November 24, 2024

आज गीताप्रेस गोरखपुर का नाम किसी भी भारतीय के लिए अनजाना नहीं है। सनातन संस्कृति पर आस्था रखने वाला हर घर गीता प्रेस गोरखपुर के नाम से परिचित है। इस देश में और दुनिया के हर कोने में रामायण, गीता, वेद, पुराण और उपनिषद आदि से लेकर प्राचीन भारत के ऋषियों -मुनियों की कथाओं को पहुँचाने का एक मात्र श्रेय गीताप्रेस गोरखपुर के आदि-सम्पादक भाईजी श्री हनुमान प्रसाद पोद्दार जी को है। प्रचार-प्रसार से दूर रहकर एक अकिंचन सेवक और निष्काम कर्मयोगी की तरह भाईजी ने हिंदू संस्कृति की मान्यताओं को घर-घर तक पहुँचाने में जो योगदान दिया है, इतिहास में उसकी मिसाल मिलना ही मुश्किल है।

परिचय…

भारतीय पंचांग के अनुसार विक्रम संवत के वर्ष १९४९ (सन् १८९२) में अश्विन कृष्ण की प्रदोष के दिन उनका जन्म हुआ। इस वर्ष यह तिथि शनिवार, ६ अक्टूबर को है। राजस्थान के रतनगढ़ में लाला भीमराज अग्रवाल और उनकी पत्नी रिखीबाई हनुमान के भक्त थे, तो उन्होंने अपने पुत्र का नाम हनुमान प्रसाद रख दिया। दो वर्ष की आयु में ही इनकी माता का स्वर्गवास हो जाने पर इनका पालन-पोषण दादी माँ ने किया। दादी माँ के धार्मिक संस्कारों के बीच बालक हनुमान को बचपन से ही गीता, रामायण वेद, उपनिषद और पुराणों की कहानियाँ पढ़न-सुनने को मिली। इन संस्कारों का बालक पर गहरा असर पड़ा। बचपन में ही इन्हें हनुमान कवच का पाठ सिखाया गया। निंबार्क संप्रदाय के संत ब्रजदास जी ने बालक को दीक्षा दी।

स्वतंत्रता संग्राम…

उन दिनों देश गुलामी की जंजीरों में जकड़ा हुआ था। इनके पिता अपने कारोबार का वजह से कलकत्ता में थे और वे अपने दादाजी के साथ असम में रहते थे। कलकत्ता में वे स्वतंत्रता आंदोलन के क्रांतिकारियों अरविंद घोष, देशबंधु चितरंजन दास, पं झाबरमल शर्मा के संपर्क में आए और आज़ादी आंदोलन में कूद पड़े। इसके बाद लोकमान्य तिलक और गोपालकृष्ण गोखले जब कलकत्ता आए तो भाई जी उनके संपर्क में आए इसके बाद उनकी मुलाकात गाँधीजी से हुई। वीर सावकरकर द्वारा लिखे गए ‘१८५७ का स्वातंत्र्य समर ग्रंथ’ से भाईजी बहुत प्रभावित हुए और वर्ष १९३८ में वे विनायक दामोदर सावरकर से मिलने के लिए मुंबई चले आए। वर्ष १९०६ में उन्होंने कपड़ों में गाय की चर्बी के प्रयोग किए जाने के खिलाफ आंदोलन चलाया और विदेशी वस्तुओं और विदेशी कपड़ों के बहिष्कार के लिए संघर्ष छेड़ दिया। युवावस्था में ही उन्होंने खादी और स्वदेशी वस्तुओं का प्रयोग करना शुरु कर दिया। विक्रम संवत १९७१ में जब महामना पं. मदन मोहन मालवीय बनारस हिंदू विश्वविद्यालय की स्थापना के लिए धन संग्रह करने के उद्देश्य से कलकत्ता आए तो भाईजी ने कई लोगों से मिलकर इस कार्य के लिए दान-राशि दिलवाई।

