आदरणीय मंच, अध्यक्ष जी एवं प्रबुद्धजन को अश्विनी राय ‘अरूण’ का प्रणाम!
हिंदी साहित्य में लघुकथा नवीनतम् विधा है। हिंदी के अन्य सभी विधाओं की तुलना में लघुआकार होने के कारण यह समकालीन पाठकों के ज्यादा करीब है और सिर्फ़ इतना ही नहीं यह अपनी विधागत सरोकार की दृष्टि से भी एक पूर्ण विधा के रूप में हिदीं जगत् में समादृत हो रही है। इसे स्थापित करने में जितना हाथ भारतेन्दु जी, चंद्रधर शर्मा ‘गुलेरी’ जी, जयशंकर प्रसाद जी, मुंशी प्रेमचंद जी, माखनलाल चतुर्वेदी जी, सुदर्शन, यशपाल, रामवृक्ष बेनीपुरी जी का है। उतना ही योगदान लघुकथा को आगे ले जाने में उनके बाद की पीढ़ीयों का भी है। जिनमे हम अब डॉ ओम प्रकाश केसरी ‘पवननन्दन’ जी का नाम शान से ले सकते हैं।
लघुकथा शब्द का निर्माण लघु और कथा से मिलकर हुआ है। अर्थात लघुकथा गद्य की एक ऐसी विधा है जो आकार में लघु है और उसमे कथा तत्व विद्यमान है। अर्थात लघुता ही इसकी मुख्य पहचान है। जिस प्रकार उपन्यास खुली आंखों से देखी गयी घटनाओं का, परिस्थितियों का संग्रह होता है, उसी प्रकार कहानी दूरबीनी दृष्टि से देखी गयी किसी घटना या घटनाओं का वर्णन करती है।
मगर इसके ठिक विपरीत लघुकथा के लिए माइक्रोस्कोपिक दृष्टि की आवश्यकता पड़ती है। इस क्रम में किसी घटना या किसी परिस्थिति का एक विशेष और महीनता से विलक्षण पल को शिल्प तथा कथ्य के लेंसों से कई गुना बड़ा कर एक उभार दिया जाता है। किसी बहुत बड़े घटनाक्रम में से किसी विशेष क्षण को चुनकर उसे हाइलाइट करने का नाम ही लघुकथा है। जैसे ; पवननन्दन जी की यह पुस्तक ‘चरित्र और कलम’ की कहानी “पारस”, “समझ”, “पैसे की मार”, “फालतू”, इसी क्रम में आती हैं।
हाँ “छड़ी” भी इस क्रम में आती है मगर…
आदरणीय श्री पवननन्दन जी जहाँ तक हमारा मानना है… लघुकथा का मतलब कतई छोटी कहानी से नहीं है, लघु कथा में लघु और कथा के बीच में एक खाली स्थान होता है…और यह स्थान सिर्फ पाठको के लिए है। जैसे… छड़ी की अंतिम पंक्ति “क्योंकि मैं खुद दादाजी का(की)
छड़ी बन जाऊंगा….।” मेरी समझ से कहानी यहीं खत्म हो जानी चाहिए। क्यूंकि इसके बाद का खाली स्थान पाठकों के लिए है। उसी तरह…
“मरता क्या न करता” में भी….अंतिम पंक्ति से पहले ही कहानी पाठको के मध्य एक सवाल छोड़ कर निकल जाती।
“कैटेरिया” को हम व्यंग की श्रेणी में रख सकते हैं।
“अंतर” को हम आज के परिवेश के संस्कार की गाल पर तमाचा कह सकते हैं।
“फोटो” ने आज के सेल्फी समाज को एक नई दिशा प्रदान करने की कोशिश की है।
एक सी परिस्थिति के दो अलग बिन्दुओ को छूती दो अलग कहानियां ‘आड़े वक़्त’ एवं ‘अंगूठा दिखा दिया’
वैसे तो अध्यक्ष जी आप सभी हमसे बड़े हैं, विद्वान हैं एवं गुरू समान हैं…मगर मैं अपनी कुछ बातें आपकी आज्ञा से रखना चाहूंगा।
हम लघुकथा को कुछ आसानी से समझने के लिए शादी के एल्बम का उदाहरण लेते हैं।
शादी के एल्बम में उपन्यास की तरह ही कई अध्याय होते हैं, तिलक, मेहंदी, हल्दी, शगुन, बरात, फेरे-विदाई, रिसेप्शन आदि आदि।
ये सभी अध्याय स्वयं में अलग-अलग कहानियों की तरह स्वतंत्र इकाइयां होते हैं। लेकिन इसी एल्बम के किसी अध्याय में कई लघुकथाएं विद्यमान हो सकती हैं। कई क्षण ऐसे हो सकते हैं जो लघुकथा की मूल भावना के अनुसार होते हैं। जैसे ; “तो बाकी क्या रह गया” जो इसी पुस्तक की एक लघुकथा है।
