जन्मभूमि जो अपनी है,
मुगलों का क्यों अधिकार यहाँ।
क्यों करें गुलामी उनकी हम,
मिटने को जब सब तैयार यहाँ॥
येन केन प्रकारेण युद्ध में,
जीतना जरूरी होता है।
पूर्ण स्वराज की खातिर तो,
बलिदान जरूरी होता है॥
बात उस समय की है, जब बीजापुर का राज्य आपसी संघर्ष तथा विदेशी आक्रमणकाल के दौर से गुजर रहा था। ऐसे साम्राज्य के सुल्तान की सेवा करने के बदले शिवाजी मावलों को बीजापुर के ख़िलाफ संगठित करने लगे। मावल संघर्षपूर्ण जीवन व्यतीत करने के कारण कुशल योद्धा माने जाते थे। अतः मावल युवकों को साथ लाकर उन्होंने दुर्ग निर्माण का कार्य आरम्भ कर दिया। मावलों का सहयोग शिवाजी महाराज के लिए बाद में उतना ही महत्वपूर्ण साबित हुआ जितना कभी शेरशाह सूरी के लिए अफ़गानों का साथ।
बीजापुर आपसी संघर्ष तथा मुग़लों के आक्रमण से परेशान था। बीजापुर के सुल्तान आदिलशाह ने बहुत से दुर्गों से अपनी सेना हटाकर उन्हें स्थानीय शासकों या सामन्तों के हाथ सौंप दिया था। जब आदिलशाह बीमार पड़ा तो बीजापुर में अराजकता फैल गई और शिवाजी महाराज ने अवसर का लाभ उठाकर बीजापुर में प्रवेश का निर्णय लिया। शिवाजी महाराज ने इसके बाद के दिनों में बीजापुर के दुर्गों पर अधिकार करने की नीति अपनाई। सबसे पहला दुर्ग था रोहिदेश्वर का दुर्ग।
दुर्गों पर नियंत्रण…
रोहिदेश्वर का दुर्ग सबसे पहला दुर्ग था जिसको शिवाजी महाराज ने सबसे पहले अधिकार किया था। उसके बाद तोरणा का दुर्ग जो पुणे के दक्षिण पश्चिम में ३० किलोमीटर की दूरी पर था। शिवाजी ने सुल्तान आदिलशाह के पास अपना दूत भेजकर खबर भिजवाई की वे पहले किलेदार की तुलना में बेहतर रकम देने को तैयार हैं और यह क्षेत्र उन्हें सौंप दिया जाये। उन्होंने आदिलशाह के दरबारियों को पहले ही रिश्वत देकर अपने पक्ष में कर लिया था और अपने दरबारियों की सलाह के मुताबिक आदिलशाह ने शिवाजी महाराज को उस दुर्ग का अधिपति बना दिया। उस दुर्ग में मिली सम्पत्ति से शिवाजी महाराज ने दुर्ग की सुरक्षात्मक कमियों की मरम्मत का काम करवाया। इससे कोई १० किलोमीटर दूर राजगढ़ का दुर्ग था और शिवाजी महाराज ने इस दुर्ग पर भी अधिकार कर लिया।शिवाजी महाराज की इस साम्राज्य विस्तार की नीति की भनक जब आदिलशाह को मिली तो वह क्षुब्ध हुआ। उसने शाहजी राजे को अपने पुत्र को नियन्त्रण में रखने को कहा। शिवाजी महाराज ने अपने पिता की परवाह किये बिना अपने पिता के क्षेत्र का प्रबन्ध अपने हाथों में ले लिया और नियमित लगान बन्द कर दिया। राजगढ़ के बाद उन्होंने चाकन के दुर्ग पर अधिकार कर लिया और उसके बाद कोंडना के दुर्ग पर अधिकार किया। इन सबसे परेशान होकर आदिलशाह ने अपने सबसे काबिल मुलाजिम मिर्जाराजा जयसिंह को भेजकर शिवाजी के २३ किलों पर फिर से कब्जा कर लिया। उसने पुरंदर के किले