November 22, 2024

आधुनिक हिंदी साहित्य के पितामह कहे जाने वाले भारतेन्दु हिन्दी में आधुनिकता के पहले रचनाकार थे। जिस समय भारतेन्दु हरिश्चन्द्र का अविर्भाव हुआ था, उस समय हिंदुस्तान ग़ुलामी की जंजीरों में जकड़ा हुआ था। अंग्रेज़ी चरमोत्कर्ष पर थी। शासन तंत्र से सम्बन्धित सम्पूर्ण कार्य अंग्रेज़ी में ही हो रहा था। अंग्रेज़ी हुकूमत में लालच और पद लोलुपता की भावना प्रबल थी। सही मायनों में कहें तो आज ही की भांति उस समय भी भारतीयों में विदेशी सभ्यता के प्रति बेहद आकर्षण था। ब्रिटिश आधिपत्य में लोग अंग्रेज़ी पढ़ना और समझना गौरव की बात समझते थे। हिन्दी के प्रति लोगों में आकर्षण कम था, क्योंकि अंग्रेज़ी की नीति से हमारे साहित्य पर बुरा असर पड़ रहा था। हम ग़ुलामी का जीवन जीने के लिए मजबूर किये जा रहे थे। हमारी संस्कृति के साथ खिलवाड़ किया जा रहा था। ऐसे विषैले वातावरण में बाबू हरिश्चन्द्र अवतरित हुए तो उन्होंने सर्वप्रथम समाज और देश की दशा और दिशा पर गहन अध्ययन किया और फिर अपनी लेखनी के माध्यम से विदेशी हुकूमत का परत दर परत पर्दाफ़ाश किया।

परिचय…

युग प्रवर्तक बाबू भारतेन्दु हरिश्चन्द्र जी का जन्म काशी नगरी के प्रसिद्ध सेठ अमीचंद अथवा अमीरचंद के वंश में ९ सितम्बर, सन् १८५० को हुआ। इनके पिता बाबू गोपाल चन्द्र जी भी एक कवि थे। इनके घराने में वैभव एवं प्रतिष्ठा थी। जब इनकी अवस्था मात्र ५ वर्ष की रही होगी कि इनकी माता चल बसीं और दस वर्ष की आयु में पिताजी भी चल बसे। भारतेन्दु जी विलक्षण प्रतिभा के व्यक्ति थे। इन्होंने अपने परिस्थितियों से गम्भीर प्रेरणा ली। इनके मित्र मण्डली में बड़े-बड़े लेखक, कवि एवं विचारक थे, जिनकी बातों से ये प्रभावित थे। इनके पास विपुल धनराशि थी, जिसे इन्होंने साहित्यकारों की सहायता हेतु मुक्त हस्त से दान किया। इनकी साहित्यिक मण्डली के प्रमुख कवि थे, पं. बालकृष्ण भट्ट, पं. प्रताप नारायण मिश्र, पं. बदरीनारायण उपाध्याय ‘प्रेमधन’ आदि।

बाबू हरिश्चन्द्र बाल्यकाल से ही परम उदार थे। यही कारण था कि इनकी उदारता लोगों को आकर्षित करती थी। इन्होंने विशाल वैभव एवं धनराशि को विविध संस्थाओं को दिया है। इनकी विद्वता से प्रभावित होकर ही विद्वतजनों ने इन्हें ‘भारतेन्दु’ की उपाधि प्रदान की। अपनी उच्चकोटी के लेखन कार्य के माध्यम से ये दूर-दूर तक जाने जाते थे। इनकी कृतियों का अध्ययन करने पर आभास होता है कि इनमें कवि, लेखक और नाटककार बनने की जो प्रतिभा थी, वह अदभुत थी। ये बहुमुखी प्रतिभा से सम्पन्न साहित्यकार थे।

कृतियाँ…

यद्यपि भारतेन्दु जी विविध भाषाओं में रचनायें करते थे, किन्तु ब्रजभाषा पर इनका असाधारण अधिकार था। इस भाषा में इन्होंने अदभुत श्रृंगारिकता का परिचय दिया है। इनका साहित्य प्रेममय था, क्योंकि प्रेम को लेकर ही इन्होंने अपने ‘सप्त संग्रह’ प्रकाशित किए हैं। प्रेम माधुरी इनकी सर्वोत्कृष्ट रचना है। जिसकी कुछ पंक्तियाँ निम्नवत हैं–

