उन्नीसवीं सदी के शुरुवाती दशक में एक रचनाकार ने जन्म लिया था मगर उसने अपने जीवन के खेल में अर्धशतकीय पारी भी नहीं खेल पाया था। मगर अपनी इस छोटी सी पारी में उसने ऐसे ऐसे कमाल दिखाए थे की हिन्दी भाषा के उपन्यास सम्राट मुंशी प्रेमचंद जी ने उस रचनाकार को भविष्य का रचनाकार माना था। इसकी एक ख़ास वजह थी कि वह अपने रचनाकाल से बहुत आगे की सोच का रचनाकार था। आईए उस महान रचनाकार को जानने के लिए हम पहले उनकी रचनाओं को जाने।
पहले तो हम यह बता देते हैं की उनका नाम भुवनेश्वर है और वे सही मायनो में मुंशी प्रेमचन्द जी की ही खोज हैं। इसके दो प्रमाण हैं…
उनकी अब तक के प्राप्त १२ कहानियों में से ९ और अब तक प्राप्त १७ नाटकों में से ९ मुंशी प्रेमचन्द जी द्वारा संस्थापित ‘हंस’ पत्रिका में ही प्रकाशित हुए हैं। भुवनेश्वर की पहली और एकमात्र प्रकाशित किताब ‘कारवाँ’ की पहली समीक्षा स्वयं प्रेमचन्द जी ने ही लिखी है। लेकिन भुवनेश्वर मात्र एक कहानीकार अथवा एकांकीकार ही नहीं वरन एक उत्कृष्ट कवि, सूक्तिकार और मारक टिप्पणीकार भी हैं। अपने सम्पूर्ण लेखनकाल में वे कहीं भी दबी ज़बान से नहीं बोलते नहीं देखे गए। उनकी अंग्रेज़ी की १० कविताओं में सत्यकथन की अघोर हिंसा का जो हाहाकार है वह हिन्दी कविता के तत्कालीन (छायावादी) वातावरण के बिल्कुल विपरीत और अत्याधुनिक है। भुवनेश्वर ने ‘डाकमुंशी’ और ‘एक रात’ जैसी कहानियाँ लिखकर प्रेमचन्द के चरित्रवाद और घटनात्मक कथानकवाद का एक ‘तोड़’ प्रस्तुत किया। उनकी ‘भेड़िये’ कहानी आज की गलाकाट प्रतियोगिताओं की एक प्रतीकात्मक पूर्व झाँकी है, जहाँ अपना अस्तित्व बचाए रखने के लिए दूसरों की बलि चढ़ाने में ज़रा भी हिचक नहीं। उनके प्रसिद्ध नाटक ‘ताँबे के कीड़े’ में संवादों के होते हुए भी संवादात्मकता का पूरी तरह लोप है। भुवनेश्वर के सम्पूर्ण लेखन में सन्नाटे का एक ‘अनहद’ है जो कहीं से भी आध्यात्मिक नहीं। भुवनेश्वर हिन्दी के एक ऐसे उपेक्षित और भुलाए गए लेखक हैं, जो अपनी पैदाइश के आज सौ वर्षों बाद अब ज़्यादा प्रासंगिक और आधुनिक नज़र आते हैं और शायद आगे और भी प्रासंगिक नजर आने वाले हैं। भुवनेश्वर हर पीढ़ी के बाद की आने वाली पीढ़ियों के लेखक हैं।
हो सकता है की आप हमारी बात पर विश्वास ना कर पाएं तो एक बार उन्हें मेरे कहने पर पढ़े फिर दूसरी बार, तीसरी बार और ना जाने कितनी बार आप स्वयं उन्हें पढ़ते जाएंगे। मगर अभी आप की सुविधा के लिए हम उनकी साहित्यिक विशेषताओं पर प्रकाश डालते हैं…