को नष्ट कर दिया। अतः शिवाजी को उससे संधि करनी पड़ी और उसके शर्त को मानते हुए अपने पुत्र संभाजी को मिर्जाराजा जयसिंह को सौपना पड़ा। बाद में शिवाजी महाराज के मावला तानाजी मालुसरे ने कोंढाणा दुर्ग पर कब्जा कर लिया, पर उस युद्ध में वह विरगती को प्राप्त हुआ। उसकी याद में, कोंडना पर अधिकार करने के बाद उसका नाम सिंहगढ़ रखा गया। शाहजी राजे को पुणे और सूपा की जागीरदारी दी गई थी और सूपा का दुर्ग उनके सम्बंधी बाजी मोहिते के हाथ में थी। शिवाजी महाराज ने रात के समय सूपा के दुर्ग पर आक्रमण करके दुर्ग पर अधिकार कर लिया और बाजी मोहिते को शाहजी राजे के पास कर्नाटक भेज दिया। उसकी सेना का कुछ भाग भी शिवाजी महाराज की सेवा में आ गया। इसी समय पुरन्दर के किलेदार की मृत्यु हो गई और किले के उत्तराधिकार के लिए उसके तीनों बेटों में लड़ाई छिड़ गई। दो भाइयों के निमंत्रण पर शिवाजी महाराज पुरन्दर पहुंचे और कूटनीति का सहारा लेते हुए उन्होंने सभी भाइयों को बन्दी बना लिया। इस तरह पुरन्दर के किले पर भी उनका अधिकार स्थापित हो गया। वर्ष १६४७ तक वे चाकन से लेकर नीरा तक के भूभाग के भी अधिपति बन चुके थे। अपनी बढ़ी सैनिक शक्ति के साथ शिवाजी महाराज ने मैदानी इलाकों में प्रवेश करने की योजना बनाई।
एक अश्वारोही सेना का गठन कर शिवाजी महाराज ने आबाजी सोन्देर के नेतृत्व में कोंकण के विरुद्ध एक सेना भेजी। आबाजी ने कोंकण सहित नौ अन्य दुर्गों पर अधिकार कर लिया। इसके अलावा ताला, मोस्माला और रायटी के दुर्ग भी शिवाजी महाराज के अधीन आ गए थे। लूट की सारी सम्पत्ति रायगढ़ में सुरक्षित रखी गई। कल्याण के गवर्नर को मुक्त कर शिवाजी महाराज ने कोलाबा की ओर रुख किया और यहाँ के प्रमुखों को विदेशियों के ख़िलाफ़़ युद्ध के लिए उकसाया।
शाहजी की बन्दी….
बीजापुर का सुल्तान शिवाजी महाराज की हरकतों से पहले ही आक्रोश में था। उसने शिवाजी महाराज के पिता को बन्दी बनाने का आदेश दे दिया। शाहजी राजे उस समय कर्नाटक में थे और एक विश्वासघाती सहायक बाजी घोरपड़े द्वारा बन्दी बनाकर बीजापुर लाए गए। उन पर यह भी आरोप लगाया गया कि उन्होंने कुतुबशाह की सेवा प्राप्त करने की कोशिश की थी जो गोलकुंडा का शासक था और इस कारण आदिलशाह का शत्रु। बीजापुर के दो सरदारों की मध्यस्थता के बाद शाहाजी महाराज को इस शर्त पर मुक्त किया गया कि वे शिवाजी महाराज पर लगाम कसेंगे। अगले चार वर्षों तक शिवाजी महाराज ने बीजीपुर के ख़िलाफ कोई आक्रमण नहीं किया। इस दौरान उन्होंने अपनी सेना संगठित की।
