November 24, 2024

जयदयाल गोयन्दका जी का जन्म राजस्थान के चुरू में ज्येष्ठ कृष्ण ६, सम्वत् १९४२ यानी वर्ष १८८५ को श्री खूबचन्द्र अग्रवाल के परिवार में हुआ था।बाल्यावस्था में ही इन्हें गीता तथा रामचरितमानस ने बेहद प्रभावित किया। वे अपने परिवार के साथ व्यापार के उद्देश्य से बांकुड़ा (पश्चिम बंगाल) चले गए। बंगाल में दुर्भिक्ष पड़ा तो, उन्होंने पीड़ितों की सेवा का आदर्श उपस्थित किया।

उन्होंने गीता तथा अन्य धार्मिक ग्रन्थों का गहन अध्ययन करने के बाद अपना जीवन धर्म-प्रचार में लगाने का संकल्प लिया। इन्होंने कोलकाता में “गोविन्द-भवन” की स्थापना की। वे गीता पर इतना प्रभावी प्रवचन करने लगे थे कि हजारों श्रोता मंत्र-मुग्ध होकर सत्संग का लाभ उठाते थे। “गीता-प्रचार” अभियान के दौरान उन्होंने देखा कि गीता की शुद्ध प्रति मिलनी दूभर है। उन्होंने गीता को शुद्ध भाषा में प्रकाशित करने के उद्देश्य से वर्ष १९२३ में गोरखपुर में गीता प्रेस की स्थापना की। उन्हीं दिनों उनके मौसेरे भाई हनुमान प्रसाद पोद्दार उनके सम्पर्क में आए तथा वे गीता प्रेस के लिए समर्पित हो गए। गीता प्रेस से “कल्याण” पत्रिका का प्रकाशन शुरू हुआ। उनके गीता तथा परमार्थ सम्बंधी लेख प्रकाशित होने लगे। उन्होंने “गीता तत्व विवेचनी” नाम से गीता का भाष्य किया। उनके द्वारा रचित तत्व चिन्तामणि, प्रेम भक्ति प्रकाश, मनुष्य जीवन की सफलता, परम शांति का मार्ग, ज्ञान योग, प्रेम योग का तत्व, परम-साधन, परमार्थ पत्रावली आदि पुस्तकों ने धार्मिक-साहित्य की अभिवृद्धि में अभूतपूर्व योगदान किया है।

वे अत्‍यन्‍त सरल तथा भगवद्विश्‍वासी थे। उनका कहना था कि यदि मेरे द्वारा किया जाने वाला कार्य अच्‍छा होगा तो भगवान उसे सँभाल लेंगे। बुरा होगा तो हमें चलाना नहीं है।उनका निधन १७ अप्रैल, १९६५ को ऋषिकेश में गंगा तट पर हुआ।

गोविन्‍द भवन कार्यालय कोलकाता

यह संस्‍था का प्रधान कार्यालय है जो एक रजिस्‍टर्ड सोसाइटी है। सेठजी व्‍यापार कार्य से कोलकाता जाते थे और वहाँ जानेपर सत्‍संग करवाते थे। सेठजी और सत्‍संग जीवन-पर्यन्‍त एक-दूसरे के पर्याय बने रहे। सेठजी को या सत्‍संगियों को जब भी समय मिलता सत्‍संग शुरू हो जाता। कई बार कोलकाता से सत्‍संग प्रेमी रात्रि में खड़गपुर आ जाते तथा सेठजी चक्रधरपुर से खड़गपुर आ जाते जो कि दोनों नगरों के मध्‍यमें पड़ता था। वहाँ स्‍टेशन के पास रात भर सत्‍संग होता, प्रात: सब अपने-अपने स्‍थान को लौट जाते। सत्‍संगके लिये आजकल की तरह न तो मंच बनता था न प्रचार होता था। कोलकाता में दुकान की गद्दि‍यों पर ही सत्‍संग होने लगता। सत्‍संगी भाइयों की संख्‍या दिनों दिन बढ़ने लगी। दुकान की गद्दि‍यों में स्‍थान सीमित था। बड़े स्‍थान की खोज प्रारम्‍भ हुई। पहले तो कोलकाता के ईडन गार्डेन के पीछे किले के समीप वाला स्‍थल चुना गया लेकिन वहाँ सत्‍संग ठीक से नहीं हो पाता था। पुन: सन् १९२० के आसपास कोलकाता की बाँसतल्‍ला गली में बिड़ला परिवार का एक गोदाम किराये पर मिल गया और उसे ही गोविन्‍द भवन (भगवान् का घर) का नाम दिया गया। वर्तमान में महात्‍मा गाँधी रोड पर एक भव्‍य भवन ‘गोविन्‍द-भवन’ के नाम से है जहाँ पर नित्‍य भजन-कीर्तन चलता है तथा समय-समय पर सन्‍त-महात्‍माओं द्वारा प्रवचन की व्‍यवस्‍था होती है। पुस्‍तकों की थोक व फुटकर बिक्री के साथ ही साथ हस्‍तनिर्मित वस्‍त्र, काँच की चूडियाँ, आयुर्वेदिक ओषधियाँ आदि की बिक्री उचित मूल्‍यपर हो रही है।

