अमर शहीद बाबू बंधु सिंह जी का जन्म डुमरी रियासत में चौरी चौरा क्षेत्र के बाबू शिव प्रसाद सिंह जी के घर १ मई, १८३३ को हुआ था। बाबू बंधु सिंह अपने सभी ६ भाइयों में बड़े थे।
बात उस समय की है, जिस वक्त बलिया के रहने वाले प्रथम स्वतंत्रता सेनानी एवं अग्रेजी हुकूमत के सैनिक मंगल पांडेय ने अंग्रेजो के विरुद्ध ही बगावत छेड़ दिया था, जो धीरे धीरे पूरे क्षेत्र में फ़ैल गया, इसका गहरा असर बाबू बंधू सिंह पर भी हुआ और उन्होने भी अपनी ओर से भी आजादी के युद्ध का बिगुल फूँक दिया। उस समय वह क्षेत्र अकाल के भयंकर प्रकोप से जूझ रहा था, उसी समय अंग्रेज अधिकारियों के देख-रेख में अंग्रेजी सरकार का खजाना बिहार से लाद कर आ रहा था। बाबू बंधु सिंह ने अपने साथियो के साथ मिलकर उस खज़ाने को लूट लिया और अकाल पीड़ितों में बाँट दिया। यही से वे अंग्रेजी सरकार की आँख की किरकिरी बन गए, तत्पश्चात बंधु सिंह अपने साथियों के साथ मिलकर गोरखपुर पर हमला कर दिया और वहाँ के जिला कलेक्टर को मार कर अपना शासन कायम कर दिया एवं इसके साथ ही इलाके की दो प्रमुख नदिया घाघरा और गंडक पर कब्ज़ा कर आवागमन के मार्ग को खंडित कर बाधित कर दिया। इस हतासा में अंग्रेजो ने गोरखपुर पर आक्रमण करने की लिए नेपाल के राजा से मदद मांगी। राजा ने अपने सेनापति पहलवान सिंह को फ़ौज के साथ विदा कर दिया। भीषण युद्ध हुआ जिसमे पहलवान सिंह मारा गया मगर बंधु सिंह को भी भाग कर जंगल में शरण लेनी पड़ी।
अंग्रेजो ने इसके बाद डुमरी रियासत पर तीन तरफ से हमले की योजना बनाई । आजमगढ़ से चली फ़ौज का गगहा की ठाकुरों से मुकाबला हुआ जिनमे से यक्षपल सिंह व रक्षपाल सिंह दोनों भाई शहीद हो गए। अंग्रेजो की सेना डुमरी की नजदीक आ पहुंची जहां मोतीराम की पूरब दुबियरी पुल के भाइयों करिया सिंह, हम्मन सिंह, तेजई सिंह व फ़तेह सिंह ने अंग्रेजो का कड़ा मुकाबला किए परन्तु अंग्रेजो की बड़ी सेना के आगे टिक ना सके और वे भी मारे गए। अंग्रेजो ने बाबू बंधु सिंह की हवेली में आग लगा दी एवं उनकी रियासत को उपहार स्वरुप मुखबिरों में बाँट दिया। देवी भक्त बाबू बंधु सिंह ने गोरिल्ला युद्ध की शुरुआत कर दी, जिसमे वेे माहिर थे। गोरखपुर के जंगल में छिपकर वे रहने लगे और अपने साथियों को साथ लेकर अंग्रेजी सरकार द्वारा फैलाई गई गंदगी के सफाये में जुट गए। छिपकर हमला करना और बाद घने जंगल में छिप जाना, यह उनका नित्यकर्म बन गया।
