कल्पतरु दिवस अर्थात कल्पतरु उत्सव रामकृष्ण मठ संप्रदाय के भिक्षुओं, संबद्ध रामकृष्ण मिशन के अनुयायियों के साथ-साथ दुनिया भर के वेदांत समाज द्वारा मनाया जाने वाला एक वार्षिक धार्मिक महोत्सव है। यह संगठन १९वीं सदी के रहस्यवादी और हिंदू पुनर्जागरण के पुरोधा श्री रामकृष्ण की शिक्षाओं का पालन करते हैं।
प्रयोजन…
यह महोत्सव १ जनवरी, १८८६ के दिन की याद में मनाया जाता है। अनुयायियों के अनुसार श्री रामकृष्ण इसी दिवस को कल्पतरु स्वरूप में इस धरा पर अवतरित हुए थे। इसलिए प्रत्येक १ जनवरी को अवतरण दिवस के रूप में आयोजित किया जाता है। हालाँकि यह उत्सव कई स्थानों पर मनाया जाता है, परन्तु सबसे महत्वपूर्ण उत्सव कोलकाता (तब कलकत्ता कहा जाता था) के पास काशीपुर गार्डन हाउस या उद्यानबटी में मनाया जाता है, जो वर्तमान में रामकृष्ण मठ है, जो रामकृष्ण आदेश की एक शाखा है। यह वह स्थान है जहाँ रामकृष्ण ने अपने जीवन के अंतिम दिन बिताए थे। इसे रामकृष्ण के अनुयायियों द्वारा “भगवान के विशेष त्योहारों” में से एक के रूप में वर्गीकृत किया गया है।
मूल…
१ जनवरी १८८६, यानी पहला कल्पतरु दिवस श्री रामकृष्ण और उनके अनुयायियों के जीवन में “असाधारण परिणाम और अर्थ की घटना” थी। उस समय रामकृष्ण गले के कैंसर से पीड़ित थे और उनका स्वास्थ्य गिर रहा था। वह और उनके सबसे करीबी अनुयायी उत्तरी कलकत्ता के काशीपुर इलाके में एक बगीचे वाले घर में चले गए थे। १ जनवरी उनके लिए अपेक्षाकृत अच्छा दिन था क्योंकि बाकी दिनों के अपेक्षा वे इस दिन कुछ स्वस्थ थे और बगीचे में टहलने गए हुए थे। वहाँ, उन्होंने अपने एक अनुयायी, गिरीश से एक सवाल पूछा, जो उन्होंने पहले भी कई बार पूछा था, “तुम मुझे कौन मानते हो?” गिरीश ने जवाब दिया, ‘मेरा मानना है कि आप ईश्वर के अवतार हैं, जो मानव जाति के उद्धार लिए पृथ्वी पर आए हैं”।
रामकृष्ण ने उत्तर दिया, “मैं और क्या कहूँ? तुम जागृत हो।” यह कह श्री रामकृष्ण एक “परमानंद अवस्था” में चले गए और अपने सभी अनुयायियों को छूना शुरू कर दिया। जिन लोगों को उन्होंने छुआ, उन्होंने चेतना के कई नई अवस्थाओं को अनुभव किया, जिसमें ज्वलंत दर्शन भी शामिल थे। एक शिष्य को तो वैकुंठवासी के दृश्य लगातार आते रहे और उनके दैनिक जीवन में बाधा उत्पन्न करते रहे, जिससे उन्हें यह डर सताने लगा कि कहीं वे पागल तो नहीं हो जाएंगे।
कल्पतरु (कल्पवृक्ष)…
एक अन्य शिष्य, रामचंद्र दत्ता ने बताया कि रामकृष्ण वास्तव में कल्पतरु (जिसे कल्पवृक्ष भी कहा जाता है) बन गए थे (संस्कृत साहित्य और हिंदू पौराणिक कथाओं के अनुसार, “इच्छा-पूर्ति करने वाला वृक्ष”)।
अनंत की यात्रा…
परिणामस्वरूप दत्ता ने इस रहस्यमय घटना के स्मरणोत्सव को “कल्पतरु दिवस” नाम दिया। इस घटना ने “शिष्यों के लिए ब्रह्मांडीय महत्व के अर्थ और यादें लेकर आई और उन्हें रामकृष्ण की मृत्यु के लिए भी तैयार किया”, जो कुछ ही महीनों बाद, १६ अगस्त १८८६ को हुई।
श्रावणी पूर्णिमा के अगले दिन प्रतिपदा को प्रातःकाल रामकृष्ण परमहंस ने देह त्याग दिया। १६ अगस्त का सवेरा होने के कुछ ही वक्त पहले आनन्दघन विग्रह श्रीरामकृष्ण इस नश्वर देह को त्याग कर महासमाधि द्वारा स्व-स्वरुप में लीन हो गये।