
“इतिहास को आत्मा की पुकार बना देने का अनुपम प्रयोग”
जब इतिहास मौन से बोलता है…
हज़ारी प्रसाद द्विवेदी का उपन्यास बाणभट्ट की आत्मकथा एक ऐसा साहित्यिक अनुभव है, जो इतिहास को केवल कालक्रम में नहीं, बल्कि संवेदनशील आत्मा की भाषा में रचता है। यह उपन्यास सातवीं शताब्दी के कवि बाणभट्ट की आत्मकथा के रूप में लिखा गया है, लेकिन इसका ध्येय आत्मकथा से कहीं अधिक—यह एक सभ्यता का आत्मालाप, एक कालजयी आत्मसाक्षात्कार है।
द्विवेदी जी ने बाणभट्ट जैसे ऐतिहासिक पात्र को इतिहास की शुष्क गुफा से निकाल कर हमारे सामने एक सजीव, सोचने‑समझने वाला, प्रेम करने वाला, और आत्मसंघर्ष झेलने वाला मनुष्य बना दिया।
सत्ता, प्रेम और आत्मसत्य की यात्रा…
कथा आरंभ होती है जब बाणभट्ट, राजा हर्ष के दरबार में कवि के रूप में प्रतिष्ठित हो रहे हैं। लेकिन जल्द ही स्पष्ट होता है कि यह केवल दरबारी वैभव की गाथा नहीं है—यह उस व्यक्ति की कहानी है जो सत्ता से निकट होकर भी उसकी सच्चाई से भयभीत है, जो यश प्राप्त करता है, पर आत्मा को उसमें खोता हुआ अनुभव करता है।
कथा की परतों में हूणों का आक्रमण, नर्मदा की तीर्थयात्रा, काव्य-प्रतियोगिता, प्रेम, असहायता, सत्ता की साज़िशें और आत्म-मंथन जैसे बिंदु जुड़ते हैं, लेकिन ये सब घटनाएँ अंततः हमें एक ही दिशा में ले जाती हैं—मनुष्य की आत्मा की मुक्ति की ओर।
“कला केवल सौंदर्य का साधन नहीं, आत्मा की वाणी है; जब आत्मा क्लान्त होती है, कला चीख उठती है।” यह पंक्ति, जो उपन्यास के मध्य में आती है, उसके पूरे दर्शन का केन्द्रीय सूत्र है। बाणभट्ट का संघर्ष है—कला को दरबार की शोभा नहीं, आत्मा की पुकार बनाना।
संवेदना और प्रेम: जहाँ त्याग, सौंदर्य बनता है…
बाणभट्ट का प्रेम—भट्टिनी के प्रति—उपन्यास का सबसे मार्मिक पक्ष है। भट्टिनी केवल प्रेमिका नहीं, बल्कि उनके अहंकार के विनाश की अग्नि है। वह बाण को स्वयं से परिचित कराती है, उन्हें भीतर की दरिद्रता दिखाती है।
एक प्रसिद्ध प्रसंग में, जब बाणभट्ट भट्टिनी से विवाह की इच्छा प्रकट करते हैं, वह उन्हें अस्वीकार कर देती है।
“तुम कवि हो, बाण! तुम्हें शब्दों से दुनिया को बदलना है—न कि मेरे आँचल में बंध जाना है।” यह त्याग केवल प्रेम का नहीं, बल्कि एक उच्च उद्देश्य का चुनाव है। और यही भारतीय प्रेम-दर्शन की परंपरा है, जहाँ प्रेम प्राप्ति से नहीं, विरह और बलिदान से पवित्र होता है।
दर्शन और आत्मसंघर्ष: जब प्रश्न उत्तर से बड़े होते हैं
यह उपन्यास दरअसल बाणभट्ट के भीतर चल रहे आध्यात्मिक द्वंद्व की कथा है।
क्या कवि सत्ता का दास हो सकता है?
क्या प्रेम अपनी शर्तों पर होता है?
क्या आत्मा यश से संतुष्ट हो सकती है?
बाणभट्ट इन प्रश्नों से भागते नहीं—बल्कि तीर्थयात्राओं, वनों, एकांत में बैठकर उनके उत्तर खोजते हैं। लेकिन उत्तर उन्हें कहाँ मिलते हैं? केवल मौन में। केवल शून्य में।
कथा का अंत: मौन की भव्यता…
जैसे-जैसे उपन्यास अपने अंतिम पृष्ठों की ओर बढ़ता है, पाठक को लगता है कि अब कोई निर्णायक क्षण आएगा। लेकिन हज़ारी प्रसाद द्विवेदी ने यहाँ एक क्लासिक भारतीय शैली का अनुसरण किया है—उत्तर नहीं, मौन दिया है।
प्रयाग में संगम तट पर बैठा बाणभट्ट अब बोलना नहीं चाहता। “शब्द बचे हैं, लेकिन अब उनका उपयोग नहीं करना चाहता। संभवतः मौन ही मेरे लिए अब सबसे उपयुक्त कविता है।”
यह कोई हार नहीं है, न कोई पलायन। यह वह क्षण है जब कवि अपने भीतर उतरता है, और जानता है कि जो कहा जा सकता है, वह कविता नहीं; जो अनुभव किया जाए, वही सत्य है।
बाणभट्ट की आत्मकथा का यह अंत — एकांत, शांत, मौन — बिल्कुल वैसा ही है जैसे भारतीय दर्शन में ऋषि अंत में मौन हो जाते हैं, क्योंकि सत्य वाणी से परे होता है।
शब्दों से सृजन, मौन से मुक्ति…
द्विवेदी जी की भाषा में काव्य की कोमलता और शास्त्र की गंभीरता दोनों एक साथ उपस्थित हैं। उनके गद्य में एक ऐसा संतुलन है, जो पाठक को विचार भी देता है और रस भी।
संस्कृतनिष्ठ शब्दावली होते हुए भी उनका वाक्य विन्यास बोझिल नहीं, बल्कि संध्याकालीन नदी-सा बहता हुआ लगता है। विशेष रूप से आत्मालाप के दृश्य, यात्रा-वर्णन और प्रेम के क्षणों में उनकी भाषा मंत्रवत हो जाती है।
एक कालजयी तीर्थ…
बाणभट्ट की आत्मकथा केवल उपन्यास नहीं, एक आत्मिक तीर्थ है। यह वह स्थान है जहाँ शब्दों के माध्यम से विचार जन्म लेते हैं, और विचारों के बीच मौन आत्मा को पकड़ लेता है।
हज़ारी प्रसाद द्विवेदी ने न केवल एक ऐतिहासिक चरित्र को जीवित किया, बल्कि हमारे भीतर के बाणभट्ट को भी जगा दिया—जो जीवन से अधिक गूढ़, सच्चा और मौन है।
“शब्दों से बड़ा कोई तीर्थ नहीं।”
और संभवतः — मौन से बड़ा कोई शब्द नहीं।