November 22, 2024

“जब-जब होत अरिस्ट अपारा। तब-तब देह धरत अवतारा।”

यह वाक्य सिक्खों के दसवें गुरु, प्रसिद्ध सिख खालसा सेना के संस्थापक एवं प्रथम सेनापति गुरु गोबिन्द सिंह जी के हैं।

परिचय…

गुरु गोबिन्द सिंह जी का जन्म २२ दिसंबर, १६६६ को बिहार के पटना में हुआ था। इनका मूल नाम ‘गोबिन्द राय’ था। गोबिन्द सिंह जी को सैन्य जीवन के प्रति लगाव अपने दादा गुरु हरगोबिन्द सिंह जी से मिला था और उन्हें महान् बौद्धिक संपदा भी उत्तराधिकार में ही मिली थी। वह बहुभाषाविद थे, उन्हें फ़ारसी, अरबी, संस्कृत और अपनी मातृभाषा पंजाबी का गूढ़ ज्ञान था। उन्होंने सिक्ख क़ानून को सूत्रबद्ध किया, काव्य रचना की और सिक्ख ग्रंथ ‘दसम ग्रंथ’ (दसवां खंड) लिखकर प्रसिद्धि प्राप्त की। उन्होंने देश, धर्म और स्वतंत्रता की रक्षा के लिए सिक्खों को संगठित कर सैनिक परिवेश में ढाला। दशम गुरु गोबिन्द सिंह जी स्वयं एक ऐसे ही महापुरुष थे, जो उस युग की आतंकवादी शक्तियों का नाश करने तथा धर्म एवं न्याय की प्रतिष्ठा के लिए गुरु तेग़बहादुर सिंह जी के यहाँ अवतरित हुए। इसी उद्देश्य को स्पष्ट करते हुए उन्होंने कहा था।

“मुझे परमेश्वर ने दुष्टों का नाश करने और धर्म की स्थापना करने के लिए भेजा है।”

बचपन…

गुरु गोबिन्द सिंह के जन्म के समय देश पर मुग़लों का शासन था। औरंगज़ेब हिन्दुओं को ज़बरदस्ती मुसलमान बनाने की कोशिश करता था। यही वह समय था, यानी २२ दिसंबर, १६६६ को गुरु तेग़बहादुर की धर्मपत्नी माता गुजरी ने एक सुंदर बालक को जन्म दिया, जो कालांतर में गुरु गोबिन्द सिंह के नाम से विख्यात हुआ। खिलौनों से खेलने की उम्र में गोबिन्द राय कृपाण, कटार और धनुष-बाण से खेलना पसंद करते थे। गोबिन्द बचपन में शरारती थे, लेकिन वे अपनी शरारतों से किसी को परेशान नहीं करते थे। गोबिन्द एक निसंतान बुढ़िया, जो सूत काटकर अपना गुज़ारा करती थी, से बहुत शरारत करते थे। वे उसकी पूनियाँ बिखेर देते थे। इससे दुखी होकर वह उनकी माँ के पास शिकायत लेकर पहुँच जाती थी। माता गुजरी पैसे देकर उसे खुश कर देती थी। माता गूजरी ने गोबिन्द से बुढ़िया को तंग करने का कारण पूछा तो उन्होंने सहज भाव से कहा,

“उसकी ग़रीबी दूर करने के लिए। अगर मैं उसे परेशान नहीं करूँगा तो उसे पैसे कैसे मिलेंगे।”

गद्दी…

गुरु तेग़बहादुर की शहादत के बाद गद्दी पर ९ वर्ष की आयु में ‘गुरु गोबिन्द राय’ को बैठाया गया था। ‘गुरु’ की गरिमा बनाये रखने के लिए उन्होंने अपना ज्ञान बढ़ाया और संस्कृत, फ़ारसी, पंजाबी और अरबी आदि भाषाओं को सिखा। इतना ही नहीं उन्होंने धनुष- बाण, तलवार, भाला आदि अस्त्रों को भी चलाना सीखा। उन्होंने अन्य सिक्खों को भी अस्त्र शस्त्र चलाना सिखाया। सिक्खों को अपने धर्म, जन्मभूमि और स्वयं अपनी रक्षा करने के लिए संकल्पबद्ध किया और उन्हें मानवता का पाठ पढ़ाया। उनका नारा था…

“सत श्री अकाल”

गुरु गोबिन्द सिंह की तीन पत्नियाँ थीं। २१ जून, १६७७ को १० वर्ष की आयु में उनका विवाह जीतो के साथ आनन्दपुर से १० किलोमीटर दूर बसंतगढ़ में हुआ, जिनसे उन्हें ३ पुत्र हुए जिनके नाम थे, जुझार सिंह, जोरावर सिंह और फ़तेह सिंह। ४ अप्रैल, १६८४ को १७ वर्ष की आयु में उनका दूसरा विवाह सुन्दरी के साथ आनन्दपुर में हुआ, जिनसे उन्हें एक बेटा अजित सिंह हुए। १५ अप्रैल, १७०० को ३३ वर्ष की आयु में उन्होंने साहिब देवन से विवाह किया। वैसे तो उनसे उनकी कोई सन्तान नहीं थी, परंतु सिख पन्थ के पन्नों पर उनका दौर भी बहुत प्रभावशाली रहा।

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