गिरफ़्तारियां…

कलकत्ता में आजादी आंदोलन और क्रांतिकारियों के साथ काम करने के एक मामले में तत्कालीन ब्रिटिश सरकार ने श्री हनुमान प्रसाद पोद्दार सहित कई प्रमुख व्यापारियों को राजद्रोह के आरोप में गिरफ्तार कर जेल भेज दिया। इन लोगों ने ब्रिटिश सरकार के हथियारों के एक जखीरे को लूटकर उसे छिपाने में मदद की थी। जेल में भाईजी ने हनुमान जी की आराधना करना शुरु कर दी। बाद में उन्हें अलीपुर जेल में नज़रबंद कर दिया गया। नज़रबंदी के दौरान भाईजी ने समय का भरपूर सदुपयोग किया वहाँ वे अपनी दिनचर्या सुबह तीन बजे शुरु करते थे और पूरा समय परमात्मा का ध्यान करने में ही बिताते थे। बाद में उन्हें नजरबंद रखते हुए पंजाब की शिमलपाल जेल में भेज दिया गया। वहाँ कैदी मरीजों के स्वास्थ्य की जाँच के लिए एक होम्योपैथिक चिकित्सक जेल में आते थे, भाईजी ने इस चिकित्सक से होम्योपैथी की बारीकियाँ सीख ली और होम्योपैथी की किताबों का अध्ययन करने के बाद खुद ही मरीजों का इलाज करने लगे। बाद में वे जमनालाल बजाज की प्रेरणा से मुंबई चले आए। यहाँ वे वीर सावरकर, नेताजी सुभाष चंद्र बोस, महादेव देसाई और कृष्णदास जाजू जैसी विभूतियों के निकट संपर्क में आए।

मुंबई में उन्होंने अग्रवाल नवयुवकों को संगठित कर मारवाड़ी खादी प्रचार मंडल की स्थापना की। इसके बाद वे प्रसिध्द संगीताचार्य विष्णु दिगंबर के सत्संग में आए और उनके हृदय में संगीत का झरना बह निकला। फिर उन्होंने भक्ति गीत लिखे जो `पत्र-पुष्प’ के नाम से प्रकाशित हुए। मुंबई में वे अपने मौसेरे भाई ब्रह्मलीन श्री जयदयाल गोयन्दका जी के गीता पाठ से बहुत प्रभावित थे। उनके गीता के प्रति प्रेम और लोगों की गीता को लेकर जिज्ञासा को देखते हुए भाईजी ने इस बात का प्रण किया कि वे श्रीमद्भागवद्गीता को कम से कम मूल्य पर लोगों को उपलब्ध कराएंगे। फिर उन्होंने गीता पर एक टीका लिखी और उसे कलकत्ता के वाणिक प्रेस में छपवाई। पहले ही संस्करण की पाँच हजार प्रतियाँ बिक गई। लेकिन भाईजी को इस बात का दु:ख था कि इस पुस्तक में ढेरों गलतियाँ थी। इसके बाद उन्होंने इसका संशोधित संस्करण निकाला मगर इसमें भी गलतियाँ दोहरा गई थी। इस बात से भाईजी के मन को गहरी ठेस लगी और उन्होंने तय किया कि जब तक अपना खुद का प्रेस नहीं होगा, यह कार्य आगे नहीं बढ़ेगा। बस यही एक छोटा सा संकल्प गीताप्रेस गोरखपुर की स्थापना का आधार बना। उनके भाई गोयन्का जी का व्यापार तब बांकुड़ा (बंगाल) में था और वे गीता पर प्रवचन के सिलसिले में प्राय: बाहर ही रहा करते थे। तब समस्या यह थी कि प्रेस कहाँ लगाई जाए। उनके मित्र घनश्याम दास जालान गोरखपुर में ही व्यापार करते थे। उन्होने प्रेस गोरखपुर में ही लगाए जाने और इस कार्य में भरपूर सहयोग देने का आश्वासन दिया। इसके बाद २९ अप्रैल, १९२३ ई० को गीता प्रेस की स्थापना हुई।

