करते हुए गाँधीजी ने एक लेख ‘बम की पूजा’ नाम से लिखा, जिसमें उन्होंने वायसराय को देश का शुभचिंतक और क्रांतिकारियों को आजादी के रास्ते का रोड़ा बताया है। जिसका अवलोकन आप स्वयं कर सकते हैं…

लेख…

हमारे यानि भारत के राजनीतिक रूप से सचेत हिस्से के आसपास के माहौल में इतनी हिंसा व्याप्त है कि यहां-वहां एकाध बम फेंका जाना कोई खास बैचेनी पैदा नहीं करता। कुछ लोगों के दिलों में तो शायद ऐसी घटना पर खुशी भी छा जाती है। अगर पता नहीं होता कि यह हिंसा किसी उफनते तरल में सतह पर आ रहे झाग की तरह है तो शायद मुझे निराशा होती कि अहिंसा निकट भविष्य में हमें वह आजादी हासिल कराती नहीं लगती जिसके लिए हम तमाम लोग लालायित है। हिंसा में यकीन करने वाले भी और अहिंसक लोग भी।

खैर है कि पिछले बारह महीनों के दौरान मध्य भारत दौरे के दौरान अपने अविरल अनुभवों के आधार पर मुझे पक्का यकीन है कि उस विशाल आवाम को हिंसा की भावना छू तक नहीं गयी है जो इस बात के प्रति जागरूक हो गया है कि उसे आजादी मिलनी ही चाहिए। इसलिए वायसराय की रेलगाड़ी के नीचे बम-धमाके इक्का-दुक्का हिंसक घटनाओं के बावजूद मुझे लगता है कि हमारी राजनीति की लड़ाई के लिए अहिंसा का रास्ता ही अपनाया जाना है। राजनीतिक संघर्ष में अहिंसा का असर और जनसाधारण द्वारा इस पर अमल की सम्भावना में मेरी आस्था बढ़ती जा रही है। इसीलिए मैं उन लोगों से तर्क करना चाहता हूं जो हिंसा की भावना से इतने लबरेज नहीं हो गए हैं कि तर्क की हद के परे जा चुके हैं।

इसलिए पल भर को सोचिए कि वायसराय अगर गंभीर रूप से जख्मी या हलाक हो गए होते तो क्या हुआ होता। तय है कि तब पिछले महीने २३ तारीख को हुई बैठक नहीं हुई होती। इसलिए यह भी निश्चित नहीं होता कि कांग्रेस कौन सा रास्ता अख्तियार करेगी। बेशक यह अवांछित नतीजा होता, हमारी खुशकिस्मती है कि वायसराय ओर उनके समूह को कुछ भी नहीं हुआ। वे बड़े संयत अंदाज में उस दिन की दिनचर्चा में लगे रहे मानो कुछ हुआ ही नहीं था। मुझे पता है कि इस अटकल पचीसी के तर्क का उन लोगों पर कोई भी असर नहीं पड़ेगा जिनके दिल में कांग्रेस के लिए भी कोई कद्र नहीं, लेकिन मुझे उम्मीद है कि अन्य लोग जिन्हें इससे कोई भी उम्मीद नहीं और जिनकी उम्मीदें हिंसा पर ही टिकी हैं, इस दलील की सच्चाई का अहसास करेंगे ओर मैं जो काल्पनिक तस्वीर पेश कर रहा हुं। इससे महत्वपूर्ण सबक लेंगे।
राजनीतिक हिंसा पर इस देश में अमल के कुल जमा नतीजे पर ही गौर कीजिए। जब भी हिंसा हुई है हमें भारी नुकसान हुआ है। यानि सैन्य खर्च बढ़ गया है, इसके बरअक्स हमें मिला क्या है? मोरले-मिंटो सुधार। मोंटेग्यू सुधार और ऐसे ही अन्य सुधार। लेकिन ऐसे राजनेताओं का दायरा लगातार बढ़ता जा रहा है जो अब महसूसने लगे हैं कि ऐसे सुधार हम पर भारी आर्थिक बोझ लादकर थमाये गए झुंनझुने भर हैं। सही है कि कुछ मामूली सी रियायतें दी गयीं हैं। कुछ और हिंदुस्तानियों को सरकार में नौकरी मिल गयी थी लेकिन उस आवाम के ऊपर बोझ तो और बढ़ ही गया जिसके नाम और जिसके लिए हम आजादी चाहते हैं। बदले में कुछ मिला भी नहीं है। अगर हम इतना भर महसूस कर लें कि सच्ची आजादी हमें विदेशियों को आतंकित करने से नहीं बल्कि खुद डरना छोड़ने और गांव के लोगों को भी डरना छोड़ना सिखाने से मिलेगी तो हमे तत्काल मालूम पड़ जायेगा कि हिंसा का रास्ता हमारे लिए कितना घातक है।

फिर खुद पर इसकी प्रतिक्रिया पर गौर कीजिये। विदेशी शासक के खिलाफ हिंसा का स्वाभाविक और आसान सा अगला कदम है, अपने ही लोगों के खिलाफ इसका इस्तेमाल करें जो हमें देश की तरक्की की राह में बाधक लगते हों। हिंसा का नतीजा अन्य देशों में क्या रहा है, उस पर गौर न भी करें और अहिंसा के दर्शन का हवाला न भी लें तो यह समझने के लिए हमें कोई बड़ी बौध्दिक कसरत करने की जरूरत नहीं है कि समाज को जुल्मों से मुक्त करने के लिए अगर हम हिंसा का सहारा लेते हैं जो हमारी तरक्की को बाधित कर रहे हैं तो हम और कुछ नहीं बल्कि अपनी मुश्किलों को ही बढ़ायेंगे और आजादी के दिन को और दूर धकेलेंगे।

जिन्हें सुधार की जरूरत नहीं लगती और जो सुधरने को तैयार नहीं वे अपने खिलाफ हिंसा होता देख गुस्से से पागल हो जायेंगे और जवाबी हमला करने के लिए विदेशियों की मदद लेंगे। क्या हमने सब गुजरे कई सालों के दौरान अपनी आंखों के सामने होता नहीं देखा है जिसकी दर्दनाक यादें हमारे दिलो-दिमाग में अभी भी ताजा हैं?