शाहजी की मुक्ति की शर्तों के मुताबिक शिवाजी ने बीजापुर के क्षेत्रों पर आक्रमण तो नहीं किया लेकिन उन्होंने दक्षिण-पश्चिम में अपनी शक्ति बढ़ाने की चेष्टा की। इस क्रम में जावली का राज्य बाधा का काम कर रहा था। यह राज्य सातारा के सुदूर उत्तर पश्चिम में वामा और कृष्णा नदी के बीच में स्थित था। यहाँ का राजा चन्द्रराव मोरे था जिसने ये जागीर शिवाजी से प्राप्त की थी। शिवाजी ने मोरे शासक चन्द्रराव को स्वराज में शमिल होने को कहा पर चन्द्रराव बीजापुर के सुल्तान के साथ मिल गया। वर्ष १६५६ में शिवाजी ने अपनी सेना लेकर जावली पर आक्रमण कर दिया। चन्द्रराव मोरे और उसके दोनों पुत्रों ने शिवाजी के साथ लड़ाई की और अन्त में वे बन्दी बना लिए गए किन्तु चन्द्रराव भाग निकला। स्थानीय जनता ने शिवाजी के इस कृत्य का शुरू शुरू में विरोध किया मगर अंत में स्वराज के खातिर वे भी मान गए।इससे शिवाजी को उस दुर्ग में संग्रहित आठ वंशों की सम्पत्ति मिल गई। इसके अलावा कई मावल सैनिक मुरारबाजी देशपांडे भी शिवाजी की सेना में सम्मिलित हो गए।
मुगलों से मुठभेड़ की शुरुआत…
शिवाजी के बीजापुर तथा मुगल दोनों शत्रु थे। उस समय शहज़ादा औरंगजेब दक्कन का सूबेदार था। इसी समय यानी १ नवम्बर, १६५६ को बीजापुर के सुल्तान आदिलशाह की मृत्यु हो गई जिसके बाद बीजापुर में अराजकता का माहौल पैदा हो गया। इस स्थिति का लाभ उठाकर औरंगज़ेब ने बीजापुर पर आक्रमण कर दिया और शिवाजी ने औरंगजेब का साथ देने की बजाय उसी पर धावा बोल दिया। उनकी सेना ने जुन्नार नगर पर आक्रमण कर ढेर सारी सम्पत्ति के साथ २०० घोड़े लूट लिये। अहमदनगर से ७०० घोड़े, चार हाथी के अलावा उन्होंने गुण्डा तथा रेसिन के दुर्ग पर भी लूटपाट मचाई। इसके परिणामस्वरूप औरंगजेब शिवाजी से खफ़ा हो गया और जिस कारण मैत्री वार्ता समाप्त हो गई। शाहजहां के आदेश पर औरंगजेब ने बीजापुर के साथ सन्धि कर ली और इसी समय शाहजहां बीमार पड़ गया। उसके व्याधिग्रस्त होते ही औरंगज़ेब उत्तर भारत चला गया और वहां शाहजहां को कैद करने के बाद मुगल साम्राज्य का शाह बन गया।
कोंकण पर अधिकार…
दक्षिण भारत में औरंगजेब की अनुपस्थिति और बीजापुर की डवाँडोल राजनीतिक स्थित को जानकर शिवाजी ने समरजी को जंजीरा पर आक्रमण करने को कहा। पर जंजीरा के सिद्दियों के साथ उनकी लड़ाई कई दिनों तक चली। इसके बाद शिवाजी ने खुद जंजीरा पर आक्रमण किया और दक्षिण कोंकण पर अधिकार कर लिया और दमन के पुर्तगालियों से वार्षिक कर एकत्र किया। कल्याण तथा भिवण्डी पर अधिकार करने के बाद वहां नौसैनिक अड्डा बना लिया। इस समय तक शिवाजी ४० दुर्गों के मालिक बन चुके थे।
बीजापुर से संघर्ष…
