बालाजी बाजीराव को नाना साहेब के नाम से भी जाना जाता है, जो अपने पिता और पूर्व पेशवा बाजीराव प्रथम की मृत्यु के बाद वर्ष १७४० में पेशवा की गद्दी पर बैठा था। इस पद की जिम्मेदारी छत्रपति शाहू जी महाराज ने उन्हें प्रदान की थी। वह मराठा साम्राज्य के आठवें तथा चितपावन ब्राह्मण कुल में जन्में तीसरे पेशवा थे। उनके शासनकाल में मराठा साम्राज्य अपनी चरम उत्कर्ष पर पहुंचा था।
परिचय…
बालाजी बाजीराव का जन्म ८ दिसम्बर, १७२१ को बाजीराव प्रथम का ज्येष्ठ पुत्र के रूप में हुआ था। वह पिता की मृत्यु के बाद पेशवा के पद पर बैठा था। पेशवा का पद बालाजी विश्वनाथ के समय में ही पैतृक बन गया था। वर्ष १७५० में हुए ‘संगोली संधि’ के बाद पेशवा के हाथ में सारे अधिकार सुरक्षित हो गये थे और ‘छत्रपति’ (राजा का पद) मात्र दिखावे भर के लिए रह गए थे।
विजय अभियान…
बालाजी बाजीराव ने मराठा शक्ति का विस्तार उत्तर से लेकर दक्षिण भारत तक किया। इस प्रकार देखा जाए तो उसके शासन काल में कटक से अटक तक मराठा साम्राज्य की दुदुम्भी बजने लगी थी। बालाजी ने मालवा तथा बुन्देलखण्ड में मराठों के अधिकार को क़ायम रखते हुए तंजौर प्रदेश को भी जीता। उसने वर्ष १७५२ में हैदराबाद के निज़ाम को एक युद्ध में पराजित कर ‘भलकी की संधि’ की, जिसके तहत निज़ाम ने बरार का आधा भाग मराठों को दे दिया। बंगाल पर किये गये आक्रमण के परिणामस्वरूप अलीवर्दी ख़ाँ को बाध्य होकर उड़ीसा त्यागना पड़ा और बंगाल तथा बिहार से चौथ के रूप में बारह लाख रुपया वार्षिक देना स्वीकार करना पड़ा। वर्ष १७६० में उदगिरि के युद्ध में निज़ाम ने करारी हार खाई, जिसकी वजह से मराठों ने साठ लाख रुपये वार्षिक कर का प्रदेश, जिसमें अहमदनगर, दौलताबाद, बुरहानपुर तथा बीजापुर नगर सम्मिलित थे, प्राप्त कर लिया।
शाहू के दस्तावेज़ पर महारानी ताराबाई की आपत्ति…
शाहू जी महाराज ने वर्ष १७४९ में अपनी मृत्यु से पूर्व एक दस्तावेज़ रख छोड़ा था, जिसमें पेशवा को कुछ बंधनों के साथ राज्य का सर्वोच्च अधिकार सौंप दिया गया था। उसमें यह कहा गया था कि पेशवा राजा के नाम को सदा बनाये रखे तथा ताराबाई के पौत्र एवं उसके वंशजों के द्वारा शिवाजी के वंश की प्रतिष्ठा क़ायम रखे। उसमें यह आदेश भी था कि कोल्हापुर राज्य को स्वतंत्र समझना चाहिए तथा जागीरदारों के मौजूदा अधिकारों को मानना चाहिए। पेशवा को जागीरदारों के साथ ऐसे प्रबन्ध करने का अधिकार रहेगा, जो हिन्दू शक्ति के बढ़ाने तथा देवमन्दिरों, किसानों और प्रत्येक पवित्र अथवा लाभदायक वस्तु की रक्षा करने में लाभकारी हों।
शाहू जी महाराज द्वारा जारी किये गए दस्तावेज़ पर ताराबाई ने गहरी आपत्ति प्रकट की। उसने दामाजी गायकवाड़ के साथ मिलकर पेशवा बालाजी बाजीराव के विरुद्ध विद्रोह कर दिया और छत्रपति रामराज यानी राजाराम द्वितीय भोसले को बन्दी बना लिया। परन्तु बालाजी बाजीराव ने अपने समस्त विपक्षियों को परास्त कर छत्रपति को आजाद करा दिया। परंतु वह पेशवा बालाजी बाजीराव के हाथों की कठपुतली बन कर रह गया।