उनकी रचनाओं के अनुशीलन से यही धारणा बनती है कि पश्चिम के आधुनिक साहित्य का उन्होंने अच्छी तरह से अध्ययन किया है। वे इब्सन, शॉ.डी.एच., लॉरेंस तथा फ्रॉयड के प्रति विशेष अनुरक्त प्रतीत होते हैं। ज़िन्दगी को उन्होंने कड़वाहट, तीखेपन, विकृति और विद्रुपता से ही देखा था। सम्भवतः इसी कारण उनमें समाज के प्रति तीव्र वितृष्णा, प्रबल आक्रोश और उग्र विद्रोह का भाव प्रकट हुआ है। जीवन की इस कटु अनुभूति ने ही उन्हें फक्क्ड़, निर्द्वन्द्व और संयमहीन बना दिया था। भुवनेश्वर ने हिन्दी पाश्चात्य शैली के एकांकी की परंपरा बनायी।
उनकी प्रथम रचना ‘श्यामा-एक वैवाहिक विडंबना’, ‘हंस पत्रिका के दिसंबर १९३३ के अंक में प्रकाशित हुई। इसके बाद अन्य एकांकी रचनाएँ ‘शैतान'(वर्ष १९३४), ‘एक साम्यहीन साम्यवादी’ (हंस, मार्च १९३४), ‘प्रतिभा का विवाह’ (१९३३), ‘रहस्य रोमांच’ (१९३५), ‘लाटरी’ (१९३५) में प्रकाशित हुईं। इन्हें संग्रहीत करके वर्ष १९५६ में ‘कारवां’ संज्ञा देकर प्रकाशित किया गया। विद्वानो के अनुसार इन सभी एकांकियों पर पश्चिम की एकांकी शैली की छाप है। विषय-वस्तु और समस्या के विश्लेषण में पश्चिम के बुद्धिवादी नाटककारों इब्सन और शॉ का प्रभाव है। परिशिष्ट करने वाले जो सूत्र-वाक्य दिये हैं, वे शॉ के व्यंग और फ्रॉयड की यौन-प्रधान विचारधारा का स्मरण दिलाते हैं।
भुवनेश्वर के और भी एकांकी प्रकाशित हुए हैं, ‘मृत्यु’ (‘हंस १९३६), ‘हम अकेले नहीं हैं’ तथा ‘सवा आठ बजे’ (‘भारत’), ‘स्ट्राइक’ और ‘ऊसर’ (‘हंस’ १९३८)। इन रचनाओं में उनकी दृष्टि का विस्तार देखने को मिलता है। यौन-समस्या तथा प्रेम के त्रिकोण से ऊपर उठकर वे समाज के दुख-दर्द को भी देखने लगे। वर्ष १९३८ में सुमित्रानंदन पंत द्वारा संपादित ‘रूपाभ’ पत्रिका में उन्होंने एक बड़े नाटक ‘आदमखोर’ का पहला अंक प्रकाशित कराया। इससे उन्होंने जीवन की कटु वास्तविकताओं के उद्घाटन का घोर यथार्थवादी दृष्टिकोण अपनाया है।
वर्ष १९४० में उन्होंने गोगोल के प्रसिद्ध नाटक ‘इंस्पेक्टर जनरल’ को लगभग पौन घंटे के एकांकी का रूप दिया। वर्ष १९४१ में ‘विश्ववाणी’ में ‘रोशनी और आग’ शीर्षक एक प्रयोग उपस्थित किया, जिसमें ग्रीक नाटकों जैसा पूर्वालाप, कोरस था। ‘कठपुतलियाँ’ (वर्ष १९४२) में उन्होंने प्रतीकवादी शैली अपनायी। इन प्रयोगात्मक रचनाओं के अनंतर भुवनेवर की नाट्यकला परिपक्व रूप में देखने को मिली। ‘फोटोग्राफर के सामने’ (वर्ष १९४५), ‘तांबे के कीड़े’ (वर्ष १९४६) में मनुष्य की बढ़ती हुई अर्थलोलुपता का उद्घाटन है। वर्ष १९४८ में ‘इतिहास की केंचुल’ एकांकी लिखा और इसके अनंतर उनके कई ऐतिहासिक एकांकी प्रकाशित हुए- ‘आज़ादी की नींव’, ‘जेरूसलम’, ‘सिकंदर (वर्ष १९४९), ‘अकबर’ तथा ‘चंगेज़ खाँ’ दोनो वर्ष १९५० में। इन रचनाओं में राष्ट्रीयता का स्वर भी साफ सुनाई देता है। अंतिम कृति भी ‘सीओ की गाड़ी’ १९५० में ही आई थी।