मारग प्रेम को समुझै ‘हरिश्चन्द्र’ यथारथ होत यथा है

लाभ कछु न पुकारन में बदनाम ही होन की सारी कथा है।

जानत ही जिय मेरौ भली विधि और उपाइ सबै बिरथा है।

बावरे हैं ब्रज के सिगरे मोंहि नाहक पूछत कौन बिथा है।

भारतेन्दु जी अत्यन्त कम अवस्था से ही रचनाएँ करने लगे थे। इन्होंने नाटक के क्षेत्र में भी अत्यन्त महत्त्वपूर्ण योगदान प्रदान किया है। इनके प्रमुख नाटक और रचनायें निम्नवत हैं–

नाटक…

१. वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति (१८७३ ई. प्रहसन)

२. सत्य हरिश्चन्द्र (१८७५, नाटक)

३. श्री चंद्रावली (१८७६, नाटिका)

४. विषस्य विषमौषधम् (१८७६, भाण)

५. भारत दुर्दशा (१८८०, ब्रजरत्नदास के अनुसार १८७६, नाट्य रासक)

६. नीलदेवी (१८८१, ऐतिहासिक गीति रूपक)

७. अंधेर नगरी (१८८१, प्रहसन)

८. प्रेमजोगिनी (१८७५, प्रथम अंक में चार गर्भांक, नाटिका)

९. सती प्रताप (१८८३,अपूर्ण, केवल चार दृश्य, गीतिरूपक, बाबू राधाकृष्णदास ने पूर्ण किया)

अनूदित नाट्य रचनाएँ…

१. विद्यासुन्दर (१८६८,नाटक, संस्कृत ‘चौरपंचाशिका’ के यतीन्द्रमोहन ठाकुर कृत बँगला संस्करण का हिंदी अनुवाद)

२. पाखण्ड विडम्बन (कृष्ण मिश्र कृत ‘प्रबोधचंद्रोदय’ नाटक के तृतीय अंक का अनुवाद)

३. धनंजय विजय (१८७३, व्यायोग, कांचन कवि कृत संस्कृत नाटक का अनुवाद)

४. कर्पूर मंजरी (१८७५, सट्टक, राजशेखर कवि कृत प्राकृत नाटक का अनुवाद)

५. भारत जननी (१८७७,नाट्यगीत, बंगला की ‘भारतमाता’के हिंदी अनुवाद पर आधारित)

६. मुद्राराक्षस (१८७८, विशाखदत्त के संस्कृत नाटक का अनुवाद)

७. दुर्लभ बंधु (१८८०, शेक्सपियर के ‘मर्चेंट ऑफ वेनिस’ का अनुवाद)

निबंध संग्रह…

१. नाटक

२. कालचक्र (जर्नल)

३. लेवी प्राण लेवी

४. भारतवर्षोन्नति कैसे हो सकती है?

५. कश्मीर कुसुम

६. जातीय संगीत

७. संगीत सार

८. हिंदी भाषा

९. स्वर्ग में विचार सभा

काव्यकृतियां…

१. भक्तसर्वस्व (१८७०)

२. प्रेममालिका (१८७१)

३. प्रेम माधुरी (१८७५)

४. प्रेम-तरंग (१८७७)

५. उत्तरार्द्ध भक्तमाल (१८७६-७७)

६. प्रेम-प्रलाप (१८७७)

७. होली (१८७९)

८. मधु मुकुल (१८८१)

९. राग-संग्रह (१८८०)

१०. वर्षा-विनोद (१८८०)

११. विनय प्रेम पचासा (१८८१)

१२. फूलों का गुच्छा- खड़ीबोली काव्य (१८८२)

१३. प्रेम फुलवारी (१८८३)

१४. कृष्णचरित्र (१८८३)

१५. दानलीला

१६. तन्मय लीला

१७. नये ज़माने की मुकरी

१८. सुमनांजलि

१९. बन्दर सभा (हास्य व्यंग्य)

२०. बकरी विलाप (हास्य व्यंग्य)

कहानी…

अद्भुत अपूर्व स्वप्न

यात्रा वृत्तान्त…

सरयूपार की यात्रा

लखनऊ

आत्मकथा…

एक कहानी- कुछ आपबीती, कुछ जगबीती

उपन्यास…

पूर्णप्रकाश

चन्द्रप्रभा

साहित्यिक सेवाएँ…

हरिश्चन्द्र जी बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। अत: उन्होंने साहित्य के हर क्षेत्र में काम किया है। कविता, नाटक, निबन्ध, व्याख्यान आदि पर उन्होंने कार्य किया। ‘सुलोचना’ आपका प्रमुख आख्यान है। ‘बादशाह दर्पण’ आपका इतिहास की जानकारी प्रदान करने वाला ग्रन्थ है। इन्होंने संयोग का बड़ा ही सजीव एवं सुन्दर चित्रण किया है–