लिखित इतिहास के अभाव में जब हमने अपने स्तर से खोज की तो पता चला की देवी भक्त बाबू बंधु सिंह अंग्रेजों से इतना नफरत करते थे की उनके सिपाहियों को वे सीधे सीधे मौत के घर उतार देते थे। आज जहाँ माँ तरकुलहा देवी का मंदिर है, उन दिनों वहाँ घना जंगल हुआ करता था, वही बाबू बंधु सिंह ताड़ के पेड़ के नीचे मिट्टी की पिण्डी बनाकर देवी उपासना किया करते थे। मानने वालों के अनुसार आदि शक्ति माँ जगदम्बा का घोर तपस्या कर उन्होंने देवी को प्रसन्न कर लिया था। माँ ने जब उन्हें वर मांगने को कहा जिस पर बाबू बंधु सिंह ने अमरत्व का वरदान माँगा था। वे अंग्रेजों के सर कलम करते और पास के कुँए में डाल देते। डाले गए नरमुंडों से पूरा कुआँ भर गया। इस भीषण तबाही से घबराकर ब्रिटिश सरकार ने अपनी ‘फुट डालो और राज करो’ की नीति की तहत देशद्रोही सरदार सूरत सिंह मजीठिया को अपनी ओर मिला लिया। उसने अपने एक आदमी निर्मल को कहकर धोखे से बाबू बंधु सिंह को गिरफ्तार करवा दिया एवं उनके साथी अहमद हसन को फ़ैजाबाद ले जाकर बेदर्दी से टुकड़े टुकड़े करवा डाला। अंग्रेजों ने बाबू बंधु सिंह को अदालत में पेश किया जहां जज ने उन्हें फांसी की सजा सुनाई।
आश्चर्यजनक वाकया…
१२ अगस्त, १८५७ को बाबू बंधु सिंह को गोरखपुर के अलीनगर (जो अब देवीपुर गांव नाम से जाना जाता है ) चौराहे पर स्थित बरगद के पेड़ पर सरेआम फांसी दी जाने लगी, फांसी पर लटकाते ही फांसी का फन्दा टूट गया। जल्लादों ने दुबारा फन्दा चढ़ाया तो वह भी टूट गया, यह वाकया सात बार हुआ। फांसी टूटने से अंग्रेज किसी दैविक शक्ति का एहसास कर अचंभित व भयभीत हो गए। हर बार उनकी कोशिश असफल रही। अंग्रेजों ने भयभीत हो कर जल्लादों को धमकाया, अगर वह उन्हें फांसी नहीं लगा सके तो उन्हे ही फांसी दे दी जाएगी। तब जल्लाद ने उनसे निवेदन किया कि वे उसकी विवशता को समझें। जल्लाद की मजबूरी को समझकर बाबू बंधु सिंह ने मां भगवती को नमन किया और अपने पास बुलाने की प्रार्थना की। बाबू बंधु सिंह जानते थे, यदि उन्हें फांसी पर लटकाया गया तो इतिहास उन्हें उपेक्षा करेगा जो एक सच्चे देशभक्त को गवारा कतई नहीं था, अतः उन्होंने अपने हाथों से अपने ही बन्दुक से अपने सर में गोली मारी। कहा तो यहाँ तक जाता है की उन्होने अपने सर में छः गोली मारी थी तब जाकर उनके प्राण निकले थे।
जनश्रुतियों के अनुसार बाबू साहब को फांसी लगते ही देवी स्थान पर खडे ताड़ के बृक्ष का उपरी सिरा टूट कर अलग जा गिरा व उसमे से रक्त की धार फूट पडी। जो कई दिनों तक बहती रही। उस रक्त की धारा से नदी भी लाल हो गई। आज भी बाबू बंधु सिंह की स्मृति मे इस मंदिर मे एक स्मारक भी बना हुआ है।
ईश्वरीय सच्चाई जो भी हो, मगर बाबू बंधु सिंह जी ने छापामार युद्ध में अंग्रेजों के सात बटालियन के सभी सिपाहियों के सर की बलि दे डाली थी और चालीस से ज्यादा बटालियन को पूरी तरह से पंगु कर दिया था। जिससे कोई भी अंग्रेज सैनिक अथवा उनकी सेना उनसे सामना करने से कतराने लगी थी, तब जा कर शुरू हुआ था षड्यंत्र का युद्ध… ऐसे वीर थे बाबू बंधु सिंह जी।
अमर शहीद बाबू बंधु सिंह का नाम भारत के इतिहास में सदा अमर रहेगा
मैं उसको श्रद्धा सुमन अर्पित कर श्रद्धांजलि अर्पित करती हूं🙏🙏