एक बार भक्तिसिद्धांत ठाकुर सरस्वती जी ने अपने एक शिष्य अभयचरण डे से कहा, “अभय तुम तुम युवा हो, तेजस्वी हो, कृष्ण भक्ति का विदेश में प्रचार -प्रसार करो साथ ही तुम गीता के अमृत वचनों को पूरे संसार में बाटों।” आदेश का पालन करने के लिए अभयचरण डे ने ५९ वर्ष की आयु में संन्यास ले लिया और गुरु आज्ञा पूर्ण करने का प्रयास करने लगे।
अभयचरण डे का जन्म ०१ सितम्बर, १८९६ में कलकत्ता के एक बंगाली कायस्थ परिवार में हुआ था। भक्तिसिद्धांत ठाकुर सरस्वती जी से मिलने के बाद उन्होंने श्रीमद्भग्वद्गीता पर एक टिप्पणी लिखी और गौड़ीय मठ के कार्य में सहयोग देने लगे। १९४४ की बात है उन्होंने बिना किसी के सहयोग के अंगरेजी गीता लेखन का कार्य आरंभ किया। तत्पश्चात उसके संपादन, टंकण और परिशोधन यानि प्रूफ रीडिंग तक का कार्य भी स्वयं ही किया। उन्होंने गीता की प्रतियाँ निःशुल्क बांटने लगे साथ ही इसके प्रकाशन कार्य को लगातार जारी रखा। उन्होंने भुलाए जा चुके वेदान्त को सहज भक्ति के द्वारा, सरलता पूर्वक हृदयंगम करने का एक परंपरागत मार्ग पुनः प्रतिस्थापित किया। जिसके लिए सन् १९४७ में गौड़ीय वैष्णव समाज ने इन्हें भक्तिवेदान्त की उपाधि से सम्मानित किया।
सन् १९५९ में सन्यास ग्रहण के पश्चात उन्होंने वृंदावन में श्रीमदभागवतपुराण का अंग्रेजी में अनेक खंडों में अनुवाद किया। प्रारंभ के तीन खंड प्रकाशित करने के पश्चात १९६५ में अपने गुरुदेव के आज्ञानुसार उनके अनुष्ठान को संपन्न करने के लिए ७० वर्ष की आयु में वे बिना धन या किसी सहायता के अमेरिका जाने के लिए निकल पड़े।
अब सोचने वाली बात यह है, कोई बिना दमड़ी और काली चमड़ी के अमेरीका जाएगा और वहां उसे हाँथ फैला कर स्वागत किया जाएगा….? ? ? ? और वह कार्य तब और भी दुष्कर हो जाएगा जब पोप के साम्राज्य में कोई व्यक्ति अपने धर्म के प्रचार के लिए गया हो। मगर अभयचरण डे ने इन सारे ब्यवधानो को ही अपना साधन बनाया।
१९६० के दशक के मध्य में संयुक्त राज्य अमेरिका में ‘हिप्पी’ उप-संस्कृति बड़ी तेजी से उभरा और उतनी ही तेजी से दुनिया के अन्य देशों में फ़ैल गया। मूल रूप से यह युवाओं का एक आंदोलन था। ‘हिप्पी’ शब्द की व्युत्पत्ति हिप्स्टर से हुई है, शुरुआत में इसका इस्तेमाल बीटनिकों (परंपराओं का विरोध करने वाले लोग) को सन्दर्भित करने के लिए किया जाता था जो न्यूयॉर्क शहर के ग्रीनविच विलेज और सैन फ्रांसिस्को के हाईट – ऐशबरी जिले में जाकर बस गए थे। हिप्पी की शुरुआती विचारधारा में बीट पीढ़ी के सांस्कृतिक विरोधी मूल्य रूप से शामिल थे। कुछ लोगों ने अपने स्वयं के सामाजिक समूहों और समुदायों का निर्माण किया जो मनोविकृतिकारी रॉक धुनों को तेज आवाज में सुनते थे, यौन क्रांति को अंगीकार करते थे और चेतना की वैकल्पिक अवस्थाओं को प्राप्त