रोकत है तो अमंगल होय, और प्रेम नसै जो कहैं प्रिय जाइए।

जो कहें जाहु न, तो प्रभुता, जो कछु न कहैं तो सनेह नसाइए।

जो हरिश्चन्द्र कहैं, तुमरे बिन, जियें न तो यह क्यों पतियाइए।

तासो पयान समै तुझसौं हम का कहैं प्यारे हमें समझाइए।।

भारत की विभिन्नता पर खिनता व्यक्त की है– हिन्दी के उत्थान के लिए कहना है कि,

भारत में सब भिन्न अति,

ताहीं सों उत्पात।

विविध बेस मतहूं विविध

भाषा विविध लखात।

अंग्रेज़ी पढ़ कै जदपि,

सब गुन होत प्रवीन।

पै निज भाषा ज्ञान बिन

रहत हीन कै हीन।

निजभाषा उन्नति अहै,

सब उन्नति को भूल।

बिन निज भाषा ज्ञान के

मिटे न हिय को सूल।

भारतेन्द्र जी ने भक्ति प्रधान एवं श्रृंगारयुक्त रचनाएँ की हैं। उनमें अपने देश के प्रति बहुत बड़ी निष्ठा थी, उन्होंने सामाजिक समस्याओं के उन्मूलन की बात की है, उनकी भक्ति प्रधान रचनाएँ घनानंद एवं रसखान की रचनाओं की कोटि की हैं। उन्होंने संयोग की अपेक्षा वियोग पर विशेष बल दिया है। उन्होंने माँ सरस्वती की साधना में अपना धन पानी की तरह बहाया और साहित्य को समृद्ध किया। उन्होंने अनेक पत्र-पत्रिकाओं का सम्पादन किया। जीवन का अन्तिम दौर आर्थिक तंगी से गुजरा, क्योंकि धन का उन्होंने बहुत बड़ा भाग साहित्य समाज सेवा के लिए लगाया। ये भाषा की शुद्धता के पक्ष में थे। इनकी भाषा बड़ी परिष्कृत एवं प्रवाह से भरी है। भारतेन्दु जी की रचनाओं में उनकी रचनात्मक प्रतिभा को भली प्रकार देखा जा सकता है।

भारतेन्दु जी ने अपनी प्रतिभा के बल पर हिन्दी साहित्य के क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण योगदान प्रदान किया है। हिन्दी गद्य साहित्य को इन्होंने विशेष समृद्धि प्रदान की है। इन्होंने दोहा, चौपाई, छन्द, बरवै, हरिगीतिका, कवित्त एवं सवैया आदि पर काम किया। इन्होंने न केवल कहानी और कविता के क्षेत्र में कार्य किया अपितु नाटक के क्षेत्र में भी विशेष योगदान दिया। किन्तु नाटक में पात्रों का चयन और भूमिका आदि के विषय में इन्होंने सम्पूर्ण कार्य स्वयं के जीवन के अनुभव से सम्पादित किया है। निष्कर्ष के रूप में यह कहा जा सकता है कि बाबू हरिश्चन्द्र बहुमुखी प्रतिभा से सम्पन्न थे। उन्होंने समाज और साहित्य का प्रत्येक कोना झाँका है। अर्थात् साहित्य के सभी क्षेत्रों में उन्होंने कार्य किया है। किन्तु यह ख़ेद का ही विषय है कि ३५ वर्ष की अल्पायु में ही वे स्वर्गवासी हो गये थे। यदि ऐसा न होता तो सम्भवत: हिन्दी साहित्य का कहीं और ज़्यादा विकास हुआ होता। यह उनके व्यक्तित्व की ही विशेषता थी कि वे कवि, लेखक, नाटककार, साहित्यकार एवं सम्पादक सब कुछ थे। हिन्दी साहित्य को पुष्ट करने में आपने जो योगदान प्रदान किया है वह सराहनीय है तथा हिन्दी जगत् आप की सेवा के लिए सदैव ऋणी रहेगा। इन्होंने अपने जीवन काल में लेखन के अलावा कोई दूसरा कार्य नहीं किया। तभी तो ३५ वर्ष की अल्पायु में ही ७२ ग्रन्थों की रचना करना सम्भव हो सकता था। इन्होंने छोटे एवं बड़े सभी प्रकार के ग्रन्थों का प्रणयन किया है। इस प्रकार से यह कहा जा सकता है कि हिन्दी के प्रचार एवं प्रसार में इनका महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है और अपने कार्यों से इन्होंने हिन्दी साहित्य के क्षेत्र में सदा के लिए स्थायी रूप से स्थान बनाया है। अपनी विशिष्ट सेवाओं के कारण ही ये आधुनिक हिन्दी साहित्य के आधुनिक काल के प्रवर्तक कहे जाते हैं। पंत जी ने इनके बारे में ठीक ही कहा है-