कल्याण का आरम्भ… 

संवत १९८३ विक्रमी (१९२६ ई० ) में मारवाड़ी अग्रवाल महासभा का वार्षिक अधिवेशन दिल्ली में हुआ। इसके सभापति थे सेठ जमनालाल बजाज और स्वागताध्यक्ष थे श्री आत्माराम खेमका। आरम्भ में खेमका जी ने कुछ कारणों से स्वागताध्यक्ष होना अस्वीकार कर दिया था, बाद में सेठ जयदयाल गोयन्दका के आग्रह से वे तैयार हो गए। अधिवेशन जल्दी प्रारम्भ होनेवाला था प्रश्न उठा स्वागत भाषण लिखने का। खेमका जी शास्त्रज्ञ तथा विद्वान थे, पर उन्हें हिन्दी लिखने का अभ्यास नहीं था। उन्होंने श्री गोयन्दका जी से भाषण तैयार करवा देने की प्रार्थना की। श्री गोयन्दका जी ने पोद्दार जी को दिल्ली जाकर भाषण तैयार करने का आदेश दिया। पोद्दार जी दिल्ली गए और २४ घंटे में ही एक अत्यंत सार गर्भित भाषण लिखकर मुद्रित करा दिया। लोग उसमें व्यक्त विचारों से बहुत प्रभावित हुए | अधिवेशन में भाग लेने के लिए सेठ घनश्याम दास बिरला भी आये थे। उनका यद्यपि पोदार जी से पूर्ण मतैक्य नहीं था तथापि वह भाषण उन्हें पसंद आया। दूसरे दिन अपनी प्रतिक्रया व्यक्त करते हुए उन्होंने पोद्दार जी से कहा, ‘भेजी तुमलोगों के क्या विचार हैं कैसे हैं कहां तक ठीक हैं इसकी आलोचना हमें नहीं करनी, पर इनका प्रचार तुमलोगों द्वारा समाज में हो रहा है जनता इसे दूर तक मानती भी है। यदि तुमलोगों के पास अपने विचारों और सिद्धांतों का एक ” पत्र” होता तो तुम लोगों को और भी सफलता मिलती। तुमलोग अपने विचारों का एक पत्र निकालो।’ पोद्दार जी ने कहा, ‘बात तो ठीक है पर मेरा इस सम्बन्ध में कोई अनुभव नहीं है।’ बिरला जी ने आग्रह करते हुए कहा प्रयास करो। उस समय बात यहीं समाप्त हो गयी। घनश्याम दास जी ने परामर्श के रूप में एक बात कह दी थी, पर यही बात कल्याण मासिक के जन्म का कारण बन गयी। अधिवेशन समाप्त होने के बाद सभी लोग अपने अपने स्थान चले गए। पोद्दार जी बम्बई की ओर चले। उन दिनों दिल्ली से बम्बई जाने के लिए रेवाड़ी होकर अहमदाबाद जाना पड़ता था और वहां से गाड़ी बदल कर बम्बई। पोद्दार जी दिल्ली से रेवाड़ी गए, रेवाड़ी से भिवानी का आधे घंटे का रास्ता था। पोद्दार जी चूरू से उन दिनों भिवानी आये सेठ जयदयाल गोयन्दका जी से मिलने भिवानी गए। एक दिन वहां रहे। सेठ जी को बाँकुड़ा जाना था और पोद्दार जी को बम्बई, दोनों भिवानी से रिवाड़ी तक साथ आये। रास्ते में उन्होंने घनश्याम दास जी द्वारा दिए गए सुझाव पर चर्चा की सेठ जी को यह विचार अच्छा लगा सेठ जी के साथ उनके अनुगत लच्छीराम मुरोदिया भी थे, उन्होंने भी सहमती जताई। उन्होंने पोद्दार जी से वचन ले लिया कि वे प्रत्येक दिन दो घंटा समय सम्पादन के लिए देंगे। पोद्दार जी ने अपनी अनुभवहीनता के बारे में बात की पर मुरोदियाजी नें उन्हें चुप करा दिया। अब नाम का प्रश्न आया। पोद्दार जी के मुंह से निकल गया ” कल्याण “। सेठ जी तथा मुरोदिया जी को यह नाम पसंद आया। यह बात चैत्र शुक्ल ९ संवत १९८३ श्रीराम नवमी के दिन की है। इसी के साथ तय हो गया कि अक्षय तृतीया (वैशाख शुक्ल तृतीया ) से कल्याण का आरम्भ कर दिया जाय।

