विश्व की समस्त जन समुदाय ऋषि·मुनियों की संतान हैं। चाहे वह किसी भी कुल में जन्मा हो। ऋषियों में बहुत से ऐसे ऋषि हुए जिन्होंने वेदों की ऋचाओं की रचना की तथा उन्हें संभालने के लिए वेदों के विभाग किए जो उपवेद कहलाए। उन्हें भी उन्होंने अलग अलग शाखाओं में विभक्त किया तथा उसे अपने शिष्यों को कंठस्थ कराया और उन्हें यह शिक्षा भी दी कि आप अपनी पीढियों को भी वेद की उक्त शाखा को कंठस्थ कराएं। इस तरह कालांतर में ऋषि कुल के अंतर्गत आने वाले वंश परंपरा में अलग अलग समाज का निर्माण होता गया।
वर्तमान काल में यदि कोई सभ्य समाज के अंतर्गत आने वाले कुलीन व्यक्ति को अपना परिचय देना होगा तो उन्हें अपना गोत्र, प्रवर, वेद, शाखा, सूत्र, देवता, आवंटक आदि को बताना होगा।
१. गोत्र…
‘गोत्र’ शब्द से उस समसामयिक वंश परंपरा का संकेत मिलता है, जो एक संयुक्त परिवार के रूप में रहती थी और जिनकी संपत्ति भी साझा होती थी। गोत्र मूल रूप से ब्राह्मणों के उन सात वंशों से संबंधित होता है, जो अपनी उत्पत्ति सात ऋषियों से मानते हैं। ये सात ऋषि अत्रि, भारद्वाज, भृगु, गौतम, कश्यप, वशिष्ठ, विश्वामित्र हैं। इनके अलावा भी इन गोत्रों में एक आठवाँ गोत्र बाद में अगस्त्य ऋषि के नाम से जोड़ा गया, क्योंकि दक्षिण भारत में वैदिक हिन्दू धर्म के प्रसार में उनका बहुत योगदान था। बाद के युग में गोत्रों की संख्या बढ़ती चली गई, क्योंकि अपने ब्राह्मण होने का औचित्य स्वयं के वैदिक ऋषि के वंशज होने का दावा करते हुए ठहराना पड़ता था।
२. प्रवर…
प्रवर का शाब्दिक अर्थ श्रेष्ठ होता है। गोत्रकारों के पूर्वजों एवं महान ऋषियों को प्रवर कहते हैं। जैसे महर्षि वशिष्ठ के पौत्र व महर्षि शक्ति के पुत्र, संकृति ऋषि के वंश में अपने कर्मो द्वारा कोई व्यक्ति ऋषि होकर महान हो गया है जो उसके नाम से आगे वंश चलता है। यह मील के पत्थर जैसे है। मूल ऋषि के कुल में तीन, पांच या सात आदि महान ऋषि हो चले हैं। मूल ऋषि के गोत्र के बाद जिस ऋषि का नाम आता है उसे प्रवर कहते हैं।
३. वेद…
वेदों की रचनाएं ऋषियों के अंत:करण से प्रकट हुई थी। यह वह काल था, जब लिखने के लिए कोई साधन उपलब्ध नहीं था। हां कभी कभी कुछ बातों को शिल्लाओं पर लिख दिया जाता था, मगर यह सुरक्षित नहीं था। ऐसे में ऋचाओं की रक्षा हेतु एक परंपरा का प्रचलन हुआ। उसे सुनाकर दूसरे को याद कराया जाए और इस तरह वह कंठस्थ कर ली जाए। चूंकि चारों वेद कोई एक ऋषि याद नहीं रख सकता था इसलिए गोत्रकारों ने ऋषियों के जिस भाग का अध्ययन, अध्यापन, प्रचार प्रसार, आदि किया उसकी रक्षा का भार उसकी संतान पर पड़ता गया इससे उनके पूर्व पुरुष जिस वेद ज्ञाता थे तदनुसार वेदाभ्यासी कहलाते हैं।
४. शाखा…
मान लो कि किसी एक ऋषि की कुल संतान को एक ऋग्वेद के ही संवरक्षण का कार्य सौंप दिया गया तो फिर यह भी समस्या थी कि इतने हजारों मंत्रों को कोई एक ही याद करके कैसे रखे और कैसे वह अपनी अगली पीढ़ी को हस्तांतरित करें। ऐसे में वेदों की शाखाओं का निर्माण हुआ। ऋषियों ने प्रत्येक एक गोत्र के लिए एक वेद के अध्ययन की परंपरा डाली थी, कालांतर में जब एक व्यक्ति उसके गोत्र के लिए निर्धारित वेद पढ़ने में असमर्थ हो जाता था तो ऋषियों ने वैदिक परंपरा को जीवित रखने के लिए शाखाओं का निर्माण किया। इस प्रकार से प्रत्येक गोत्र के लिए अपने वेद की उस शाखा का पूर्ण अध्ययन करना आवश्यक कर दिया। इस प्रकार से उन्होंने जिसका अध्ययन किया, वह उस वेद की शाखा के नाम से पहचाना गया। मतलब यह कि उदाहरणार्थ किसी का गोत्र- सांकृत, प्रवर- ३/५(त्री)/(पंच) आंगिरस, गौरुवीत, सांकृत तीन या कृष्णात्रेय, आर्चनानस, श्यावास्व, संख्यायन, सांकृत और वेद- यजुर्वेद, शाखा (उपवेद)- धनुर्वेद है।
५. सूत्र…
व्यक्ति जब शाखा के अध्ययन में भी असमर्थ हो गया, तब उस गोत्र के परवर्ती ऋषियों ने उन शाखाओं को सूत्र रूप में बांट दिया।
६. देवता…
प्रत्येक वेद या शाखा का पठन, पाठन करने वाले, किसी विशेष देव की आराधना करते हैं वही उनका कुल देवता या उनके आराध्य देव अथवा कुल-देवी होती हैं। इसका ज्ञान अगली पीढ़ी को दिया जाता है। इसके अलावा दिशा, द्वार, शिखा, पाद आदि भेद भी होते हैं। उक्त अंतिम भेद से यह पता लगाया जा सकता है कि यह व्यक्ति किस कुल का है, कौन से वेद की कौनसी शाखा के कौन से सूत्र और कौन से सूत्र के कौन से देव के ज्ञान को संवरक्षित करने वाला है।