करने के लिए मारिजुआना एवं एलएसडी जैसी नशीली दवाओं का सेवन करते थे। अभयचरण डे ने सामाजिक एवं सांस्कृतिक विरोधी मनोविकारों से लिप्त हिप्पियों को सुधारने का जिम्मा उठाया। जहाँ एक तरफ हिप्पी संस्कृति पूरी दुनियां में दीमक की भांति समाज को खोखला करती जा रही थी, वहीं डे ने उन्हें सही रास्ते पर लाने के लिए कमर कस रखी थी। अभयचरण डे उनके बीच रहा करते थे, मगर हर वक्त उन्हें परेशानियों का सामना करना पड़ता, कभी भूखे प्यासे तो कभी हाथापाई तो कभी… कुछ ! ! ! ! दिन गुजरते गए… महीने साल भी गुजरे।
मांस, मदिरा, नशा, यौन विकारों और तेज आवाज की रौक धुनों के बीच डे ने दस साल कैसे गुजारे होंगे यह हम कल्पना भी नहीं कर सकते। मगर इस बीच कुछ अच्छी बाते भी हुईं जैसे, १९६६ में उन्होंने अंतर्राष्ट्रीय कृष्णभावनामृत संघ (ISKCON) की स्थापना की। १९६८ में प्रयोग के तौर पर उन्होंने वर्जीनिया (अमेरिका) की पहाड़ियों में नव -वृन्दावन की स्थापना की। दो हज़ार एकड़ के इस समृद्ध कृषि क्षेत्र से प्रभावित होकर उनके शिष्यों ने (जो पूर्व के हिप्पी रहे थे) अन्य जगहों पर भी ऐसे समुदायों की स्थापना की। अभयचरण डे ने इन्हीं हिप्पियों को साथ लेकर १९७२ में टेक्सस के डैलस में गुरुकुल की स्थापना कर प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा की वैदिक प्रणाली का सूत्रपात किया। १९६६ से १९७७ तक उन्होंने १४ बार पूरे विश्व का भ्रमण किया तथा अनेक विद्वानों से कृष्णभक्ति के विषय में वार्तालाप करके उन्हें यह समझाया की कैसे कृष्ण भावना ही जीव की वास्तविक भावना है। उन्होंने विश्व की सबसे बड़ी आध्यात्मिक पुस्तकों की प्रकाशन संस्था – भक्तिवेदांत बुक ट्रस्ट – की स्थापना भी की। कृष्णभावना के वैज्ञानिक आधार को स्थापित करने के लिए उन्होंने भक्तिवेदांत इंस्टिट्यूट की भी स्थापना की।
अब तो आप यह जान ही चुके होंगे की हम किनकी बात कर रहे हैं। जी हाँ आप सही समझे… अभयचरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद जी की जो अंतर्राष्ट्रीय कृष्णभावनामृत संघ (ISKCON) के संस्थापकाचार्य हैं। भक्तिवेदांत स्वामी जी का सबसे महत्वपूर्ण योगदान उनकी पुस्तकें हैं। भक्तिवेदांत स्वामी जी ने ६० से अधिक संस्करणों का अनुवाद किया। वैदिक शास्त्रों – भगवद गीता, चैतन्य चरितामृत और श्रीमद्भागवतम् – का अंग्रेजी भाषा में अनुवाद किया। इन पुस्तकों का अनुवाद अब तक ८० से अधिक भाषाओँ में हो चूका है और दुनिया भर में इन पुस्तकों का वितरण हो रहा है। जानकारों की मानें तो ५५ करोड़ से अधिक वैदिक साहित्यिक पुस्तकों का वितरण हो चूका है।
