November 15, 2024

मोहल्ला अस्सी…

हमने एक फिल्म देखी मोहल्ला अस्सी, बेचारी छः वर्ष के बनवास के बाद सिनेमाघर में आई और औंधे मुंह गिरी। इसमें दोष किसका था। दर्शकों का, निर्माता निर्देशक का या सेंसर बोर्ड का। जहां तक मुझे लगा इसमें पहला स्थान सेंसर को जाता है जिन्होंने निर्माता निर्देशक के काम को उभरने ही नहीं दिया, अपने निर्मम कांट-छांट की बदौलत। जिससे दर्शकों के सामने जो फिल्म आई वह कहीं से फिल्म लगी ही नहीं।मगर हम अपनी बात आधी अधूरी पर ही करेंगे क्योंकि ना तो हमने उस पूरी फिल्म को देखा है और नाही उस पुस्तक को ही पढ़ा है जिसपर यह फिल्म बनी ही है यानी काशीनाथ सिंह जी की उपन्यास ‘काशी का अस्सी’ ही।

वैसे तो जैसा की देखा गया है, अक्सर ही किसी पुस्तक की आत्मा सही मायनों में फिल्म में नहीं आ पाती और जब कोई विद्वान पुस्तक पर फिल्म बनाता है तो विवाद के डर से सेंसर उसे अपंग बना ही देता है। मैं ऐसा इसलिए कह रहा हूं कि चाणक्य जैसी धारावाहिक बनाने वाले विद्वान चंद्रप्रकाश द्विवेदी जी इस फिल्म में कैसे भटक गए। मगर ठीकरा तो उन्हीं के सर फोड़ा जाएगा। ‘मोहल्ला अस्सी’ के साथ सही मायनों में खेल हुआ है जो आपको पूरी फिल्म देखने पर साफ दिख जाएगा। इसलिए उन्हें पूरा दोष भी नहीं दिया जा सकता है। फिल्म के कई दृश्यों पर बुरी तरह कैंची चलाई गई है। इस कारण किसी भी दृश्य का कोई अर्थ ही नहीं निकल पा रहा है।

फिल्म की कहानी वर्ष १९८८ के समय के बनारस की है। आज का पता नहीं लेकिन फिल्म के अनुसार मोहल्ला अस्सी में ब्राह्मण रहते हैं। उन्हीं ब्राह्मणों में एक है धर्मनाथ पांडे (सनी देओल), जो संस्कृत टीचर है और साथ ही वह घाट पर बैठ कर पूजा पाठ भी करता है, लेकिन उसके बावजूद उसकी आर्थिक हालत दिन पर दिन खराब होती जा रही है। मोहल्ले के अन्य लोग चाहते हैं कि वे अंग्रेजों को पेइंग गेस्ट रख कर पैसा कमाए, लेकिन धर्मनाथ यह कदापि नहीं चाहता है अतः सभी उसके आगे बेबस हैं।

यह हुआ कहानी का एक भाग, दूसरे भाग में ‍कहानी कहानी ना होकर राजनितिक दलों पर चोट करती आलेख सी प्रतीत होती है।बात यहीं खत्म कहां होती है। इस फिल्म में एक साथ कई मुद्दों को एक साथ उठाया गया है जो की इस फिल्म की मजबूती और कमजोरी दोनो है। जैसे किसी भी मुद्दे को खुल कर सामने ना आ पाना उसकी कमजोरी है और वही मुद्दा उसकी मजबूती भी है जिसे सेंसर ने काट काट कर कहीं का नहीं छोड़ा है। अब आते हैं मुद्दों पर…

१. समय के बदलाव के साथ आदर्शों का ध्वस्त होते देखते रह जाना।
२. भारत की विचलित कर देने वाली राजनीतिक परिस्थितियां।
३. मंडल कमीशन
४. अयोध्या मंदिर-मस्जिद विवाद।
५. देश का बाजारीकरण आदि।

इन सारी बातों को पिरोने वाली यह कहानी कहीं से भी अपील नहीं करती और न तो मजेदार ही लगती है। ऐसा लगा रहा है कि सिर्फ सीन जोड़े गए हैं जिनका कहानी से कोई लेना-देना नहीं है। कुछ दृश्य तो फिल्म में क्यों है, ये एक पहेली बन के रह गई हैं।

चाय की दुकान पर भाजपा, कांग्रेस और कम्युनिस्ट विचारधारा के लोगों को बैठाकर और उनसे डिबेट करा कर निर्देशक महोदय अपने अंदर के भावना को कहना चाह रहे हैं जो सिर्फ नाटकीय जान पड़ता है। बड़े बड़े मुद्दे भी यहां बोझिल लगते हैं। तो कहीं-कहीं विचारोत्तेजक भी लगती है। ये तो हिम्मत की बात है कि इस फिल्म में पार्टियों का नाम लेकर बातें की गई हैं। इस फिल्म में उद्योगपति और योग कराने वाले बाबा भी मजाक बन गए हैं। इस बात पर भी नाराजगी है कि हर बात का बाजारीकरण कर दिया गया है, चाहे गंगा मैया हो या योग। हर चीज बेची जा रही है। फिल्म में एक जगह संवाद है कि वो दिन दूर नहीं जब हवा भी बेची जाएगी।

इन सब बातों की आंच बनारस के मोहल्ला अस्सी तक भी पहुंच गई है जहां आदर्श चरमरा गए हैं। फिल्म में इस बात को भी दर्शाने की कोशिश की गई है कि ज्ञानी इन दिनों मोहताज हो गया है और पाखंडी पूजे जा रहे हैं। अंग्रेजों की भी खटिया खड़ी की गई है जो बेरोजगारी भत्ता पाकर बनारस में पड़े रहते हैं।

निर्देशक और लेखक के रूप में चंद्रप्रकाश द्विवेदी फिल्म की लय बरकरार नहीं रख पाए या लय बनाए नहीं रहने दिया गया है, यह साफ दिखाई पड़ता है। फिल्म देखने पर आपको साफ दिख जाएगा की अधिकांश समय फिल्म मुद्दे पर आते ही कुछ कहे बिना हट क्यूं जा रही है। चंद्रप्रकाश द्विवेदी जी इतने बड़े मूर्ख तो हैं नहीं कि बिना ओर छोर की दृश्यों को फिल्माएंगे। फिल्म में कई किरदार आधे-अधूरे लगते हैं। इमोशनल दृश्यों में सनी देओल की अभिनय की चमक दिखती है, लेकिन गुस्से वाले दृश्यों में वे??? गालियां देते समय उनकी असहजता साफ देखी जा सकती है। साक्षी तंवर का अभिनय बेहतरीन है। उनके किरदार के मन के अंदर क्या चल रहा है ये उनके अभिनय में देखा जा सकता है। रवि किशन और सौरभ शुक्ला अपनी उपस्थिति दर्ज कराते हैं। मगर मुकेश तिवारी, राजेन्द्र गुप्ता और अखिलेन्द्र मिश्रा के लिए इस फिल्म में कुछ है ही नहीं।

फिल्म माफियाओं की दखल और सेंसर की कांट-छांट के कारण फिल्म ‘मोहल्ला अस्सी’ कहानी के साथ न्याय नहीं कर पाती है।

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