अब इस दलील के सकारात्मक पहलू पर गौर करें। अहिंसा कांग्रेस की विचारधारा का हिस्सा १९२० में बनी। इसके बाद कांग्रेस में मानो जादुई बदलाव आया। अवाम जागृत हो उठा। कोई नहीं जानता यह कैसे हुआ। दूरदराज के गांव भी आलोड़ित हो उठे। ऐसा लगा मानो कि कई जुल्म मिट गए। लोगों को अपनी ताकत का एहसास हो गया, उन्हें सत्ता का खौफ नहीं रहा। अल्मोड़ा में बेगार की प्रथा खत्म हो गयी। देश के कई अन्य हिस्सों में भी ऐसा ही हुआ जहां लोग उस ताकत का एहसास करने लगे जो उनके भीतर छिपी थी। यह उनकी आजादी थी जो उन्होंने अपने बूते पर हासिल की थी। यह आवाम का सच्चा स्वराज था जो आवाम ने हासिल किया था।
अहिंसा के बढ़ते कदमों को उन घटनाओं ने बीच में ही रोक दिया होता जिनकी परिणति चौरी चौरा में हुई, तो मुझे कोई शक नहीं कि आज हम स्वराज का पूरा सुखभोग रहे होते। इस बात से किसी ने भी इंकार नहीं किया। लेकिन कई लोग अविश्वास के साथ कहते रहे हैं कि ‘लेकिन आप अवाम को अहिंसा नहीं सिखा सकते। यह व्यक्तिगत स्तर पर ही संभव है और वह भी विरले मामलों में।’ मेरे ख्याल से यह खुद को भुलावे में रखना है। मनुष्य अगर आदतन अहिंसक नहीं होता तो वह खुद को कई युगों पहले ही बर्बाद कर चुका होता। लेकिन हिंसा और अहिंसा की ताकतों के बीच जद्दो-जहद में आखिरकार अहिंसा ही जीतती आई है। सच्चाई यह है कि हममें अब इतना धीरज ही नहीं रहा है कि हम इन्तजार करें और राजनीतिक लक्ष्यों को हासिल करने के लिए आवाम के बीच अहिंसा का प्रचार करने में खुद को दिलो जान से लगा दें।

अब हम एक नये युग में प्रवेश कर रहे हैं। मुकम्मबल आजादी अब हमारा दूरगामी लक्ष्य नहीं बल्कि तात्कालिक लक्ष्य है। क्या यह बात स्पष्ट नहीं है कि अगर हमें करोड़ों-करोड़ लोगों के दिलों में आजादी की सच्ची भावना जगानी है तो ऐसा हमें अहिंसा के जरिये ही करना होगा और इसके लिए वह सब करना होगा जो जरूरी है? इतना ही काफी नहीं है कि गुप्त हिंसा के जरिये अंग्रेजों को आतंकित कर उन्हें यहां से भगा दें। यह हमें आजादी तक नहीं बल्कि घोर गड़बड़ी की ओर ले जायेगा।

लोगों के दिलोदिमाग का आह्वान कर और अपने मतभेदों को सुलझाकर ही हम आजादी कायम कर सकते हैं। आपस में जैविक एकता विकसित कर ही कायम कर सकते हैं। अपना सविनय जन असहयोग आंदोलन हम उन लोगों को आतंकित कर या उन्हें खत्म कर नहीं चलाना चाहते जो हमें लगता है कि हमारे बढ़ते कदमों को बाधित करेंगे बल्कि उनके साथ धीरज और भद्रता के साथ पेश आकर और विरोधियों का मन बदलकर चलाना चाहते हैं। हर कोई कहता है कि यह तो अचूक इलाज है। हर कोई समझता है कि यहां ‘सविनय’ (सिविल) का मतलब है बिलकुल अहिंसक। और यह बात क्या अक्सर साबित नहीं हुई है कि सविनय जन अहसहयोग जन साधारण के स्तर पर अहिंसा और अनुशासन के बगैर नामुमकिन है ?

और कुछ नहीं तो हमारे हालात की जरूरत उस सीमित किस्म की अहिंसा की मांग करते हैं जिसकी ओर मैंने इशारा किया है। इस बात का कायल होने के लिए हमें अपनी धार्मिक अवस्था का सहारा लेने की जरूरत तो नहीं है। इसलिए जो लोग विवेक से परे नहीं हैं उन्हें इस ताजातरीन बम कांड जैसे नृशंस गतिविधियों को छिपे या खुले तौर पर समर्थन देना बंद कर देना चाहिये। इसके उलट उन्हें इन नृशंस कार्रवाहियों की खुलकर और तहेदिल से निंदा करनी चाहिये ताकि बहकावे में पड़े हमारे देशभक्तों की हिंसक भावनाओं को बढ़ावा न मिले। उन्हें हिंसा की निरर्थकता का एहसास हो और वे महसूस करें कि हिंसक कार्रवाही से हर बार कितना नुकसान पहुंचा है।

बम का दर्शन 

बम का दर्शन

1

भगतसिंह (१९३०)

२३ दिसंबर, १९२९ को क्रांतिकारियों ने ब्रिटिश साम्राज्यवाद के स्तम्भ वाइसराय की गाड़ी को उड़ाने का प्रयास किया, जो असफल रहा। गाँधीजी ने इस घटना पर आंतरिक कटुता को दर्शाते हुए एक लेख ‘बम की पूजा’ लिखा, जिसमें उन्होनें वाइसराय को देश का शुभचिंतक और नवयुवकों को आजादी के रास्ते में रोड़ा अटकाने वाले कहा। इसी जवाब में भगवतीचरण वोहरा ने एक ‘बम का दर्शन’ नामक लेख लिखा, जिसका शीर्षक ‘हिंदुस्तान प्रजातन्त्र समाजवादी सभा का घोषणापत्र’ रखा। भगतसिंह ने जेल में इसे अन्तिम रूप दिया। २६ जनवरी, १९३० को इसे देशभर में बाँटा गया।

लेख…

हाल ही की घटनाएँ। विशेष रूप से २३ दिसंबर, १९२९ को वाइसराय की स्पेशल ट्रेन उड़ाने का जो प्रयत्न किया गया था, उसकी निन्दा करते हुए कांग्रेस द्वारा पारित किया गया प्रस्ताव तथा यंग इण्डिया में गाँधीजी द्वारा लिखे गए लेखों से स्पष्ट हो जाता है कि भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने गाँधीजी से साँठ-गाँठ कर भारतीय क्रांतिकारियों के विरुद्ध घोर आन्दोलन प्रारम्भ कर दिया है। जनता के बीच भाषणों तथा पत्रों के माध्यम से क्रांतिकारियों के विरुद्ध बराबर प्रचार किया जाता रहा है। या तो यह जान बूझकर किया गया या फिर केवल अज्ञान के कारण उनके विषय में गलत प्रचार होता रहा है और उन्हें गलत समझा जाता रहा। परन्तु क्रांतिकारी अपने सिद्धान्तों तथा कार्यों की ऐसी आलोचना से नहीं घबराते हैं। बल्कि वे ऐसी आलोचना का स्वागत करते हैं, क्योंकि वे इसे इस बात का स्वर्णावसर मानते हैं कि ऐसा करने से उन्हें उन लोगों को क्रांतिकारियों के मूलभूत सिद्धान्तों तथा उच्च आदर्शों को, जो उनकी प्रेरणा तथा शक्ति के अनवरत स्रोत हैं, समझाने का अवसर मिलता है। आशा की जाती है कि इस लेख द्वारा आम जनता को यह जानने का अवसर मिलेगा कि क्रांतिकारी क्या हैं, उनके विरुद्ध किए गए भ्रमात्मक प्रचार से उत्पन्न होने वाली गलतफहमियों से उन्हें बचाया जा सकेगा।

