अमृतराव, बाजीराव प्रथम का पुत्र था, जिसे रघुनाथराव (राघोवा) ने गोद लिया था। इस तरह वह रघोवा का दत्तक पुत्र था। उसने पेशवा के रूप में केवल एक वर्ष ही राज्य किया था। कारण यह था कि पूना की लड़ाई के बाद पेशवा बाजीराव द्वितीय अक्टूबर, १८०२ ईस्वी में बसई भाग गया था। पेशवा के इस प्रकार बसई भाग जाने से अमृतराव को वर्ष १८०२ में पेशवा बनाया गया। बाजीराव द्वितीय को वर्ष १८०३ के आरम्भ में अंग्रेज़ों के द्वारा दुबारा पेशवा बना दिया गया। अमृतराव ने इसका जरा भी विरोध नहीं किया और अंग्रेज़ों द्वारा पेंशन पाकर बनारस आकार रहने लगा।
परिचय…
अमृत राव का जन्म वर्ष १७७० में हुआ था। वह मराठा साम्राज्य के ग्यारहवें पेशवा रघुनाथ राव का दत्तक पुत्र था, जिन्होंने वर्ष १७७५ में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के साथ गठबंधन किया था। हालांकि, वर्ष १७८२ में अंग्रेजों ने मराठों के बीच रघुनाथ राव के प्रतिद्वंद्वियों के साथ सालबाई की संधि पर हस्ताक्षर किए और उसके एक साल बाद यानी वर्ष १७८३ में रघुनाथ राव की मृत्यु हो गई, और उनके परिवार को नाना फडणवीस ने कैद करवा लिया। उनकी पत्नी आनंदीबाई, पुत्र बाजीराव द्वितीय, चिमाजी राव द्वितीय तथा और अमृत राव को वर्ष १७९३ तक कोपरगाँव में नजाबंद करके रखा गया और फिर अप्रैल १७९४ में शिवनेरी किला, आनंदवाली, नासिक ले जाया गया। पेशवा माधव राव द्वितीय की मृत्यु के बाद, नाना फडणवीस और दौलत राव सिंधिया ने अमृत राव के दत्तक भाइयों में से पहले चिमाजी राव को और फिर बाजीराव द्वितीय को उनके उत्तराधिकार के अधार पर पेशवा के रूप में स्थापित किया। नाना फडणवीस की मृत्यु के बाद दौलत राव सिंधिया के पास मराठा साम्राज्य की वास्तविक शक्ति आ गई, जबकि पेशवा बाजीराव द्वितीय कठपुतली मात्र बन कर रह गए।
दौलत राव सिंधिया के साथ संघर्ष…
दौलत राव सिंधिया के पूर्ववर्ती महादजी सिंधिया की विधवाओं ने सिंधिया दरबार पर नियंत्रण के लिए दौलत राव सिंधिया के साथ लड़ाई शुरू कर दी। वर्ष १७९८ में, सिंधिया ने विधवाओं को अहमदनगर में स्थानांतरित करने और उन्हें वहां कैद में रखने का फैसला किया। जब सिंधिया के लोग उन्हें अहमदनगर ले जा रहे थे, तभी महिलाओं के प्रति वफादार एक अधिकारी मुजफ्फर खान ने उन्हें कोरेगांव भीमा के पास बचाया। मुजफ्फर खान उन विधवाओं को कोरेगांव भीमा के पास रह रहे, अमृत राव के पास ले गया। अमृत राव ने उन्हें सुरक्षा प्रदान की।
७ जून, १७९८ के रात की बात है, सिंधिया ने विधवाओं को पुनः प्राप्त करने के लिए एक फ्रांसीसी अधिकारी कैप्टन डू प्रैट की कमान में पैदल सेना की पांच बटालियन भेजी, मगर वे अमृत राव की सेना के सामने टिक ना सके, उन्हें सिंधिया के आदमियों को पीछे हटने के लिए मजबूर कर दिया। इस हार के बाद दौलत राव सिंधिया ने बातचीत कर मामले को सुलझाने की प्रक्रिया शुरू की, जिसके तहत उन विधवा महिलाओं को अपना घर चुनने का उसने मौका दिया जाएगा। महिलाओं की ओर से अमृत राव सिंधिया से मिलने पुणे पहुंचे। उन्होंने मुला नदी के तट पर स्थापित खडकी पुल के पास अपना शिविर स्थापित किया। सिंधिया के ससुर और जनरल सरजी राव घाटगे उर्फ सरजेराव ने स्थानीय मुहर्रम जुलूस में व्यवस्था बनाए रखने का बहाना बना कर नदी के किनारे दो बटालियन को खड़ा किया और समय देखकर उनके सैनिकों ने २५ तोपों से अमृत राव के शिविर पर गोले बरसाना शुरू कर दिया, जिससे अमृत राव की सेना तितर-बितर हो गई, उसके बाद घाटगे की सेना ने उन पर हमला बोल दिया और उनके शिविर को लूट लिया। इसके बाद सिंधिया की विधवाएं कोल्हापुर भाग गईं।
पुणे पर होल्कर का कब्जा…