गीताप्रेस-गोरखपुर

कोलकाता में श्री सेठजी के सत्‍संग के प्रभाव से साधकों का समूह बढ़ता गया और सभी को स्‍वाध्‍याय के लिये गीताजी की आवश्‍यकता हुई, परन्‍तु शुद्ध पाठ और सही अर्थ की गीता सुलभ नहीं हो रही थी। सुलभता से ऐसी गीता मिल सके इसके लिये सेठजी ने स्‍वयं पदच्‍छेद, अर्थ एवं संक्षिप्‍त टीका तैयार करके गोविन्‍द-भवन की ओर से कोलकाता के वणिक प्रेस से पाँच हजार प्रतियाँ छपवायीं। यह प्रथम संस्‍करण बहुत शीघ्र समाप्‍त हो गया। छ: हजार प्रतियों के अगले संस्‍करण का पुनर्मुद्रण उसी वणिक प्रेस से हुआ। कोलकाता में कुल ग्‍यारह हजार प्रतियाँ छपीं। परन्‍तु इस मुद्रण में अनेक कठिनाइयाँ आयीं। पुस्‍तकों में न तो आवश्‍यक संशोधन कर सकते थे, न ही संशोधन के लिये समुचित सुविधा मिलती थी। मशीन बार-बार रोककर संशोधन करना पड़ता था। ऐसी चेष्‍टा करने पर भी भूलों का सर्वथा अभाव न हो सका। तब प्रेस के मालिक जो स्‍वयं सेठजीके सत्‍संगी थे, उन्‍होंने सेठजी से कहा, “किसी व्‍यापारी के लिये इस प्रकार मशीन को बार-बार रोककर सुधार करना अनुकूल नहीं पड़ता। आप जैसी शुद्ध पुस्‍तक चाहते हैं, वैसी अपने निजी प्रेस में ही छपना सम्‍भव है।” सेठजी कहा करते थे कि “हमारी पुस्‍तकों में, गीताजी में भूल छोड़ना छूरी लेकर घाव करना है तथा उनमें सुधार करना घाव पर मरहम-पट्टी करना है। जो हमारा प्रेमी हो उसे पुस्‍तकों में अशुद्धि सुधार करने की भरसक चेष्‍टा करनी चाहिये।” सेठजी ने विचार किया कि अपना एक प्रेस अलग होना चाहिये, जिससे शुद्ध पाठ और सही अर्थ की गीता गीता-प्रेमियों को प्राप्‍त हो सके। इसके लिये एक प्रेस गोरखपुर में एक छोटा-सा मकान लेकर लगभग दस रुपये के किराये पर वैशाख शुक्‍ल १३, रविवार, वि. सं. १९८० (२३ अप्रैल, १९२३) को गोरखपुर में प्रेस की स्‍थापना हुई, उसका नाम गीताप्रेस रखा गया। उससे गीताजी के मुद्रण तथा प्रकाशन में बड़ी सुविधा हो गयी। गीताजी के अनेक प्रकार के छोटे-बड़े संस्‍करण के अतिरिक्‍त श्री सेठजी की कुछ अन्‍य पुस्‍तकों का भी प्रकाशन होने लगा। गीताप्रेस से शुद्ध मुद्रित गीता, कल्‍याण, भागवत, महाभारत, रामचरितमानस तथा अन्‍य धार्मिक ग्रन्‍थ सस्‍ते मूल्‍य पर जनता के पास पहुँचाने का श्रेय श्री जयदयालजी गोयन्‍दका को ही है। गीताप्रेस पुस्‍तकों को छापने का मात्र प्रेस ही नहीं है अपितु भगवान की वाणी से नि:सृत जीवनोद्धारक गीता इत्‍यादि की प्रचारस्‍थली होने से पुण्‍यस्‍थली में परिवर्तित है। भगवान शास्‍त्रों में स्‍वयं इसका उद्घोष किये हैं कि जहाँ मेरे नाम का स्‍मरण, प्रचार, भजन-कीर्तन इत्‍यादि होता है उस स्‍थान को मैं कभी नहीं त्‍यागता।