पहले हम हिंसा और अहिंसा के प्रश्न पर ही विचार करें। हमारे विचार से इन शब्दों का प्रयोग ही गलत किया गया है, और ऐसा करना ही दोनों दलों के साथ अन्याय करना है, क्योंकि इन शब्दों से दोनों ही दलों के सिद्धान्तों का स्पष्ट बोध नहीं हो पाता। हिंसा का अर्थ है कि अन्याय के लिए किया गया बल प्रयोग, परन्तु क्रांतिकारियों का तो यह उद्देश्य नहीं है, दूसरी ओर अहिंसा का जो आम अर्थ समझा जाता है वह है आत्मिक शक्ति का सिद्धान्त। उसका उपयोग व्यक्तिगत तथा राष्ट्रीय अधिकारों को प्राप्त करने के लिए किया जाता है। अपने आप को कष्ट देकर आशा की जाती है कि इस प्रकार अन्त में अपने विरोधी का हृदय-परिवर्तन सम्भव हो सकेगा।

एक क्रांतिकारी जब कुछ बातों को अपना अधिकार मान लेता है तो वह उनकी माँग करता है, अपनी उस माँग के पक्ष में दलीलें देता है, समस्त आत्मिक शक्ति के द्वारा उन्हें प्राप्त करने की इच्छा करता है, उसकी प्राप्ति के लिए अत्यधिक कष्ट सहन करता है, इसके लिए वह बड़े से बड़ा त्याग करने के लिए प्रस्तुत रहता है और उसके समर्थन में वह अपना समस्त शारीरिक बल प्रयोग भी करता है। इसके इन प्रयत्नों को आप चाहे जिस नाम से पुकारें, परंतु आप इन्हें हिंसा के नाम से सम्बोधित नहीं कर सकते, क्योंकि ऐसा करना कोष में दिए इस शब्द के अर्थ के साथ अन्याय होगा। सत्याग्रह का अर्थ है, सत्य के लिए आग्रह। उसकी स्वीकृति के लिए केवल आत्मिक शक्ति के प्रयोग का ही आग्रह क्यों? इसके साथ-साथ शारीरिक बल प्रयोग भी [क्यों] न किया जाए? क्रांतिकारी स्वतन्त्रता प्राप्ति के लिए अपनी शारीरिक एवं नैतिक शक्ति दोनों के प्रयोग में विश्वास करता है परन्तु नैतिक शक्ति का प्रयोग करने वाले शारीरिक बल प्रयोग को निषिद्ध मानते हैं। इसलिए अब यह सवाल नहीं है कि आप हिंसा चाहते हैं या अहिंसा, बल्कि प्रश्न तो यह है कि आप अपनी उद्देश्य प्राप्ति के लिए शारीरिक बल सहित नैतिक बल का प्रयोग करना चाहते हैं, या केवल आत्मिक शक्ति का?

क्रांतिकारियो का विश्वास है कि देश को क्रांति से ही स्वतन्त्रता मिलेगी। वे जिस क्रांति के लिए प्रयत्नशील हैं और जिस क्रांति का रूप उनके सामने स्पष्ट है, उसका अर्थ केवल यह नहीं है कि विदेशी शासकों तथा उनके पिट्ठुओं से क्रांतिकारियों का केवल सशस्त्र संघर्ष हो, बल्कि इस सशस्त्र संघर्ष के साथ-साथ नवीन सामाजिक व्यवस्था के द्वार देश के लिए मुक्त हो जाएं। क्रांति पूँजीवाद, वर्गवाद तथा कुछ लोगों को ही विशेषाधिकार दिलाने वाली प्रणाली का अन्त कर देगी। यह राष्ट्र को अपने पैरों पर खड़ा करेगी, उससे नवीन राष्ट्र और नये समाज का जन्म होगा। क्रांति से सबसे बड़ी बात तो यह होगी कि वह मजदूर व किसानों का राज्य कायम कर उन सब सामाजिक अवांछित तत्त्वों को समाप्त कर देगी जो देश की राजनीतिक शक्ति को हथियाए बैठे हैं।

आज की तरुण पीढ़ी को मानसिक गुलामी तथा धार्मिक रूढ़िवादी बंधन जकड़े हैं और उससे छुटकारा पाने के लिए तरुण समाज की जो बैचेनी है, क्रांतिकारी उसी में प्रगतिशीलता के अंकुर देख रहा है। नवयुवक जैसे-जैसे मनोविज्ञान आत्मसात् करता जाएगा, वैसे-वैसे राष्ट्र की गुलामी का चित्र उसके सामने स्पष्ट होता जाएगा तथा उसकी देश को स्वतन्त्र करने की इच्छा प्रबल होती जाएगी। और उसका यह क्रम तब तक चलता रहेगा जब तक कि युवक न्याय, क्रोध और क्षोभ से ओतप्रोत हो अन्याय करनेवालों की हत्या न प्रारम्भ कर देगा। इस प्रकार देश में आतंकवाद का जन्म होता है। आंतकवाद सम्पूर्ण क्रांति नहीं और क्रांति भी आतंकवाद के बिना पूर्ण नहीं। यह तो क्रांति का एक आवश्यक अंग है। इस सिद्धान्त का समर्थन इतिहास की किसी भी क्रांति का विश्लेषण कर जाना जा सकता है। आतंकवाद आततायी के मन में भय पैदा कर पीड़ित जनता में प्रतिशोध की भावना जाग्रत कर उसे शक्ति प्रदान करता है। अस्थिर भावना वाले लोगों को इससे हिम्मत बँधती है तथा उनमें आत्मविश्वास पैदा होता है। इससे दुनिया के सामने क्रांति के उद्देश्य का वास्तविक रूप प्रकट हो जाता है क्योंकि यह किसी राष्ट्र की स्वतन्त्रता की उत्कट महत्त्वाकांक्षा का विश्वास दिलाने वाले प्रमाण हैं, जैसे दूसरे देशों में होता आया है, वैसे ही भारत में आतंकवाद क्रांति का रूप धारण कर लेगा और अन्त में क्रांति से ही देश को सामाजिक, राजनैतिक तथा आर्थिक स्वतन्त्रता मिलेगी।