कमियां…
बालाजी बाजीराव की सोच अति·विस्तारवादी थी। उसने मराठा साम्राज्य को बढ़ाने का संकल्प कर लिया था, परन्तु अपने पिता की नीति का परित्याग कर उसने भूल कर दी थी, जो इस प्रकार की थी…
१. उसके समय में सेना में बड़े ही बदलाव हुए। शिवाजी महाराज के समय से ही हल्की पैदल सेना मराठा शक्ति का प्रधान साधन हुआ करती थी। उसमें किसी भी तरह का बदलाव किए बगैर बाजीराव प्रथम ने बड़ी संख्या में घुड़सवारों की नियुक्ति भी की थी, परन्तु बालाजी बाजीराव ने युद्ध करने के पुराने कौशल का पूरी तरह से परित्याग कर, सेना में सभी प्रकार के भाड़े के ग़ैर-मराठा सैनिकों को, पश्चिमी युद्ध शैली के अपनाने के उद्देश्य से, नियुक्त कर लिया। इस प्रकार सेना में देशभक्ति और राष्ट्रहित की विचारधारा पूर्णरूपेण नष्ट हो गई। इतना ही नहीं विदेशी तत्वों को उचित अनुशासक एवं नियंत्रण में रखना आसान भी न रहा गया।
२. बालाजी बाजीराव ने जानबूझ कर अपने पिता के ‘हिन्दू पद पादशाही’ के आदर्श को, जिसका उद्देश्य था, सभी हिन्दू सरदारों को एक झण्डे के नीचे संयुक्त करना, त्याग दिया। उसके अनुगामियों ने लूटमार वाली लड़ाई की पुरानी योजना को अपनाया। वे मुस्लिम एवं हिन्दू दोनों के विरुद्ध बिना भेदभाव के लूटमार मचाने लगे। इससे राजपूतों तथा अन्य हिन्दू सरदारों की सहानुभूति जाती रही। इस प्रकार मराठा साम्राज्यवाद एक भारतव्यापी राष्ट्रीयता के लिए नहीं रह गया। अब इसके लिए भीतरी अथवा बाहरी मुस्लिम शक्तियों के विरुद्ध हिन्दू शक्तियों का एक झण्डे के नीचे संगठन करना सम्भव नहीं रहा। विशेषकर जब होल्कर और सिंधिया ने राजपूत प्रदेशों को लूटा और रघुनाथराव ने खम्बेर के जाट दुर्ग को घेर लिया। इसलिए पानीपत के युद्ध में जहाँ सभी मुस्लिम सरदार एक हो गए, वहीं मराठे, जाट और राजपूतों को अपनी ओर मिलाने में असफल हो गए। इतना ही नहीं तुलाजी आग्रिया की नौसेना को समाप्त करने में अंग्रेजों की मदद करना भी बालाजी बाजीराव की सबसे बड़ी भूल में से एक थी।
३. बालाजी बाजीराव के समय में ही अहमदशाह अब्दाली का आक्रमण हुआ, जिसमें मराठे बुरी तरह से परास्त हुए। इससे पहले बालाजी के समय मुग़ल साम्राज्य के स्थान पर हिन्दू राज्य की स्थापना के लिए स्थिति अनुकूल थी। भारत पर बाहरी आक्रमण हो रहे थे और वर्ष १७३९ में नादिरशाह द्वारा दिल्ली निर्दयतापूर्वक उजाड़ी जा चुकी थी। मुग़ल साम्राज्य की साख इतनी ज़्यादा इससे पहले कभी नहीं गिरि थी। इसके उपरान्त अहमदशाह अब्दाली के बार-बार के हमलों से वह और भी कमज़ोर हो गया। अहमदशाह अब्दाली ने पंजाब पर अधिकार कर लिया। दिल्ली को लूटा और अपने प्रतिनिधि के रूप में नाजीबुद्दौला को रख दिया, जो मुग़ल बादशाह के ऊपर व्यावहारिक रूप में हुक़ूमत करने लगा। इस प्रकार यह प्रकट था कि भारत के हिन्दुओं में यदि एकता स्थापित हो सके, तो वे मुग़ल साम्राज्य को समाप्त करने में समर्थ हो सकते हैं। इस पर भी पेशवा बालाजी बाजीराव इस अवसर से लाभ नहीं उठा सका।