भारतेन्दु कर गये,

भारती की वीणा निर्माण।

किया अमर स्पर्शों में,

जिसका बहु विधि स्वर संधान।

अत: यह कहा जा सकता है कि बाबू हरिश्चन्द्र जी हिन्दी साहित्य के आकाश के एक देदीप्यमान नक्षत्र थे। उनके द्वारा हिन्दी साहित्य में दिया गया योगदान महत्त्वपूर्ण एवं सराहनीय है।

वर्ण्य विषय…

भारतेंदु जी की यह विशेषता रही कि जहां उन्होंने ईश्वर भक्ति आदि प्राचीन विषयों पर कविता लिखी वहां उन्होंने समाज सुधार, राष्ट्र प्रेम आदि नवीन विषयों को भी अपनाया। भारतेंदु की रचनाओं में अंग्रेजी शासन का विरोध, स्वतंत्रता के लिए उद्दाम आकांक्षा और जातीय भावबोध की झलक मिलती है। सामन्ती जकड़न में फंसे समाज में आधुनिक चेतना के प्रसार के लिए लोगों को संगठित करने का प्रयास करना उस जमाने में एक नई ही बात थी। उनके साहित्य और नवीन विचारों ने उस समय के तमाम साहित्यकारों और बुद्धिजीवियों को झकझोरा और उनके इर्द-गिर्द राष्ट्रीय भावनाओं से ओत-प्रोत लेखकों का एक ऐसा समूह बन गया जिसे भारतेन्दु मंडल के नाम से जाना जाता है।

विषय के अनुसार उनकी कविता शृंगार-प्रधान, भक्ति-प्रधान, सामाजिक समस्या प्रधान तथा राष्ट्र प्रेम प्रधान है।

शृंगार रस प्रधान भारतेंदु जी ने शृंगार के संयोग और वियोग दोनों ही पक्षों का सुंदर चित्रण किया है। वियोगावस्था का एक चित्र देखिए…

देख्यो एक बारहूं न नैन भरि तोहि याते

जौन जौन लोक जैहें तही पछतायगी।

बिना प्रान प्यारे भए दरसे तिहारे हाय,

देखि लीजो आंखें ये खुली ही रह जायगी।

भक्ति प्रधान भारतेंदु जी कृष्ण के भक्त थे और पुष्टि मार्ग के मानने वाले थे। उनको कविता में सच्ची भक्ति भावना के दर्शन होते हैं। वे कामना करते हैं…

बोल्यों करै नूपुर स्त्रीननि के निकट सदा

पद तल मांहि मन मेरी बिहरयौ करै।

बाज्यौ करै बंसी धुनि पूरि रोम-रोम,

मुख मन मुस्कानि मंद मनही हास्यौ करै।

सामाजिक समस्या प्रधान भारतेंदु जी ने अपने काव्य में अनेक सामाजिक समस्याओं का चित्रण किया। उन्होंने समाज में व्याप्त कुरीतियों पर तीखे व्यंग्य किए। महाजनों और रिश्वत लेने वालों को भी उन्होंने नहीं छोड़ा…

चूरन अमले जो सब खाते,

दूनी रिश्वत तुरत पचाते।

चूरन सभी महाजन खाते,

जिससे जमा हजम कर जाते।

राष्ट्र-प्रेम प्रधान भारतेंदु जी के काव्य में राष्ट्र-प्रेम भी भावना स्पष्ट दृष्टिगोचर होती है। भारत के प्राचीन गौरव की झांकी वे इन शब्दों में प्रस्तुत करते हैं…

भारत के भुज बल जग रच्छित,

भारत विद्या लहि जग सिच्छित।

भारत तेज जगत विस्तारा,

भारत भय कंपिथ संसारा।

प्राकृतिक चित्रण प्रकृति चित्रण में भारतेंदु जी को अधिक सफलता नहीं मिली, क्योंकि वे मानव-प्रकृति के शिल्पी थे, बाह्य प्रकृति में उनका मर्मपूर्ण रूपेण नहीं रम पाया। अतः उनके अधिकांश प्रकृति चित्रण में मानव हृदय को आकर्षित करने की शक्ति का अभाव है। चंद्रावली नाटिका के यमुना-वर्णन में अवश्य सजीवता है तथा उसकी उपमाएं और उत्प्रेक्षाएं नवीनता लिए हुए हैं…