तो यह हैं क्रांतिकारी के सिद्धान्त, जिनमें वह विश्वास करता है और जिन्हें देश के लिए प्राप्त करना चाहता है। इस तथ्य की प्राप्ति के लिए वह गुप्त तथा खुलेआम दोनों ही तरीकों से प्रयत्न कर रहा है। इस प्रकार एक शताब्दी से संसार में जनता तथा शासक वर्ग में जो संघर्ष चला आ रहा है, वही अनुभव उसके लक्ष्य पर पहुंचने का मार्गदर्शक है। क्रांतिकारी जिन तरीकों में विश्वास करता है, वे कभी असफल नहीं हुए।

इस बीच कांग्रेस क्या कर रही थी? उसने अपना ध्येय स्वराज्य से बदलकर पूर्ण स्वतन्त्रता घोषित किया। इस घोषणा से कोई भी व्यक्ति यही निष्कर्ष निकालेगा कि कांग्रेस ने ब्रिटिश शासन के विरुद्ध युद्ध की घोषणा न कर क्रांतिकारियों के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर दी है। इस सम्बन्ध में कांग्रेस का पहला वार था उसका वह प्रस्ताव जिसमें २३ दिसम्बर, १९२९ को वाइसराय की स्पेशल ट्रेन उड़ाने के प्रयत्न की निन्दा की गई। और प्रस्ताव का मसौदा गाँधीजी ने स्वयं तैयार किया था और उसे पारित करने के लिए गाँधीजी ने अपनी सारी शक्ति लगा दी। परिणाम यह हुआ कि १९१३ की सदस्य संख्या में वह केवल ३१ अधिक मतों से पारित हो सका। क्या इस अत्यल्प बहुमत में भी राजनीतिक ईमानदारी थी? इस सम्बन्ध में हम सरलादेवी चौधरानी का मत ही यहाँ उद्धृत करें। वे तो जीवन-भर कांग्रेस की भक्त रही हैं। इस सम्बन्ध में प्रश्न के उत्तर में उन्होंने कहा है- मैंने महात्मा गाँधी के अनुयायियों के साथ इस विषय में जो बातचीत की, उससे मालूम हुआ कि वे इस सम्बन्ध में स्वतन्त्र विचार महात्माजी के प्रति व्यक्तिगत निष्ठा के कारण प्रकट न कर सके, तथा इस प्रस्ताव के विरुद्ध मत देने में असमर्थ रहे, जिसके प्रणेता महात्मा जी थे। जहाँ तक गाँधीजी की दलील का प्रश्न है, उस पर हम बाद में विचार करेंगे। उन्होंने जो दलीलें दी हैं वे कुछ कम या अधिक इस सम्बन्ध में कांग्रेस में दिए गए भाषण का ही विस्तृत रूप हैं।

इस दुखद प्रस्ताव के विषय में एक बात मार्के की है जिसे हम अनदेखा नहीं कर सकते, वह यह कि यह सर्वविदित है कि कांग्रेस अहिंसा का सिद्धान्त मानती है और पिछले दस वर्षों से वह इसके समर्थन में प्रचार करती रही है। यह सब होने पर भी प्रस्ताव के समर्थन में भाषणों में गाली-गलौज़ की गई। उन्होंने क्रांतिकारियों को बुजदिल कहा और उनके कार्यों को घृणित। उनमें से एक वक्ता ने धमकी देते हुए यहाँ तक कह डाला कि यदि वे (सदस्य) गाँधीजी का नेतृत्व चाहते हैं तो उन्हें इस प्रस्ताव को सर्वसम्मति से पारित करना चाहिए। इतना सब कुछ किए जाने पर भी यह प्रस्ताव बहुत थोड़े मतों से ही पारित हो सका। इससे यह बात निशंक प्रमाणित हो जाती है कि देश की जनता पर्याप्त संख्या में क्रांतिकारियों का समर्थन कर रही है। इस तरह से इसके लिए गाँधीजी हमारे बधाई के पात्र हैं कि उन्होंने इस प्रश्न पर विवाद खड़ा किया और इस प्रकार संसार को दिखा दिया कि कांग्रेस, जो अहिंसा का गढ़ माना जाता है, वह सम्पूर्ण नहीं तो एक हद तक तो कांग्रेस से अधिक क्रांतिकारियों के साथ हैं।

इस विषय में गाँधीजी ने जो विजय प्राप्त की वह एक प्रकार की हार ही के बराबर थी और अब वे ‘दि कल्ट ऑफ दि बम’ लेख द्वारा क्रांतिकारियों पर दूसरा हमला कर बैठे हैं। इस सम्बन्ध में आगे कुछ कहने से पूर्व इस लेख पर हम अच्छी तरह विचार करेंगे। इस लेख में उन्होंने तीन बातों का उल्लेख किया है। उनका विश्वास, उनके विचार और उनका मत। हम उनके विश्वास के सम्बन्ध में विश्लेषण नहीं करेंगे, क्योंकि विश्वास में तर्क के लिए स्थान नहीं है। गाँधीजी जिसे हिंसा कहते हैं और जिसके विरुद्ध उन्होंने जो तर्कसंगत विचार प्रकट किए हैं, हम उनका सिलसिलेवार विश्लेषण करें।

गाँधीजी सोचते हैं कि उनकी यह धारणा सही है कि अधिकतर भारतीय जनता को हिंसा की भावना छू तक नहीं गई है और अहिंसा उनका राजनीतिक शस्त्र बन गया है। हाल ही में उन्होंने देश का जो भ्रमण किया है उस अनुभव के आधार पर उनकी यह धारणा बनी है, परन्तु उन्हें अपनी इस यात्रा के इस अनुभव से इस भ्रम में नहीं पड़ना चाहिए। यह बात सही है कि (कांग्रेस) नेता अपने दौरे वहीं तक सीमित रखता है जहां तक डाक गाड़ी उसे आराम से पहुँचा सकती है, जबकि गाँधी जी ने अपनी यात्रा का दायरा वहाँ तक बढ़ा दिया है जहाँ तक मोटरकार द्वारा वे जा सकें। इस यात्रा में वे धनी व्यक्तियों के ही निवास स्थानों पर रुके। इस यात्रा का अधिकतर समय उनके भक्तों द्वारा आयोजित गोष्ठियों में की गयी उनकी प्रशंसा, सभाओं में यदा-कदा अशिक्षित जनता को दिए जाने वाले दर्शनों में बीता, जिसके विषय में उनका दावा है कि वे उन्हें अच्छी तरह समझते हैं, परंतु यही बात इस दलील के विरुद्ध है कि वे आम जनता की विचारधारा को जानते हैं।