भक्तिवेदांत बुक ट्रस्ट की स्थापना सन १९७२ में स्वामी जी कार्यों को प्रकाशित करने के लिए की गई थी। आज अंतर्राष्ट्रीय कृष्णभावनामृत संघ यानी इस्कॉन (International Society for Krishna Consciousness – ISKCON) को “हरे कृष्ण आन्दोलन” के नाम से भी जाना जाता है। अथक प्रयासों के बाद सत्तर वर्ष की आयु में स्वामी जी ने न्यूयॉर्क में कृष्णभवनामृत संघ की स्थापना की। न्यूयॉर्क से प्रारंभ हुई कृष्ण भक्ति की निर्मल धारा शीघ्र ही विश्व के कोने-कोने में बहने लगी। कई देश हरे रामा-हरे कृष्णा के पावन भजन से गुंजायमान होने लगे। अपने साधारण नियम और सभी जाति -धर्म के प्रति समभाव के चलते आज इस मंदिर के अनुयायीयों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है। हर वह व्यक्ति जो कृष्ण में लीन होना चाहता है, उनका यह मंदिर स्वागत करता है। स्वामी प्रभुपादजी के अथक प्रयासों के कारण दस वर्ष के अल्प समय में ही समूचे विश्व में १०८ मंदिरों का निर्माण हो चुका था। इस समय इस्कॉन समूह के लगभग ४०० से अधिक मंदिरों की स्थापना हो चुकी है। पूरी दुनिया में इतने अधिक अनुयायी होने का मूलभूत कारण यहाँ मिलने वाली असीम शांति है। इसी शांति की तलाश में पूरब की गीता पश्चिम के लोगों के सिर चढ़कर बोलने लगी। यहाँ के मतावलंबियों को चार सरल नियमों का पालन करना अनिवार्य होता है, यानी धर्म के चार स्तम्भ – तप, शौच, दया तथा सत्य। इसे व्यावहारिक रूप से पालन करने हेतु इस्कॉन के कुछ मूलभूत नियम हैं;
तप : किसी भी प्रकार का नशा नहीं। चाय, कॉफ़ी भी नहीं।
शौच : अवैध स्त्री/पुरुष गमन नहीं।
दया : माँसाहार/ अभक्ष्य भक्षण नहीं। लहसुन, प्याज़ भी नहीं।
सत्य : जुआ और शेयर बाज़ार भी नहीं।
उन्हें तामसिक भोजन त्यागना होगा (तामसिक भोजन के तहत उन्हें प्याज, लहसुन, मांस, मदिरा आदि से दूर रहना होगा) अनैतिक आचरण से दूर रहना (इसके तहत जुआ, पब, वेश्यालय जैसे स्थानों पर जाना वर्जित है) एक घंटा शास्त्राध्ययन (इसमें गीता और भारतीय धर्म-इतिहास से जुड़े शास्त्रों का अध्ययन करना होता है) ‘हरे कृष्णा-हरे कृष्णा’ नाम की १६ बार माला करना होता है। भारत से बाहर विदेशों में हजारों महिलाओं को साड़ी पहने चंदन की बिंदी लगाए व पुरुषों को धोती कुर्ता और गले में तुलसी की माला पहने देखा जा सकता है। लाखों ने मांसाहार तो क्या चाय, कॉफी, प्याज, लहसुन जैसे तामसी पदार्थों का सेवन छोड़कर शाकाहार शुरू कर दिया है। वे लगातार ‘हरे राम-हरे कृष्ण’ का कीर्तन भी करते रहते हैं। इस्कॉन ने पश्चिमी देशों में अनेक भव्य मन्दिर व विद्यालय बनवाये हैं। इस्कॉन के अनुयायी विश्व में गीता एवं हिन्दू धर्म एवं संस्कृति का प्रचार-प्रसार करते हैं।
स्वामीजी का निधन १४ नवम्बर, १९७७ में प्रसिद्ध धार्मिक नगरी मथुरा के वृन्दावन धाम में हुआ। श्रील प्रभुपादजी आज हमारे बीच नहीं हैं मगर उनके बताए और दिखाए मार्ग पूरे विश्व को सदा ही सत्य की ओर अग्रसर करते रहेंगे।
अश्विनी राय ‘अरूण’