यही वे क्षण हैं जो लघुकथा हैं। स्थूल में सूक्ष्म ढूंढ लेने की कला ही लघुकथा है। भीड़ के शोर-शराबे में भी किसी नन्हें बच्चे की खनखनाती हुई हंसी को साफ साफ सुन लेना लघुकथा है। भूसे के ढेर में से सुई ढूंढ लेने की कला का नाम लघुकथा है।
लघुकथा विसंगतियों की कोख से उत्पन्न होती है। हर घटना या हर समाचार लघुकथा का रूप धारण नहीं कर सकता। किसी विशेष परिस्थिति या घटना को जब लेखक अपनी रचनाशीलता और कल्पना का पुट देकर कलमबंद करता है तब एक लघुकथा का खाका तैयार होता है। जैसे; “पैसा बोल दिया”, “मन्दिर”, “वक्त की नजाकत ” आदि।
लघुकथा एक बेहद नाजुक सी विधा है। एक भी अतिरिक्त वाक्य या शब्द इसकी सुंदरता पर कुठाराघात कर सकता है। उसी तरह ही किसी एक किन्तु अत्यंत महत्वपूर्ण शब्द की कमी इसे विकलांग भी बना सकती है। अत: लघुकथा में केवल वही कहा जाता है, जितने की आवश्यक होती है।
दरअसल लघुकथा किसी बहुत बड़े परिदृश्य में से एक विशेष क्षण को चुरा लेने का नाम है। लघुकथा को अक्सर एक आसान विधा मान लेने की गलती कर ली जाती है, जबकि वास्तविकता बिलकुल इसके विपरीत है। लघुकथा लिखना गद्य साहित्य की किसी भी विधा में लिखने से थोड़ा मुश्किल ही होता है, क्योंकि रचनाकार के पास बहुत ज्यादा शब्द खर्च करने की स्वतंत्रता बिलकुल नहीं होती। शब्द कम होते हैं, लेकिन बात भी पूरी कहनी होती है। और सन्देश भी शीशे की तरह साफ देना होता है। इसलिए एक लघुकथाकार को बेहद सावधान और सजग रहना पड़ता है। यहाँ पवननन्दन जी निश्चय ही बधाई के पात्र हैं।
अध्यक्ष जी !
दुर्भाग्य से आजकल लघुकथा के नाम पर समाचार, बतकही, किस्सागोई यहां तक कि चुटकुले भी परोसे जा रहे हैं। यहाँ भी पवननन्दन जी साफ और स्वच्छ लेखनी के लिए बधाई के पात्र हैं।
अब कुछ बातें पुस्तक के संदर्भ में…. पुस्तक सही मायने में सच बोलती नजर आती है, मगर परिस्थिति से बंधी होने की वजह से उसकी सच्चाई कहीं कहीं खलती है।
जैसे –
1- पत्रिकाओं की भांति पुस्तक में प्रचार का होना।
2- “अपनों से अपनी बात” के अंत में लेखक का नाम का ना होना।
3- अनुक्रमणिका में कथाओं के क्रमांक का स्पष्ट ना होना।
4- दीपक पाण्डेय जी की ‘शुभकामना एवं साधुवाद’ एवं महेश जी द्वारा लिखित ‘साहीत्योलोचन’ में सिर्फ ‘गुलदस्ता’ का उल्लेख है। यहां नई पुस्तक का उल्लेख ना होना थोड़ा खल जाता है।
इस पुस्तक की भूमिका परम आदरणीय प्रबुद्ध साहित्यकार एवं वरिष्ठ अधिवक्ता और मेरे पूजनीय श्री रामेश्वर प्रसाद वर्मा जी ने लिखा है। जिनकी स्पष्टवादी विचार, वाणी एवं लेखनी का मैं सदैव से कायल रहा हूँ। और इनके जैसा बनने की इच्छा सदैव मेरे मन में प्रज्वलित रहती है। अतः भूमिका पर कुछ भी कहने का मतलब सूरज को दिया दिखाने के समान होगा।
भड़ास निकालती डॉ पवननंदन की लघुकथाए के माध्यम से आदरणीय श्री अतुल मोहन प्रसाद जी ने पूरी बात ही कह दि है। इस पर भी कुछ कहना “पीढ़ा चढ़ ऊंच” वाली कहावत को चरित्रार्थ करना होगा।
और अंत में; डॉ ओम प्रकाश केसरी ‘पवननंदन’ जी को उनकी खुबसूरत पुस्तक “चरित्र और कलम” के लिए, मैं बधाई देता हूँ, और आशा करता हूँ की ऐसी ही सुन्दर और समाज को जवाब देती लघुकथा संग्रह से हमारी जल्द मुलाकात होगी।
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