कोई व्यक्ति जनसाधारण की विचारधारा को केवल मंचों से दर्शन और उपदेश देकर नहीं समझ सकता। वह तो केवल इतना ही दावा कर सकता है कि उसने विभिन्न विषयों पर अपने विचार जनता के सामने रखे। क्या गाँधीजी ने इन वर्षों में आम जनता के सामाजिक जीवन में कभी प्रवेश करने का प्रयत्न किया? क्या कभी उन्होंने किसी सन्ध्या को गाँव की किसी चौपाल के अलाव के पास बैठकर किसी किसान के विचार जानने का प्रयत्न किया? क्या किसी कारखाने के मजदूर के साथ एक भी शाम गुजारकर उसके विचार समझने की कोशिश की है? पर हमने यह किया है इसलिए हम दावा करते हैं कि हम आम जनता को जानते हैं। हम गाँधीजी को विश्वास दिलाते हैं कि साधारण भारतीय साधारण मानव के सामने ही अहिंसा तथा अपने शत्रु से प्रेम करने की आध्यात्मिक भावना को बहुत कम समझता है। संसार का तो यही नियम है- तुम्हारा एक मित्र है, तुम उससे स्नेह करते हो, कभी-कभी तो इतना अधिक कि तुम उसके लिए अपने प्राण भी दे देते हो। तुम्हारा शत्रु है, तुम उससे किसी भी प्रकार का सम्बन्ध नहीं रखते हो। क्रांतिकारियों का यह सिद्धान्त नितान्त सत्य, सरल और सीधा है और यह ध्रुव सत्य आदम और हौवा के समय से चला आ रहा है तथा इसे समझने में कभी किसी को कठिनाई नहीं हुई। हम यह बात स्वयं के अनुभव के आधार पर कह रहे हैं। वह दिन दूर नहीं जब लोग क्रांतिकारी विचारधारा को सक्रिय रूप देने के लिए हजारों की संख्या में जमा होंगे।

गाँधीजी घोषणा करते हैं कि अहिंसा के सामर्थ्य तथा अपने आप को पीड़ा देने की प्रणाली से उन्हें यह आशा है कि वे एक दिन विदेशी शासकों का हृदय परिवर्तन कर अपनी विचारधारा का उन्हें अनुयायी बना लेंगे। अब उन्होंने अपने सामाजिक जीवन के इस चमत्कार के प्रेम संहिता के प्रचार के लिए अपने आप को समर्पित कर दिया है। वे अडिग विश्वास के साथ उसका प्रचार कर रहे हैं, जैसा कि उनके कुछ अनुयायियों ने भी किया है। परंतु क्या वे बता सकते हैं कि भारत में कितने शत्रुओं का हृदय-परिवर्तन कर वे उन्हें भारत का मित्र बनाने मे समर्थ हुए हैं? वे कितने ओडायरों, डायरों तथा रीडिंग और इरविन को भारत का मित्रा बना सके हैं? यदि किसी को भी नहीं तो भारत उनकी विचारधारा से कैसे सहमत हो सकता है कि वे इग्लैंड को अहिंसा द्वारा समझा-बुझाकर इस बात को स्वीकार करने के लिए तैयार करा लेंगे कि वे भारत को स्वतन्त्रता दे दे।

यदि वाइसराय की गाड़ी के नीचे बमों का ठीक से बिस्फोट हुआ होता तो दो में से एक बात अवश्य हुई होती, या तो वाइसराय अत्यधिक घायल हो जाते या उनकी मृत्यु हो गयी होती। ऐसी स्थिति में वाइसराय तथा राजनीतिक दलों के नेताओं के बीच मंत्रणा न हो पाती, यह प्रयत्न रुक जाता उससे राष्ट्र का भला ही होता। कलकत्ता कांग्रेस की चुनौती के बाद भी स्वशासन की भीख माँगने के लिए वाइसराय भवन के आस-पास मंडराने वालों के लिए घृणास्पद प्रयत्न विफल हो जाते। यदि बमों का ठीक से विस्फोट हुआ होता तो भारत का एक शत्रु उचित सजा पा जाता। मेरठ तथा लाहौर-षड्यन्त्र और भुसावल काण्ड का मुकदमा चलानेवाले केवल भारत के शत्रुओं को ही मित्र प्रतीत हो सकते हैं। साइमन कमीशन के सामूहिक विरोध से देश में जो एकजुटता स्थापित हो गई थी,गाँधी तथा नेहरू की राजनीतिक बुद्धिमत्ता के बाद ही इरविन उसे छिन्न-भिन्न करने में समर्थ हो सका। आज कांग्रेस में भी आपस में फूट पड़ गई है। हमारे इस दुर्भाग्य के लिए वाइसराय या उसके चाटुकारों के सिवा कौन जिम्मेदार हो सकता है। इस पर भी हमारे देश में ऐसे लोग हैं जो उसे भारत का मित्र कहते हैं।

देश में ऐसे भी लोग होंगे जिन्हें कांग्रेस के प्रति श्रद्धा नहीं,इससे वे कुछ आशा भी नहीं करते। यदि गाँधी जी क्रांतिकारियों को उस श्रेणी में गिनते हैं तो वे उनके साथ अन्याय करते हैं। वे इस बात को अच्छी तरह जानते हैं कि कांग्रेस ने जन जागृति का महत्वपूर्ण कार्य किया है। उसने आम जनता में स्वतन्त्रता की भावना जाग्रत की है क्योंकि उनका यह दृढ़ विश्वास है कि जब तक कांग्रेस में सेन गुप्ता जैसे ‘अद्भुत’ प्रतिभाशाली व्यक्तियों का, जो वाइसराय की ट्रेन उड़ाने में गुप्तचर विभाग का हाथ होने की बात करते हैं तथा अन्सारी जैसे लोग, जो राजनीति कम जानते और उचित तर्क की उपेक्षा कर बेतुकी और तर्कहीन दलील देकर यह कहते हैं कि किसी राष्ट्र ने बम से स्वतन्त्रता प्राप्त नहीं की- जब तक कांग्रेस के निर्णयों में इनके जैसे विचारों का प्राधान्य रहेगा,तब तक देश उससे बहुत कम आशा कर सकता है। क्रांतिकारी तो उस दिन की प्रतीक्षा में हैं जब कांग्रेसी आन्दोलन से अहिंसा की यह सनक समाप्त हो जाएगी और वह क्रांतिकारियों के कन्धे से कन्धा मिलाकर पूर्ण स्वतन्त्रता के सामूहिक लक्ष्य की ओर बढ़ेगी। इस वर्ष कांग्रेस ने इस सिद्धान्त को स्वीकार कर लिया है, जिसका प्रतिपादन क्रांतिकारी पिछले २५ वर्षों से करते चले आ रहे हैं। हम आशा करें कि अगले वर्ष वह स्वतन्त्रता प्राप्ति के तरीकों का भी समर्थन करेगी।