४. उसकी सबसे बड़ी गलती दो मोर्चों पर एक साथ युद्ध करना था। पहला, दक्षिण में ‘निज़ाम’ के विरुद्ध और दूसरा, उत्तर में अहमदशाह अब्दाली के विरुद्ध लड़ने की ग़लती।
अहमदशाह अब्दाली…
बालाजी बाजीराव ने मुग़ल बादशाह से गठबंधन करके दिल्ली पर दबदबा जमा लिया और अहमदशाह अब्दाली के नायब नाजीबुद्दौला को खदेड़ दिया और पंजाब से अब्दाली के पुत्र तैमूर को भी निष्कासित कर दिया। इस प्रकार देखा जाए तो मराठों का दबदबा अटक तक फैल गया। परंतु मराठों की यह सफलता अल्पकालिक सिद्ध हुई। वर्ष १७५९ में पुन: भारत पर अहमदशाह अब्दाली का आक्रमण हुआ और उसने मराठों को जनवरी १७६० में बरार घाट की लड़ाई में हराया और पंजाब को पुन: प्राप्त कर दिल्ली की तरफ़ बढ़ा। इस बीच मराठों की लूटमार से न केवल रुहेले और अवध के नवाब वरन् राजपूत, जाट और सिक्ख भी विरोधी बन गये थे। रुहेले और अवध के नवाब तो अब्दाली से जा मिले और राजपूत, जाट और सिक्खों ने तटस्थ रहना ही उचित समझा। फलत: अब्दाली की फ़ौज का दिल्ली की तरफ़ बढ़ाव शाहआलम द्वितीय के लिए उतना ही बड़ा ख़तरा था, जितना कि मराठों के लिए। अत: दोनों ने आपस में संधि कर ली।
मराठों की ताकत ही पराजय का कारण बनी…
पेशवा बालाजी बाजीराव के आदेश पर, सदाशिवराव भाऊ के सेनापतित्व में एक बहुत बड़ी सेना अब्दाली को रोकने के लिए रवाना हुई। यह सेना पेशवाओं ने अभी तक की सबसे विशाल सेना थी। मराठों ने इस बार दिल्ली पर क़ब्ज़ा कर लिया, परंतु यह जीत ही उनके लिए मरुभूमि साबित हुई, क्योंकि वहाँ इतनी बड़ी सेना के लिए रसद उपलब्ध ही नहीं थी। अत: वे वहां बिना विश्राम किए, पानीपत की तरफ़ बढ़ गए। १४ जनवरी, १७६१ को अहमदशाह अब्दाली के साथ पानीपत का तीसरा निर्णायक युद्ध हुआ। मराठों की इसमें बुरी तरह से हार हुई। पेशवा का युवा पुत्र विश्वासराव, सेनापति भाऊ तथा अनेक मराठा सैनिक युद्ध के मैदान में खेत रहे। यह हार ताकत की नहीं बल्कि दूरदर्शिता की हार थी, जो ‘हिन्दू पद पादशाही’ के स्वप्न को धक्का देकर हजारों वर्ष पीछे धकेल दिया।
और अंत में…
वास्तव में पानीपत का तीसरा युद्ध समूचे राष्ट्र के लिए भयंकर वज्रपात सिद्ध हुआ। पेशवा बालाजी बाजीराव की, जो भोग-विलास के कारण पहले ही असाध्य रोग से ग्रस्त हो गए थे। अपनी हार से निराश तथा अपने प्रिय पुत्र विश्वासराव की मृत्यु का समाचार सुनकर बिल्कुल टूट गए और २३ जून, १७६१ को मृत्यु के गोद में समा गए। उसके बाद उनके पुत्र पेशवा माधवराव प्रथम पूर्णाधिकार प्राप्त पेशवा बने।
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