इधर औरंगजेब के आगरा लौट जाने के बाद बीजापुर के सुल्तान ने भी राहत की सांस ली। अब शिवाजी ही बीजापुर के सबसे प्रबल शत्रु रह गए थे। शाहजी को पहले ही अपने पुत्र को नियन्त्रण में रखने को कहा गया था पर शाहजी ने इसमें अपनी असमर्थता जाहिर की। शिवाजी से निपटने के लिए बीजापुर के सुल्तान ने अब्दुल्लाह भटारी (अफ़ज़ल खां) को शिवाजी के विरूद्ध भेजा। अफ़जल खान ने वर्ष १६५९ में १२०००० सैनिकों के साथ कूच किया। तुलजापुर के मन्दिरों को नष्ट करता हुआ वह सतारा के ३० किलोमीटर उत्तर, शिरवल के नजदीक तक आ गया। पर शिवाजी प्रतापगढ़ के दुर्ग पर ही रहे। अफजल खां ने अपने दूत कृष्णजी भास्कर को सन्धि-वार्ता के लिए भेजा। उसके अनुसार अगर शिवाजी बीजापुर की अधीनता स्वीकार कर ले तो सुल्तान उसे उन सभी क्षेत्रों का अधिकार दे देंगे जो शिवाजी के नियन्त्रण में हैं। साथ ही शिवाजी को बीजापुर के दरबार में एक सम्मानित पद प्राप्त होगा। हालांकि शिवाजी के मंत्री और सलाहकार इस सन्धि के पक्ष में थे पर शिवाजी को यह वार्ता रास नहीं आई। उन्होंने कृष्णजी भास्कर को उचित सम्मान देकर अपने दरबार में रख लिया और अपने दूत गोपीनाथ को वस्तुस्थिति का जायजा लेने अफजल खान के पास भेजा। गोपीनाथ और कृष्णजी भास्कर से शिवाजी को ऐसा लगा कि सन्धि का षडयन्त्र रचकर अफजल खान शिवाजी को बन्दी बनाना चाहता है। अतः उन्होंने युद्ध के बदले अफजल खान को एक बहुमूल्य उपहार भेजा और इस तरह अफजल खान को सन्धि वार्ता के लिए राजी किया। सन्धि स्थल पर दोनों ने अपने सैनिक घात लगाकर रखे थे मिलने के स्थान पर जब दोनों मिले तब अफजल खान ने अपने कटार से शिवाजी पर वार किया बचाव में शिवाजी ने भी अफजल खान को अपने वाघनखो से मार दिया।
अफजल खान की मृत्यु के बाद शिवाजी ने पन्हाला के दुर्ग पर अधिकार कर लिया। इसके बाद पवनगढ़ और वसंतगढ़ के दुर्गों पर अधिकार करने के साथ ही साथ उन्होंने रूस्तम खां के आक्रमण को विफल भी किया। इससे राजापुर तथा दावुल पर भी उनका कब्जा हो गया। अब बीजापुर में आतंक का माहौल पैदा हो गया और वहां के सामन्तों ने आपसी मतभेद भुलाकर शिवाजी पर आक्रमण करने का निश्चय किया। २ अक्टूबर, १६६५ को बीजापुरी सेना ने पन्हाला दुर्ग पर अधिकार कर लिया। शिवाजी संकट में फंस चुके थे पर रात्रि के अंधकार का लाभ उठाकर वे भागने में सफल रहे। बीजापुर के सुल्तान ने स्वयं कमान सम्हालकर पन्हाला, पवनगढ़ पर अपना अधिकार वापस ले लिया। राजापुर को लूट लिया और श्रृंगारगढ़ के प्रधान को मार डाला। इसी समय कर्नाटक में सिद्दीजौहर के विद्रोह के कारण बीजापुर के सुल्तान ने शिवाजी के साथ समझौता कर लिया। इस सन्धि में शिवाजी के पिता शाहजी ने मध्यस्थता का काम किया। सन् १६६२ में हुई इस सन्धि के अनुसार शिवाजी को बीजापुर के सुल्तान द्वारा स्वतंत्र शासक की मान्यता मिली। इसी सन्धि के अनुसार उत्तर में कल्याण से लेकर दक्षिण में पोण्डा तक (२५० किलोमीटर) का और पूर्व में इन्दापुर से लेकर पश्चिम में दावुल तक (१५० किलोमीटर) का भूभाग शिवाजी के नियन्त्रण में आ गया। शिवाजी की सेना में इस समय तक ३०,००० पैदल और १,००० घुड़सवार हो गए थे।