गाँधीजी यह प्रतिपादित करते हैं कि जब-जब हिंसा का प्रयोग हुआ है तब-तब सैनिक खर्च बढ़ा है। यदि उनका मंतव्य क्रांतिकारियों की पिछली २५ वर्षों की गतिविधियों से है तो हम उनके वक्तव्यों को चुनौती देते हैं कि वे अपने इस कथन को तथ्य और आँकड़ों से सिद्ध करें। बल्कि हम तो यह कहेंगे कि उनके अहिंसा और सत्याग्रह के प्रयोगों का परिणाम, जिनकी तुलना स्वतन्त्रता संग्राम से नहीं की जा सकती, नौकरशाही अर्थव्यवस्था पर हुआ है। आंदोलनों का फिर वे हिंसात्मक हों या अहिंसात्मक, सफल हों या असफल, परिणाम तो भारत की अर्थव्यवस्था पर होगा ही। हमें समझ नहीं आता कि देश में सरकार ने जो विभिन्न वैधानिक सुधार किए, गाँधीजी उनमें हमें क्यों उलझाते हैं? उन्होंने मार्लेमिण्टो रिफार्म, माण्टेग्यू रिफार्म या ऐसे ही अन्य सुधारों की न तो कभी परवाह की और न ही उनके लिए आन्दोलन किया। ब्रिटिश सरकार ने तो यह टुकड़े वैधानिक आन्दोलनकारियों के सामने फेंके थे, जिससे उन्हें उचित मार्ग पर चलने से पथ भ्रष्ट किया जा सके। ब्रिटिश सरकार ने उन्हें तो यह घूस दी थी, जिससे वे क्रांतिकारियों को समूल नष्ट करने की उनकी नीति के साथ सहयोग करें। गाँधी जी जैसा कि इन्हें सम्बोधित करते हैं, कि भारत के लिए वे खिलौने-जैसे हैं, उन लोगों को बहलाने-फुसलाने के लिए जो समय-समय पर होम रूल, स्वशासन, जिम्मेदार सरकार, पूर्ण जिम्मेदार सरकार, औपनिवेशिक स्वराज्य जैसे अनेक वैधानिक नाम जो गुलामी के हैं, माँग करते हैं। क्रांतिकारियों का लक्ष्य तो शासन-सुधार का नहीं है, वे तो स्वतन्त्रता का स्तर कभी का ऊँचा कर चुके हैं और वे उसी लक्ष्य की प्राप्ति के लिए बिना किसी हिचकिचाहट के बलिदान कर रहे हैं। उनका दावा है कि उनके बलिदानों ने जनता की विचारधारा में प्रचण्ड परिवर्तन किया है। उसके प्रयत्नों से वे देश को स्वतन्त्रता के मार्ग पर बहुत आगे बढ़ा ले गए हैं और यह बात उनसे राजनीतिक क्षेत्र में मतभेद रखने वाले लोग भी स्वीकार करते हैं।

गाँधीजी का कथन है कि हिंसा से प्रगति का मार्ग अवरुद्ध होकर स्वतन्त्रता पाने का दिन स्थगित हो जाता है, तो हम इस विषय में अनेक ऐसे उदाहरण दे सकते हैं, जिनमें जिन देशों ने हिंसा से काम लिया उनकी सामाजिक प्रगति होकर उन्हें राजनीतिक स्वतन्त्रता प्राप्त हुई। हम रूस तथा तुर्की का ही उदाहरण लें। दोनों ने हिंसा के उपायों से ही सशस्त्र क्रांति द्वारा सत्ता प्राप्त की। उसके बाद भी सामाजिक सुधारों के कारण वहां की जनता ने बड़ी तीव्र गति से प्रगति की। एकमात्र अफगानिस्तान के उदाहरण से राजनीतिक सूत्र सिद्ध नहीं किया जा सकता। यह तो अपवाद मात्र है।

गाँधीजी के विचार में ‘असहयोग आन्दोलन के समय जो जन जागृति हुई है, वह अहिंसा के उपदेश का ही परिणाम था’ परन्तु यह धारणा गलत है और यह श्रेय अहिंसा को देना भी भूल है, क्योंकि जहाँ भी अत्यधिक जन जागृति हुई वह सीधे मोर्चे की कार्रवाई से हुई। उदाहरणार्थ, रूस में शक्तिशाली जन आन्दोलन से ही वहाँ किसान और मजदूरों में जागृति उत्पन्न हुई। उन्हें तो किसी ने अहिंसा का उपदेश नहीं दिया था, बल्कि हम तो यहाँ तक कहेंगे कि अहिंसा तथा गाँधी जी की समझौता-नीति से ही उन शक्तियों में फूट पड़ गयी जो सामूहिक मोर्चे के नारे से एक हो गई थीं। यह प्रतिपादित किया जाता है कि राजनीतिक अन्यायों का मुकाबला अहिंसा के शस्त्र से किया जा सकता है, पर इस विषय में संक्षेप में यही कहा जा सकता है कि यह अनोखा विचार है,जिसका अभी प्रयोग नहीं हुआ है।

दक्षिण अफ्रीका में भारतीयों के जो न्यायोचित आधिकार माँगे जाते थे, उन्हें प्राप्त करने में अहिंसा का शस्त्र असफल रहा। वह भारत को स्वराज्य दिलाने में भी असफल रहा, जबकि राष्ट्रीय कांग्रेस स्वयंसेवकों की एक बड़ी सेना उसके लिए प्रयत्न करती रही तथा उस पर लगभग सवा करोड़ रुपया भी खर्च किया गया। हाल ही में बारदोली सत्याग्रह में इसकी असफलता सिद्ध हो चुकी है। इस अवसर पर सत्याग्रह के नेता गाँधी और पटेल ने बारदोली के किसानों को जो कम-से-कम अधिकार दिलाने का आश्वासन दिया था, उसे भी वे न दिला सके। इसके अतिरिक्त अन्य किसी देशव्यापी आन्दोलन की बात हमें मालूम नहीं। अब तक इस अहिंसा को एक ही आशीर्वाद मिला वह था असफलता का। ऐसी स्थिति में यह आश्चर्य नहीं कि देश ने फिर उसके प्रयोग से इन्कार कर दिया। वास्तव में गाँधी जी जिस रूप में सत्याग्रह का प्रचार करते हैं, वह एक प्रकार का आन्दोलन है, एक विरोध है जिसका स्वाभाविक परिणाम समझौते में होता है, जैसा प्रत्यक्ष देखा गया है। इसलिए जितनी जल्दी हम समझ लें कि स्वतन्त्रता और गुलामी में कोई समझौता नहीं हो सकता, उतना ही अच्छा है।