एक दिन खेमराज श्रीकृष्ण दास प्रेस के मालिक सेठ श्रीकृष्ण दास जी पोद्दार जी से मिलने आये। बातचीत के दौरान कल्याण की चर्चा हुई। श्रीकृष्ण दास जी ने कहा, भाई जी पत्र अवश्य निकलना चाहिए। पोद्दार जी ने उनके सामने भी अनुभव की कमी की बात की, श्रीकृष्ण दस जी ने सहयोग देनें की बात की। पोद्दार जी आनाकानी कर रहे थे। तब श्रीकृष्ण दास जी ने पोद्दार जी से कहा, आपको भगवान् नें आसाम में भूकंप से बचाया, भगवान् आपसे कोई बड़ा काम करवाना चाहते हैं। पोद्दार जी इस तर्क के आगे मौन हो गए। अब “कल्याण” का पंजीकरण हो गया और सामग्री एकत्र कर प्रेस में छपने को दे दिया गया। श्रावण कृष्ण ११ संवत १९८३ विक्रमी को “कल्याण का पहला अंक निकला। प्रकाशक था सत्संग भवन नेमानी बाडी बम्बई। इस प्रकार कल्याण का प्रथम अंक निकला अंक सबको बहुत पसंद आया। प्रारम्भ में इसके १६०० ग्राहक थे सब बनाए हुए थे बने हुए नहीं। कल्याण के लिए गांधी जी से पोद्दार जी ने आशीर्वाद माँगा, गाँधीजी ने विज्ञापन और पुस्तक समीक्षा न छापने की सलाह दी। पोद्दार जी इसे शिरोधार्य किया और आजीवन इसका निर्वाह किया। आज भी कल्याण में विज्ञापन नहीं छापा जाता। कल्याण के १२ साधारण अंक तथा दूसरे वर्ष का पहला अंक भगवन्नामांक विशेषांक बम्बई से निकला। बाद में इसका प्रकाशन (१९२७ ई) से गीताप्रेस गोरखपुर से होने लगा। इस निमित्त पोद्दार जी बम्बई से गोरखपुर आ गए।

(सन्दर्भ “कल्याण पथ निर्माता और राही” ले० भगवती प्रसाद सिंह प्रकाशक राधामाधव संस्थान गोरखपुर संस्करण संवत २०२७ वि०)

भाईजी ने कल्याण को एक आदर्श और रुचिकर पत्रिका का रूप देने के लिए तब देश भर के महात्माओं धार्मिक विषयों में दखल रखने वाले लेखकों और संतों आदि को पत्र लिखकर इसके लिए विविध विषयों पर लेख आमंत्रित किए। इसके साथ ही उन्होंने श्रेष्ठतम कलाकारों से देवी-देवताओं के आकर्षक चित्र बनवाए और उनको कल्याण में प्रकाशित किया। भाई जी इस कार्य में इतने तल्लीन हो गए कि वे अपना पूरा समय इसके लिए देने लगे। कल्याण की सामग्री के संपादन से लेकर उसके रंग-रुप को अंतिम रूप देने का कार्य भी भाईजी ही देखते थे। इसके लिए वे प्रतिदिन अठारह घंटे देते थे। कल्याण को उन्होंने मात्र हिंदू धर्म की ही पत्रिका के रूप में पहचान देने की बजाय उसमे सभी धर्मों के आचार्यों, जैन मुनियों, रामानुज, निंबार्क, माध्व आदि संप्रदायों के विद्वानों के लेखों का प्रकाशन किया।

गीताप्रेस…

भाईजी ने अपने जीवन काल में गीताप्रेस गोरखपुर में पौने छ: सौ से ज्यादा पुस्तकें प्रकाशित की। इसके साथ ही उन्होंने इस बात का भी ध्यान रखा कि पाठकों को ये पुस्तकें लागत मूल्य पर ही उपलब्ध हों। कल्याण को और भी रोचक व ज्ञानवर्धक बनाने के लिए समय-समय पर इसके अलग-अलग विषयों पर विशेषांक प्रकाशित किए गए। भाईजी ने अपने जीवन काल में प्रचार-प्रसार से दूर रहकर ऐसे ऐसे कार्यों को अंजाम दिया जिसकी बस कल्पना ही की जा सकती है। १९३६ में गोरखपुर में भयंकर बाढ़ आगई थी। बाढ़ पीड़ित क्षेत्र के निरीक्षण के लिए पं. जवाहरलाल नेहरु जब गोरखपुर आए तो तत्कालीन अंग्रेज सरकार के दबाव में उन्हें वहाँ किसी भी व्यक्ति ने कार उपलब्ध नहीं कराई, क्योंकि अंग्रेज कलेक्टर ने सभी लोगों को धौंस दे रखी थी कि जो भी नेहरु जी को कार देगा उसका नाम विद्रोहियों की सूची में लिख दिया जाएगा। लेकिन भाई जी ने अपनी कार नेहरु जी को दे दी।