अब तक हमने उन्हें उनकी साहित्यिक विशेषताओं की नजर से जाना हैं, आईए अब हम उनका परिचय आपसे कराते हैं…
भुवनेश्वर प्रसाद श्रीवास्तव जी हिंदी के प्रसिद्ध एकांकीकार, लेखक एवं कवि थे। सही मायनो में भुवनेश्वर साहित्य जगत् का ऐसा नाम है, जिसने अपने छोटे से जीवन काल में लीक से हटकर अलग अलग किस्म का साहित्य सृजन किया। भुवनेश्वर ने मध्य वर्ग की विडंबनाओं को कटु सत्य के प्रतीरूप में उकेरा। उन्हें आधुनिक एकांकियों के जनक होने का गौरव भी हासिल है। एकांकी, कहानी, कविता, समीक्षा जैसी कई विधाओं में भुवनेश्वर ने साहित्य को नए तेवर वाली रचनाएं दीं। एक ऐसा साहित्यकार जिसने अपनी रचनाओं से आधुनिक संवेदनाओं की नई परिपाटी विकसित की। प्रेमचंद जैसे साहित्यकार ने उनको भविष्य का रचनाकार माना था। इसकी एक ख़ास वजह यह थी कि भुवनेश्वर अपने रचनाकाल से बहुत आगे की सोच के रचनाकार थे। उनकी रचनायों में कलातीतता का बोध है, परन्तु आश्चर्यजनक रूप से यह भूतकाल से न जुड़ कर भविष्य के साथ ज्यादा प्रासंगिक नज़र आती हैं। ‘कारवां’ की भूमिका में स्वयं भुवनेश्वर ने लिखा है कि ‘विवेक और तर्क तीसरी श्रेणी के कलाकारों के चोर दरवाज़े हैं”। उनका यह मानना उनकी रचनाओं में स्पष्टतया द्रष्टिगोचर भी होता भी है। इंसान को वस्तु में बदलते जाने की जो तस्वीर उन्होंने उकेरी, वो आज के समय में और भी अधिक प्रासंगिक हो जाती है।
भुवनेश्वर का जन्म उत्तरप्रदेश के शाहजहांपुर के केरुगंज (खोया मंडी) में, २० जून, १९१० में एक खाते-पीते परिवार में हुआ था। परन्तु बचपन में ही माँ की मौत से अचानक परिस्थितियां उनके विपरीत हो गई। इंटरमीडिएट का ये विद्यार्थी शाहजहांपुर को अलविदा करके इलाहाबाद चला गया। उस समय के भुवनेश्वर का बौद्धिक ज्ञान, हिन्दी-अंग्रेजी भाषाओं पर समान अधिकार, इंसानी रिश्तों को समझने का अदभुत नजरिया समकालीन लेखकों के लिए अचरज से कम नहीं था। परन्तु व्यक्तिगत रूप से स्वयं भुवनेश्वर का जीवन अभावों एवं कठिनताओं का पुलिंदा था। इलाहाबाद, बनारस, लखनऊ में भटकते भुवनेश्वर के लिए मित्र मंडली के घर आसरा और कठिनाइयों का चोली दामन का साथ रहा। परन्तु इन परेशानियों में भी उनकी साहित्य यात्रा