२५ अक्टूबर, १८०२ को, दौलत राव सिंधिया के प्रतिद्वंद्वी कुलीन यशवंत राव होल्कर ने हडपसर की लड़ाई में सिंधिया और पेशवा बाजीराव द्वितीय की संयुक्त सेना को हराकर पुणे पर आक्रमण किया। पुणे पर अधिकार करने के बाद, होल्कर ने पुणे में अपने लायक एक कठपुतली पेशवा स्थापित करने का फैसला किया। क्योंकि अब दरबार में पेशवा की शक्ति ना के बराबर हो चुकी थी, इसलिए होल्कर ने बाजीराव के भाई अमृतराव को जुन्नार से बुलवाया। अमृत राव अपने बेटे विनायक राव के साथ पुणे पहुंचे। होल्कर ने अमृत राव को पेशवा बनाकर, उनके नाम पर पेशवाई को अपने अधीन कर ली।
कई इतिहासकार ऐसा भी मानते हैं कि १३ मार्च १८०३ को पुणे छोड़कर जाने से पूर्व होल्कर ने अमृत राव के सहयोग से उनके पुत्र विनायक राव को नए पेशवा के रूप में नियुक्त कर पुणे में अपनी नई सरकार को कानूनी दर्जा देने का भी प्रयास किया। होल्कर ने उस समय अमृत राव के जिम्मे एक हजार सैनिकों की एक टुकड़ी भी छोड़ी, जिससे नए पेशवा को सुरक्षा प्रदान किया जा सके। इस बीच, बाजीराव द्वितीय वसई भाग गया और उसने अंग्रेजों से सहायता मांगी। यशवंत राव होल्कर और अमृत राव ने भी अपनी सरकार के लिए ब्रिटिश समर्थन प्राप्त करने का असफल प्रयास किया। लेकिन अंग्रेजों ने ३१ दिसंबर, १८०२ को बाजीराव के साथ बेसिन की संधि पर हस्ताक्षर कर लिए। वर्ष १८०३ में अंग्रेजों ने आर्थर वेलेस्ली के नेतृत्व में एक सेना को पुणे पर कब्जा करने और ब्रिटिश अधिकार के तहत पेशवा के रूप में बाजीराव द्वितीय को बहाल करने के लिए भेजा। अमृत राव एक छोटी टुकड़ी के साथ कब तक टिकता, वह होल्कर के सैनिकों के साथ पुणे से भाग निकला। १३ मई, १८०३ को अंग्रेजों ने बाजीराव द्वितीय को एक बार पुनः नाममात्र का पेशवा बहाल कर दिया, जो इस बार ब्रिटिश नियंत्रण में रहे।
पुणे से भागने के बाद…
पुणे से भागने के बाद अमृत राव ने यह महसूस किया कि होल्कर ने उन्हें धोखा दिया है, क्योंकि उसने शक्तिशाली अंग्रेजों के खिलाफ एक छोटी सी टुकड़ी देकर खड़ा कर दिया। अमृत राव अब दौलत राव सिंधिया से समर्थन प्राप्त करने के उद्देश्य से मिलने के लिए कूच करने ही वाला था कि ब्रिटिश जनरल आर्थर वेलेस्ली ने अमृत राव के साथ पत्राचार किया। (जहां वेलेस्ली यह अच्छी तरह जानता था कि अमृत राव कालांतर में एक खतरनाक प्रतिद्वंद्वी बन सकता है, अतः उसने अमृत राव को अपना सहयोगी बनाने के उद्धेश्य से एक पत्र भेजा। वहीं दूसरी ओर अमृत राव, जो अनिच्छा से होल्कर के गुट में शामिल हो गया था और जिसने अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई को भी कम आंका था। उसने भी इस मौके को हाथ से जाने देना उचित नहीं समझा।) नतीजतन, दोनों पक्षों ने बातचीत करने का फैसला किया, जबकि पेशवा बाजीराव द्वितीय ने अमृत राव को अपना दुश्मन मानते थे और इस मेल-मिलाप से खुश नहीं थे। फिर भी चुप रहने में ही अपनी भलाई समझी। १४ अगस्त, १८०३ को अमृत राव ने अंग्रेजों के साथ एक समझौते पर हस्ताक्षर किए, जिसके तहत वह पेशवा के दरबार पर अपने सभी दावों को त्यागने और अंग्रेजों के साथ मैत्रीपूर्ण रहने के लिए सहमत हो गए। बदले में उन्हें, कंपनी की ओर से बांदा जिले में एक जागीर से सालाना सात लाख रुपए की पेंशन मिलती रहेगी। उन्होंने कर्वी को अपना आवास बनाया। उनके वंशजों ने बुंदेलखंड एजेंसी की तिरोहा (किरूर) संपत्ति पर शासन किया।
और अंत में…
६ सितंबर, १८२४ को बनारस के पास सेक्रोल में अमृत राव की मृत्यु हो गई। वर्ष १८५३ में उनके पुत्र विनायक राव की निःसंतान मृत्यु हो गई। विनायक के दत्तक पुत्र नारायण और माधो की अंग्रेज़ी सरकार ने पेंशन बंद कर दी तो वर्ष १८५७ के विद्रोह में शामिल हो गए। इस विद्रोह को पूरी तरह से कुचल दिया गया। कालांतर में नारायण राव की मौत अंग्रेजी कैद में ही हो गई और माधोराव को उनकी कम उम्र को ध्यान में रखते हुए जमींदार रहने दिया गया।