अकाल…

वर्ष १९३८ में जब राजस्थान में भयंकर अकाल पड़ा तो भाईजी अकाल पीड़ित क्षेत्र में पहुँचे और उन्होंने अकाल पीड़ितों के साथ ही मवेशियों के लिए भी चारे की व्यवस्था करवाई। बद्रीनाथ, जगन्नाथपुरी, रामेश्वरम, द्वारका, कालड़ी श्रीरंगम आदि स्थानों पर वेद-भवन तथा विद्यालयों की स्थापना में भाईजी ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। अपने जीवन-काल में भाई जी ने २५ हजार से ज्यादा पृष्ठों का साहित्य-सृजन किया।

फिल्मों का समाज पर कैसा दुष्परिणाम आने वाला है इन बातों की चेतावनी भाईजी ने अपनी पुस्तक ‘सिनेमा मनोरंजन या विनाश’ में देदी थी। दहेज के नाम पर नारी उत्पीड़न को लेकर भाई जी ने ‘विवाह में दहेज’ जैसी एक प्रेरक पुस्तक लिखकर इस बुराई पर अपने गंभीर विचार व्यक्त किए थे। महिलाओं की शिक्षा के पक्षधर भाई जी ने ‘नारी शिक्षा’ के नाम से और शिक्षा-पध्दति में सुधार के लिए वर्तमान शिक्षा के नाम से एक पुस्तक लिखी। गोरक्षा आंदोलन में भी भाईजी ने भरपूर योगदान दिया। सन १९६६ के विराट गोरक्षा आन्दोलन मे महात्मा रामचन्द्र वीर द्वारा किये गये १६६ दिन के अनशन का इन्होने पुरा समर्थन किया। भाईजी के जीवन से कई चमत्कारिक और प्रेरक घटनाएं जुड़ी हुई है। लेकिन उनके जीवन की सबसे महत्वपूर्ण बात यही है कि एक संपन्न परिवार से संबंध रखने और अपने जीवन काल में कई महत्वपूर्ण लोगों से जुड़े होने और उनकी निकटता प्राप्त करने के बावजूद भाई जी को अभिमान छू तक नहीं गया था। वे आजीवन आम आदमी के लिए सोचते रहे। इस देश में सनातन धर्म और धार्मिक साहित्य के प्रचार और प्रसार में उनका योगदान उल्लेखनीय है। गीताप्रेस गोरखपुर से पुस्तकों के प्रकाशन से होने वाली आमदनी में से उन्होंने एक हिस्सा भी नहीं लिया और इस बात का लिखित दस्तावेज बनाया कि उनके परिवार का कोई भी सदस्य इसकी आमदनी में हिस्सेदार नहीं रहेगा।

अंग्रेजों के जमाने में गोरखपुर में उनकी धर्म व साहित्य सेवा तथा उनकी लोकप्रियता को देखते हुए तत्कालीन अंग्रेज कलेक्टर पेडले ने उन्हें ‘राय साहब’ की उपाधि से अलंकृत करने का प्रस्ताव रखा था, लेकिन भाई जी ने विनम्रतापूर्वक इस प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया। इसके बाद अंग्रेज कमिश्नर होबर्ट ने ‘राय बहादुर’ की उपाधि देने का प्रस्ताव रखा लेकिन भाई जी ने इस प्रस्ताव को भी स्वीकार नहीं किया। देश की स्वाधीनता के बाद डॉ. संपूर्णानंद, कन्हैयालाल मुंशी और अन्य लोगों के परामर्श से तत्कालीन केंद्रीय गृह मंत्री गोविंद वल्लभ पंत ने भाई जी को ‘भारत रत्न’ की उपाधि से अलंकृत करने का प्रस्ताव रखा लेकिन भाई जी ने इसमें भी कोई रुचि नहीं दिखाई।

समापन…

२२ मार्च, १९७१ को भाईजी ने इस नश्वर शरीर का त्याग कर दिया और अपने पीछे वे ‘गीताप्रेस गोरखपुर’ के नाम से एक ऐसा केंद्र छोड़ गए, जो हमारी संस्कृति को पूरे विश्व में फैलाने में एक अग्रणी भूमिका निभा रहा है।

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