कै पिय पद उपमान जान यह निज उर धारत,

कै मुख कर बहु भृंगन मिस अस्तुति उच्चारत।

कै ब्रज तियगन बदन कमल की झलकत झांईं,

कै ब्रज हरिपद परस हेतु कमला बहु आईं॥

प्रकृति वर्णन का यह उदहारण देखिये, जिसमे युमना की शोभा कितनी दर्शनीय है…

तरनि तनूजा तट तमाल तरुवर बहु छाये ।

झुके कूल सों जल परसन हित मनहूँ सुहाये॥

भाषा…

जैसा हमने ऊपर कहा है कि भारतेंदु जी की लड़ाई शुरू शुरू में अंग्रेजी से शुरू हुई थी जबकि उनके समय में राजकाज और संभ्रांत वर्ग की भाषा फारसी थी। साहित्य में ब्रजभाषा का बोलबाला था। फारसी के प्रभाव वाली उर्दू भी चलन में आ गई थी। ऐसे समय में भारतेन्दु ने लोकभाषाओं और फारसी से मुक्त उर्दू को आधार बनाकर खड़ी बोली का विकास किया। आज जो हिंदी हम लिखते-बोलते हैं, वह भारतेंदु जी की ही देन है। यही कारण है कि उन्हें आधुनिक हिंदी का जनक माना जाता है। केवल भाषा ही नहीं, साहित्य में उन्होंने नवीन आधुनिक चेतना का समावेश किया और साहित्य को ‘जन’ से जोड़ा।

भारतेन्दु हरिश्चन्द्र की रचनाधर्मिता में दोहरापन दिखता है। कविता जहां वे ब्रज भाषा में लिखते रहे, वहीं उन्होंने बाकी विधाओं में सफल हाथ खड़ी बोली में आजमाया। सही मायने में कहें तो भारतेंदु आधुनिक खड़ी बोली गद्य के उन्नायक हैं।

भारतेन्दु जी के काव्य की भाषा प्रधानतः ब्रज भाषा है। उन्होंने ब्रज भाषा के अप्रचलित शब्दों को छोड़ कर उसके परिकृष्ट रूप को अपनाया। उनकी भाषा में जहां-तहां उर्दू और अंग्रेज़ी के प्रचलित शब्द भी जाते हैं।

उनके गद्य की भाषा सरल और व्यवहारिक है। मुहावरों का प्रयोग कुशलतापूर्वक हुआ है।

शैली…

विद्वानों के अनुसार भारतेंदु जी के काव्य में निम्नलिखित शैलियों के दर्शन होते हैं…

१. रीति कालीन रसपूर्ण अलंकार शैली – शृंगारिक कविताओं में,

२. भावात्मक शैली – भक्ति के पदों में,

३. व्यंग्यात्मक शैली – समाज-सुधार की रचनाओं में,

४. उद्बोधन शैली – देश-प्रेम की कविताओं में।

रस…

भारतेंदु जी ने लगभग सभी रसों में कविता की है। शृंगार और शान्त रसों की प्रधानता है। शृंगार के दोनों पक्षों का भारतेंदु जी ने सुंदर वर्णन किया है। उनके काव्य में हास्य रस की भी उत्कृष्ट योजना मिलती है।

छन्द…

भारतेंदु जी ने अपने समय में प्रचलित प्रायः सभी छंदों को अपनाया है। उन्होंने केवल हिंदी के ही नहीं उर्दू, संस्कृत, बंगला भाषा के छंदों को भी स्थान दिया है। उनके काव्य में संस्कृत के वसंत तिलका, शार्दूल विक्रीड़ित, शालिनी आदि हिंदी के चौपाई, छप्पय, रोला, सोरठा, कुंडलियाँ, कवित्त, सवैया, घनाक्षरी आदि, बंगला के पयार तथा उर्दू के रेखता, ग़ज़ल छंदों का प्रयोग हुआ है। इनके अतिरिक्त भारतेंदु जी कजली, ठुमरी, लावनी, मल्हार, चैती आदि लोक छंदों को भी व्यवहार में लाए हैं।

अलंकार…

अलंकारों का प्रयोग भारतेंदु जी के काव्य में सहज रूप से हुआ है। उपमा, उत्प्रेक्षा, रूपक और संदेह अलंकारों के प्रति भारतेंदु जी की अधिक रुचि है। शब्दालंकारों को भी स्थान मिला है। निम्न पंक्तियों में उत्प्रेक्षा और अनुप्रास अलंकार की योजना स्पष्ट दिखाई देती है:

तरनि तनूजा तट तमाल तरुवर बहु छाए।

झुके कूल सों जल परसन हित मनहु सुहाए॥

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