नाहं वसामि वैकुण्‍ठे योगिनां हृदये न च।
मद्भक्ता यत्र गायन्ति तत्र तिष्‍ठामि नारद।।

गीताभवन, स्‍वर्गाश्रम ऋषिकेश…

गीताजी के प्रचार के साथ ही साथ सेठजी भगवत्‍प्राप्ति हेतु सत्‍संग करते ही रहते थे। उन्‍हें एक शांतिप्रिय स्‍थल की आवश्‍यकता महसूस हुई जहाँ कोलाहल न हो, पवित्र भूमि हो, साधन-भजन के लिये अति आवश्‍यक सामग्री उपलब्‍ध हो। इस आवश्‍यकता की पूर्तिके लिये उत्‍तराखण्‍ड की पवित्र भूमि पर वर्ष १९१८ के आसपास सत्‍संग करने हेतु सेठजी पधारे। वहाँ गंगा पार भगवती गंगा के तट पर वटवृक्ष और वर्तमान गीता भवन का स्‍थान सेठजी को परम शान्तिदायक लगा। सुना जाता है कि वटवृक्ष वाले स्‍थान पर स्‍वामी रामतीर्थ ने भी तपस्‍या की थी। फिर क्‍या था वर्ष १९२५ के लगभग से सेठजी अपने सत्‍संगियों के साथ प्रत्‍येक वर्ष ग्रीष्‍म-ऋतु में लगभग तीन माह वहाँ रहने लगे। प्रात: चार बजे से रात्रि दस बजे तक भोजन, सन्‍ध्‍या-वन्‍दन आदि के समय को छोड़ कर सभी समय लोगों के साथ भगवत्-चर्चा, भजन-कीर्तन आदि चलता रहता था। धीरे-धीरे सत्‍संगी भाइयों के रहने के लिये पक्‍के मकान बनने लगे। भगवत्‍कृपा से आज वहाँ कई सुव्‍यवस्थित एवं भव्‍य भवन बनकर तैयार हो गये हैं जिनमें एक हजार से अधिक कमरे हैं और सत्‍संग, भजन-कीर्तन के स्‍थान अलग से हैं। जो शुरू से ही सत्‍संगियों के लिये नि:शुल्‍क रहे हैं। यहाँ आकर लोग गंगाजी के सुरम्‍य वातावरण में बैठकर भगवत्-चिन्‍तन तथा सत्‍संग करते हैं। यह वह भूमि है जहाँ प्रत्‍येक वर्ष न जाने कितने भाई-बहन सेठजी के सान्निध्‍य में रहकर जीवन्‍मुक्‍त हो गये हैं। यहाँ आते ही जो आनन्‍दानुभूति होती है वह अकथनीय है। यहाँ आने वालों को कोई असुविधा नहीं होती; क्‍योंकि नि:शुल्‍क आवास और उचित मूल्‍य पर भोजन एवं राशन, बर्तन इत्‍यादि आवश्‍यक सामग्री उपलब्‍ध है।

श्री ऋषिकुल ब्रह्मचर्याश्रम, चूरू

जयदयाल जी गोयन्‍दका ने इस आवासीय विद्यालय की स्‍थापना इसी उद्देश्‍य से की कि बचपन से ही अच्‍छे संस्‍कार बच्‍चों में पड़ें और वे समाज में चरित्रवान्, कर्तव्‍यनिष्‍ठ, ज्ञानवान् तथा भगवत्‍प्राप्ति प्रयासी हों। स्‍थापना वर्ष १९२४ से ही शिक्षा, वस्‍त्र, शिक्षण सामग्रियाँ इत्‍यादि आजतक नि:शुल्‍क हैं। उनसे भोजन खर्च भी नाममात्र का ही लिया जाता है।

गीताभवन आयुर्वेद संस्‍थान…

जयदयाल जी गोयन्‍दका पवित्रता का बड़ा ध्‍यान रखते थे। हिंसा से प्राप्‍त किसी वस्‍तु का उपयोग नहीं करते थे। आयुर्वेदिक औषधियों का ही प्रयोग करते और करने की सलाह देते थे। शुद्ध आयुर्वेदिक औषधियों के निर्माणके लिये पहले कोलकाता में पुन: गीता भवन में व्‍यवस्‍था की गयी ताकि हिमालय की ताजा जड़ी-बूटियों एवं गंगा जल से निर्मित औषधियाँ जन सामान्‍य को सुलभ हो सकें।

सन्दर्भ…

जयदयाल गोयन्दका जी गोविन्द भवन कार्यालय के संस्थापक थे। गीताप्रेस, गोविन्द भवन कार्यालय का एक प्रतिष्ठान है। ऊपर दिए गए सभी बातें गीता भवन द्वारा लिखित मूल लेख पर आधारित है।

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