गाँधीजी सोचते हैं हम नये युग में प्रवेश कर रहे हैं। परंतु कांग्रेस विधान में शब्दों का हेर- फेर मात्र कर, अर्थात् स्वराज्य को पूर्ण स्वतन्त्रता कह देने से नया युग प्रारम्भ नहीं हो जाता। वह दिन वास्तव में एक महान दिवस होगा जब कांग्रेस देशव्यापी आन्दोलन प्रारम्भ करने का निर्णय करेगी, जिसका आधार सर्वमान्य क्रांतिकारी सिद्धान्त होंगे। ऐसे समय तक स्वतन्त्रता का झंडा फहराना हास्यास्पद होगा। इस विषय में हम सरलादेवी चौधरानी के उन विचारों से सहमत हैं जो उन्होंने एक पत्र-संवाददाता को भेंट में व्यक्त किए। उन्होंने कहा- ३१ दिसंबर, १९२९ की अर्धरात्रि के ठीक एक मिनट बाद स्वतन्त्रता का झंडा फहराना एक विचित्र घटना है। उस समय जी. ओ. सी., असिस्टेंट जी. ओ. सी. तथा अन्य लोग इस बात को अच्छी तरह जानते थे कि स्वतन्त्रता का झंडा फहराने का निर्णय आधी रात तक अधर में लटका है, क्योंकि यदि वाइसराय या सैक्रेटरी ऑफ स्टेट का कांग्रेस को यह संदेश आ जाता है कि भारत को औपनिवेशिक स्वराज्य दे दिया गया है, तो रात्रि को ११ बजकर ५९ मिनट पर भी स्थिति में परिवर्तन हो सकता था। इससे स्पष्ट है कि पूर्ण स्वतन्त्रता प्राप्ति का ध्येय नेताओं की हार्दिक इच्छा नहीं थी, बल्कि एक बालहठ के समान था। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के लिए उचित तो यही होता कि वह पहले स्वतन्त्राता प्राप्त कर फिर उसकी घोषणा करती। यह सच है कि अब औपनिवेशिक स्वराज्य के बजाय कांग्रेस के वक्ता जनता के सामने पूर्ण स्वतन्त्रता का ढोल पीटेंगे। वे अब जनता से कहेंगे कि जनता को संघर्ष के लिए तैयार हो जाना चाहिए जिसमें एक पक्ष तो मुक्केबाजी करेगा और दूसरा उन्हें केवल सहता रहेगा, जब तक कि वह खूब पिटकर इतना हताश न हो जाए कि फिर न उठ सके? क्या उसे संघर्ष कहा जा सकता है और क्या इससे देश को स्वतन्त्रता मिल सकती है? किसी भी राष्ट्र के लिए सर्वोच्च लक्ष्य प्राप्ति का ध्येय सामने रखना अच्छा है, परन्तु साथ में यह भी आवश्यक है इस लक्ष्य तक पहुंचने के लिए उन साधनों का उपयोग किया जाए जो योग्य हों और जो पहले उपयोग में आ चुके हों,अन्यथा संसार के सम्मुख हमारे हास्यासपद बनने का भय बना रहेगा।

गाँधीजी ने सभी विचारशील लोगों से कहा कि वे लोग क्रांतिकारियों से सहयोग करना बन्द कर दें तथा उनके कार्यों की निन्दा करें, जिससे हमारे इस प्रकार उपेक्षित देशभक्तों की हिंसात्मक कार्यों से जो हानि हुई, उसे समझ सकें। लोगों को उपेक्षित तथा पुरानी दलीलों के समर्थक कह देना जितना आसान है, उसी प्रकार उनकी निन्दा कर जनता से उनसे सहयोग न करने को कहना, जिससे वे अलग-अलग हो अपना कार्यक्रम स्थगित करने के लिए बाध्य हो जाएं, यह सब करना विशेष रूप से उस व्यक्ति के लिए आसान होगा जो कि जनता के कुछ प्रभावशाली व्यक्तियों का विश्वासपात्र हो। गाँधीजी ने जीवनभर जनजीवन का अनुभव किया है, पर वह बडे दुःख की बात है कि वे भी क्रांतिकारियों का मनोविज्ञान न तो समझते हैं और न समझना ही चाहते हैं। वह सिद्धान्त अमूल्य है, जो प्रत्येक क्रांतिकारी को प्रिय है। जो व्यक्ति क्रांतिकारी बनता है, जब वह अपना सिर हथेली पर रखकर किसी क्षण भी आत्मबलिदान के लिए तैयार रहता है तो वह केवल खेल के लिए नहीं। वह यह त्याग और बलिदान इसलिए भी नहीं करता कि जब जनता उसके साथ सहानुभूति दिखाने की स्थिति में हो तो उसकी जयजयकार करे। वह इस मार्ग का इसलिए अवलम्बन करता है कि उसका सद्विवेक उसे इसकी प्रेरणा देता है,उसकी आत्मा उसे इसके लिए प्रेरित करती है।

एक क्रांतिकारी सबसे अधिक तर्क में विश्वास करता है। वह केवल तर्क और तर्क ही विश्वास करता है। किसी प्रकार का गाली-गलौच या निन्दा, चाहे फिर वह ऊँचे-से-ऊँचे स्तर से की गई हो,उसे वह अपनी निश्चित उद्देश्य प्राप्ति से वंचित नहीं कर सकती। यह सोचना कि यदि जनता का सहयोग न मिला या उसके कार्य की प्रशंसा न की गई तो वह अपने उद्देश्य को छोड़ देगा, निरी मूर्खता है। अनेक क्रांतिकारी, जिनके कार्यों की वैधानिक आंदोलनकारियों ने घोर निन्दा की, फिर भी वे उसकी परवाह न करते हुए फाँसी के तख्ते पर झूल गए। यदि तुम चाहते हो कि क्रांतिकारी अपनी गतिविधियों को स्थगित कर दें तो उसके लिए होना तो यह चाहिए कि उनके साथ तर्क द्वारा अपना मत प्रमाणित किया जाए। यह एक और केवल यही एक रास्ता है, और बाकी बातों के विषय में किसी को संदेह नहीं होना चाहिए। क्रांतिकारी इस प्रकार की डराने-धमकाने से कदापि हार मानने वाला नहीं।

