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📄 व्यास और आधुनिक विचार: ज्ञान की वैश्विक प्रासंगिकता

 

महर्षि कृष्ण द्वैपायन व्यास, जिन्हें आदिगुरु माना जाता है, उनकी रचनाएँ—विशेषकर महाभारत—केवल ऐतिहासिक आख्यान नहीं हैं, बल्कि ये मानव मन, नैतिकता और समाजशास्त्र के अमर पाठ हैं। आश्चर्य की बात यह है कि व्यास द्वारा सैकड़ों साल पहले स्थापित किए गए वैचारिक आधार आज के आधुनिक राजनीतिक दर्शन, मनोवैज्ञानिक द्वंद्वों और वैश्विक नीतिशास्त्र में भी समान रूप से प्रासंगिक हैं।

 

१. नीतिशास्त्र बनाम यथार्थवाद: कृष्ण और मैकियावेली

आधुनिक राजनीतिक विज्ञान में यथार्थवाद के सिद्धांत की बात अक्सर निकोलस मैकियावेली (१६वीं शताब्दी) के ग्रंथ द प्रिंस के संदर्भ में की जाती है, जहाँ उद्देश्य की पूर्ति के लिए साधनों की नैतिकता को गौण माना जाता है।

इसके विपरीत, महाभारत में कृष्ण की नीति धर्म और कर्तव्य (धर्म-सत्य) पर आधारित है, लेकिन वह परिस्थिति के अनुसार ‘यथार्थ’ को साधने की वकालत भी करती है। कृष्ण का दर्शन मैकियावेली से कहीं अधिक सूक्ष्म और नैतिक रूप से जटिल है। कृष्ण यह नहीं सिखाते कि “साध्य को साधन सिद्ध करता है,” बल्कि यह सिखाते हैं कि जब धर्म संकट में हो, तो धर्म की रक्षा के लिए नीति का प्रयोग अनिवार्य है। यह नीति आज के वैश्विक संघर्षों और कूटनीति में ‘धर्म’ (न्याय) और ‘शक्ति’ के संतुलन को समझने में मदद करती है।

 

२. आंतरिक द्वंद्व और अस्तित्ववाद: टॉलस्टॉय पर व्यास का प्रभाव

यूरोपीय साहित्य के महान लेखक, जैसे लियो टॉलस्टॉय, व्यास के कार्य से गहरे प्रभावित थे। टॉलस्टॉय के उपन्यासों में पात्रों के भीतर चलने वाला नैतिक और आध्यात्मिक द्वंद्व साफ दिखता है।

महाभारत में अर्जुन का विषाद (भगवद गीता का आधार) अस्तित्ववादी साहित्य का सबसे प्राचीन और गहरा उदाहरण है। अर्जुन प्रश्न करते हैं: “यह सब करने का क्या औचित्य है?” वह कर्म की विवशता, अपनों को खोने का दुख और जीवन के सारहीनता के करीब पहुँच जाता है। यह द्वंद्व आधुनिक मनोविज्ञान और पश्चिमी अस्तित्ववाद (जैसे ज्याँ पॉल सार्त्र) के ‘चुनने की स्वतंत्रता’ और उसके परिणामों के चिंतन से सीधा संबंध रखता है। व्यास ने यह सिद्ध किया कि युद्ध सबसे पहले मन के भीतर लड़ा जाता है।

 

३. सामाजिक न्याय और लोक कल्याण: कबीर और व्यास

भक्तिकाल के संत, जैसे कबीरदास, ने समाज में मौजूद रूढ़ियों पर प्रहार किया। हालांकि, कबीर के निर्गुण भक्ति मार्ग का आधार भी अंततः वेदों और उपनिषदों के सार—यानी ‘तत्वमसि’ (तुम वही हो) और आत्म-ज्ञान पर टिका है, जिसे व्यास ने संकलित किया।

व्यास का ज्ञान केवल राजाओं या ऋषियों के लिए नहीं था; उन्होंने १८ पुराणों के माध्यम से जटिल वैदिक ज्ञान को कहानियों और लोक आख्यानों के रूप में साधारण जनता तक पहुँचाया। यह ज्ञान का लोकतंत्रीकरण था, जिसकी आवश्यकता आधुनिक युग में भी बनी हुई है ताकि ज्ञान केवल अभिजात वर्ग तक सीमित न रहे।

 

४. निष्कर्ष

व्यास की रचनाएँ एक मानसिक प्रयोगशाला के समान हैं, जहाँ हर विचारधारा, हर द्वंद्व और हर समाधान पहले से ही मौजूद है। आधुनिक विश्व की जटिलताओं—चाहे वह राजनीतिक अस्थिरता हो, नैतिक संकट हो, या अस्तित्व का प्रश्न हो—के जवाब आज भी वेद, पुराण और गीता के पन्नों में छिपे हैं।

इसलिए यह कथन सत्य है: व्यास एक ही रहेंगे, क्योंकि उनके चिंतन की प्रासंगिकता समय और भूगोल की सीमाओं से परे है।

 

विद्यावाचस्पति अश्विनी राय ‘अरुण’

 

व्यास की रचनाएं (कविता)

 

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