अनवरत जारी रही। एक बार स्वयं प्रेमचंद ने उनसे अपने लेखन में ‘कटुता’ कम करने की राय दी थी, जिस पर उन्होंने कहा कि इस ‘कटुता’ की उपज के पीछे के कारणों की भी पड़ताल होनी चाहिये। शायद यही कारण, वो तमाम विसंगतियां थी, जिनका सामना उन्हें अपने जीवन में करना पड़ा। १९५७ में लखनऊ स्टेशन पर भुवनेश्वर ने दुनिया को अलविदा कह दिया। भुवनेश्वर की नियति पर रघुवीर सहाय की टिप्पणी सर्वाधिक सटीक है, ‘उनके साथ समाज ने जो किया, वह सच बोलने और सच्चे होने की ऐसे समाज द्वारा दी गई सजा थी, जो अपने को गुलामी से निकालकर आज़ाद होने के विरुद्ध था।’
साहित्यिक परिचय मेरी नजर में…
भुवनेश्वर की साहित्य साधना बहुआयामी थी। कहानी, कविता, एकांकी और समीक्षा सब में उनकी लेखनी एक नए कलेवर का एहसास दिलाती है। छोटी सी घटना को भी नई, परन्तु वास्तविकता के सर्वाधिक सन्निकट दृष्टि से देखने का नजरिया भुवनेश्वर की विशेषता है। हंस में १९३३ में भुवनेश्वर का पहला एकांकी श्यामा: एक वैवाहिक विडम्बना प्रकाशित हुआ था। १९३५ में प्रकाशित एकांकी संग्रह कारवां ने उन्हें एकांकीकार के रूप में प्रतिष्ठित कर दिया। भुवनेश्वर द्वारा लिखित नाटक तांबे का कीड़ा को विश्व की किसी भी भाषा में भी लिखे गये पहले असंगत नाटक का सम्मान प्राप्त है। उनके द्वारा लिखित एकांकियों में श्यामःएक वैवाहिक विडम्वना, रोमांसःरोमांच, स्ट्राइक, ऊसर, सिकन्दर आदि का नाम उल्लेखनीय है। भुवनेश्वर की पहली कहानी मौसी को प्रेमचंद ने समकालीन कहानियों के प्रतिनिधि संकलन हिंदी की आदर्श कहानियां में स्थान दिया। उनकी कहानी भेडिये हंस के अप्रैल, १९३५ अंक में प्रकाशित हुई। इस कहानी ने आधुनिक कहानियों की परम्परा में मज़बूत नींव का निर्माण किया। कैसे रेगिस्तान से गुजरता बंजारा भेड़ियों से जान बचाने के लिए उनके आगे चुग्गा फेंकता है। कहानी और जीवन दोनों में फेंकने के इस क्रम में सबसे पहले फेंकी जाती हैं वो चीजें जो अपेक्षाकृत कम महत्व की हैं। इस कहानी ने जीवन की कड़वी सच्चाई को बिना लाग-लपेट के प्रस्तुत किया। कुछ साहित्यकार तो इस कहानी के मर्म को किसी मैनेजमेंट क्लास के चुनिन्दा निष्कर्षों में भी सर्वश्रेष्ठ मानते हैं। मौसी, लड़ाई, माँ बेटे, मास्टनी आदि अन्य उल्लेखनीय कहानियाँ हैं। इसके अतिरिक्त भुवनेश्वर ने अंग्रेज़ी तथा हिन्दी में कुछ कविताएं तथा आलोचनात्मक लेख भी लिखे हैं। परन्तु उनके कृतित्व को पहचानने में लोगों ने भूल कर दी। शायद यही कारण था, कि इस अनोखे रचनाकार को पूरा जीवन संघर्षो और