हम प्रत्येक देशभक्त से निवेदन करते हैं कि वह हमारे साथ गम्भीरतापूर्वक इस युद्ध में शामिल हो। कोई भी व्यक्ति अहिंसा और ऐसे ही अजीबोगरीब तरीकों से मनोवैज्ञानिक प्रयोग कर राष्ट्र की स्वतन्त्रता के साथ खिलवाड़ न करे। स्वतन्त्रता राष्ट्र का प्राण है। हमारी गुलामी हमारे लिए लज्जास्पद है, न जाने कब हममें यह बुद्धि और साहस होगा कि हम उससे मुक्ति प्राप्ति कर स्वतन्त्र हो सकें? हमारी प्राचीन सभ्यता और गौरव की विरासत का क्या लाभ, यदि हममें यह स्वाभिमान न रहे कि हम विदेशी गुलामी, विदेशी झण्डे और बादशाह के सामने सिर झुकाने से अपने आप को न रोक सकें।

क्या यह अपराध नहीं है कि ब्रिटेन ने भारत में अनैतिक शासन किया? हमें भिखारी बनाया, हमारा समस्त खून चूस लिया?एक जाति और मानवता के नाते हमारा घोर अपमान तथा शोषण किया गया है। क्या जनता अब भी चाहती है कि इस अपमान को भुलाकर हम ब्रिटिश शासकों को क्षमा कर दें। हम बदला लेंगे, जो जनता द्वारा शासकों से लिया गया न्यायोचित बदला होगा। कायरों को पीठ दिखाकर समझौता और शान्ति की आशा से चिपके रहने दीजिए। हम किसी से भी दया की भिक्षा नहीं माँगते हैं और हम भी किसी को क्षमा नहीं करेंगे। हमारा युद्ध विजय या मृत्यु के निर्णय तक चलता ही रहेगा। क्रांति चिरंजीवी हो।

करतार सिंह (प्रेजीडेण्ट)

 

लिखित तिथि: जनवरी १९३०

लेखक: भगत सिंह और भगवती चरण वोहरा

शीर्षक: बम का दर्शन 

प्रथम प्रकाशित: दिसंबर १९२९ में, वायसराय इरविन की विशेष ट्रेन के नीचे एक बम विस्फोट हुआ, जिससे वह बच गया। गांधीजी ने वायसराय के बाल-बाल बचने के लिए ईश्वर को धन्यवाद दिया और अपने लेख “बम की पूजा” में क्रांतिकारियों की निंदा की। यह गांधीजी के लेख के जवाब में था। इसे भगवती चरण ने चंद्रशेखर आज़ाद के परामर्श से लिखा था। इसे सोलोमन कंपनी, अमीनाबाद, लखनऊ के ऊपर स्थित कमरे में तैयार किया गया था। भगत सिंह ने जेल में प्रारूप को अंतिम रूप दिया।

भगतसिंह

वासुदेव श्री कृष्ण कौन हैं?

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वासुदेव श्री कृष्ण कौन हैं?
वो क्या हैं?
और क्यूं हैं?
वो कहां हैं?
और कैसे हैं?

तुम यह ना पूछो कि वो क्या हैं।
तुम यह पूछो कि वो क्या नहीं हैं।
तुम यह जानों
तुम हो तो वो हैं,
तुम नहीं तो भी वो हैं।
जहां तक यह सृष्टि है
उसके पार भी वह हैं
जहां तक तुम्हारी सोच बहती है
उसके उस पार भी वो हैं।
तुम यह जान लो
तुम यह मान लो
अपने अंतःकरण में बिठा लो कि
वासुदेव श्री कृष्ण सम्पूर्ण सत्य हैं।

श्रीकृष्ण परब्रह्म हैं,
वे चेतना हैं, परमात्मा हैं,
वे ही ईश्वर,
परमेश्वर, विश्वआत्मा हैं

मुरलीधर, चक्रधारी
श्रीकृष्ण पूर्णावतारी हैं।
अंगकांति श्याम सलोना
नित्य तरुण पीताम्बरधारी हैं।

शंख, चक्र, गदा और पद्मधारी
मनोहारी मुख चार भुजाधारी हैं
चंद्र प्रभा से मुरली मनोहर
शारंगधनुष व कैस्तुभ मणिधारी हैं

मुरलीधर मुरली मनोहर
श्यामसुंदर मयूर पंखधारी हैं
ज्ञानेश्वर सर्वेश्वर परमेश्वर
आनन्दायक वो कृष्ण मुरारी हैं

वो ही सर्वजन, वही कमलनयन
वही सनातन, वही निरंजन
वो मनमोहन, वो रविलोचन
वो देवकीनंदन सुदर्शनधारी हैं

वही सत्यवचन, वही परब्रह्मन
वो निर्गुण मदन कंजलोचन
वही मोहन मधुसूदन जनार्धन
वो कृष्ण ही नारायन त्रिपुरारी हैं

योगिनाम्पति स्वर्गपति प्रजापति
वो अनंता पद्महस्ता विश्वमूर्ति
वही अनंतजीत वो ही सहस्रजीत
श्रीकांत लक्ष्मीकांत वो अपराजित हैं

सत्यव्त सहस्रपात अच्युत वो
द्वारकाधीश देवेश ऋषिकेश वो
अजया अनया अदित्या वो
ज्योतिरादित्या गोपालप्रिया भी वो

वही जगदीश वही सहस्राकाश हैं
वही परम पुरुष वही वेद व्यास हैं
वही जगन्नाथ कमलनाथ वैकुंठनाथ वही
साक्षी धर्माध्यक्ष लोकाध्यक्ष वही

वही आदिदेव वही देवाधिदेव
वो वासुदेव केशव माधव हैं
वही बालगोपाल वही नंदगोपाल
वो जगद्गुरु अचला वृषपर्वधारी हैं

वही पुरुषोत्तम वही सुरेशम
वो अजन्मा परमात्मा है
वही श्याम वही विश्वकर्मा
वो त्रिविक्रमा, विश्वात्मा है

अनिरुद्धा गोविंदा अव्युक्ता वही
वही बलि, मुरली भी है
चतुर्भुज दानवेंद्रो दयालु वही
वही दयानिधि विश्वरूपधारी हैं