विवादों में गुजारना पड़ा। प्रेमचंद ने उनसे हंस से स्थाई रूप से जुड़ने का आग्रह किया था। परन्तु अनजान कारणों से ये संवाद पूरा ना हो सका। हालांकि उनकी रचनायें हंस में लगातार प्रकाशित होती रहीं। लेकिन अगर वो हंस के साथ जुड़ जाते तो उनका रचना संसार कहीं अधिक विस्तृत रूप में हमारे सामने होता। उनके अंतिम समय की रचनाओं को सहेजने वाला उनके साथ कोई नहीं था, जिसके फलस्वरूप उस दौरान रफ़ कागजों के पीछे लिखा गया हिंदी और अंग्रेजी का पूर्णतया मौलिक साहित्य अंधेरों में गुम हो गया। भुवनेश्वर की उपलब्ध सभी रचनाओं को आज पुनः लोगों तक पंहुचाने की आवश्यकता है।
साहित्यकारों की नज़रों में…
भानु भारती ने एक समय कहा भी था कि जब उन्होंने भुवनेश्वर के नाटक तांबे के कीड़े पर काम करना शुरू किया, तो उन्हें आश्चर्य हुआ कि आख़िर १९४६ में जब विश्व रंगमंच पर ऑयनोस्की और बैकेट का आगमन नहीं हुआ था, तो भुवनेश्वर द्वारा ऐसे नाटकों की परिकल्पना करना कितना आश्चर्यजनक है। छोटे कद, उलझे और बिखरे हुए बाल, मैला-सा पुराना कुर्ता-पायजामा, पैरों में साधारण-सी चप्पल और उंगलियों में सुलगी हुई बीड़ी फंसाए इसी मामूली आदमी ने अपनी प्रतिभा के बल पर हिंदी नाटकों के एक युग का सूत्रपात किया था।
रामविलास शर्मा ने उन्हें ‘न्यूरोटिक’ कहा, तो शमशेर ने उनके लिए नवाब, गिरहकट, ‘विट’ लिखा है। नवाब यानी जेब खाली, लेकिन आदतें रईसों जैसी। रामेश्वर शुक्ल ‘अंचल’ ने एक बार कहा था कि ‘न जाने क्यों भुवनेश्वर को यह गिला रहता था कि वह साहित्य-जगत में अस्वीकृत होने और ठोकर खाते हुए मिटते जाने के लिए ही लेखक बने हैं।’
रचनाएँ…
कहानी
१. आजादी : एक पत्र,
२. एक रात,
३. जीवन की झलक,
३. डाकमुंशी,
४. भेड़िये,
५. भविष्य के गर्भ में,
६. माँ-बेटे,
७. मास्टरनी,
८. मौसी,
९. लड़ाई,
१०. सूर्यपूजा,
११. हाय रे, मानव हृदय! आदि ।
एकांकी
१. एक साम्यहीन साम्यवादी,
२. एकाकी के भाव,
३. पतित (शैतान),
४. प्रतिभा का विवाह,
५. श्यामा : एक वैवाहिक विडंबना,
६. आज़ादी की नींव,
७. जेरूसलम,
८. सिकंदर,
९. अकबर,
१०. चंगेज़ खाँ,
११. मृत्यु,
१२. हम अकेले नहीं हैं,
१३. सवा आठ बजे आदि ॥
एक फिल्म आई थी ‘आनंद’, जिसमे एक डायलॉग था…ज़िंदगी बड़ी होनी चाहिए लंबी नहीं बाबू मोशाय। क्या आपको ऐसा नहीं लगता की यह बात सौ फीसदी सही है और सही व्यक्ति यानी भुवनेश्वर पर सटीक जान पड़ती है। आज यानी २० जून के उनके जन्मदिवस पर उनकी जीवनी पर लिखने में जो आनंद आया सही मायनो में वो आनंद पहले कभी नहीं आया।
धन्यवाद!