प्रस्तावना: खड़े-खड़े अपराधी हो गई अरावली!
अरावली पर्वतमाला सदियों से मौन खड़ी थी। उसने न कभी चुनाव लड़े, न रैलियों में भाषण दिए। वह तो बस चुपचाप अपना धर्म निभा रही थी—रेगिस्तान को रोकती रही, बादलों को रिझाती रही और हमारे फेफड़ों के लिए हवा साफ़ करती रही। शायद यही उसकी सबसे बड़ी गलती थी।
आज के भारत में जो चुप रहता है, वह या तो दोषी मान लिया जाता है या उसे परिभाषाओं के जाल में उलझाकर अस्तित्वहीन कर दिया जाता है। अरावली अब भूगोल का हिस्सा नहीं, बल्कि एक ‘कानूनी तकनीकी गड़बड़ी’ बन चुकी है। जिसे देखकर सिस्टम ने हैरानी से पूछा— “अरे, ये तो अब तक हमसे बच कैसे गया?”
भूगोल और इतिहास: वक्त से भी पुरानी विरासत
अरावली केवल पत्थरों का ढेर नहीं, बल्कि पृथ्वी के विकास की जीवित गवाह है।
(क) प्राचीनतम धरोहर: इसकी उत्पत्ति ‘प्रिकैम्ब्रियन’ (Pre-Cambrian) युग में हुई थी। जब हिमालय का जन्म भी नहीं हुआ था (जो कि अरावली की तुलना में एक ‘युवा’ पहाड़ है), तब अरावली आकाश चूम रही थी।
(ख) विस्तार: लगभग ६९२ किलोमीटर लंबी यह श्रृंखला गुजरात से शुरू होकर राजस्थान और हरियाणा को जीवन देती हुई दिल्ली के रायसीना हिल्स तक पहुँचती है।
(ग) ऐतिहासिक रक्षक: इसी ने सदियों तक आक्रमणकारियों की राह रोकी और महाराणा प्रताप जैसे महानायकों को अपनी गोद में शरण दी।
विज्ञान का तर्क: हमारा ‘साइलेंट’ लाइफ सपोर्ट सिस्टम
वैज्ञानिक दृष्टि से अरावली का होना उत्तर भारत के लिए ऑक्सीजन सिलेंडर जैसा है:
(क) मरुस्थलीकरण का रोध: यह थार मरुस्थल की उड़ती रेत और गर्म हवाओं के सामने एकमात्र ढाल है। इसके हटते ही दिल्ली-NCR ‘रेगिस्तान का एक्सटेंशन’ बन जाएगा।
(ख) जल संचयन (Groundwater): इसकी दरार वाली चट्टानें ‘एक्विफर’ हैं। फरीदाबाद, गुरुग्राम और दिल्ली का गिरता जलस्तर सिर्फ इसलिए बचा है क्योंकि ये पहाड़ बारिश का पानी जमीन के भीतर उतारते हैं।
(ग) फेफड़े और फिल्टर: यह क्षेत्र का सबसे बड़ा ‘कार्बन सिंक’ है, जो जहरीली हवा को सोखकर हमें सांस लेने योग्य ऑक्सीजन देता है।
कानूनी पेंच: 100 मीटर का ‘कातिल’ गणित
अरावली को ‘मारने’ के लिए हथियारों की नहीं, एक नई परिभाषा की जरूरत पड़ी। हालिया विवादों का केंद्र यही है:
(क) परिभाषा का खेल: अब बताया जा रहा है कि हर ऊँचाई पहाड़ नहीं होती। अगर ऊँचाई १०० मीटर से कम है, तो आप पहाड़ नहीं हैं; यह आपकी गलतफहमी है।
(ख) कानूनी ढील: जैसे ही इसे ‘पहाड़’ की श्रेणी से बाहर किया जाता है, ‘वन संरक्षण अधिनियम’ के कड़े नियम शिथिल हो जाते हैं। यह माफियाओं के लिए वह दरवाजा है जिससे घुसकर वे हज़ारों एकड़ जमीन पर कंक्रीट के महल खड़े कर सकते हैं।
अर्थशास्त्र और राजनीति: विकास की अंधी दौड़
अरावली के विनाश के पीछे के कारण बहुत गहरे और स्वार्थ से भरे हैं:
(क) खनन का लालच: अरावली की कोख में बेशकीमती पत्थर और खनिज दबे हैं। राजस्व और मुनाफे की भूख ने पहाड़ों को खोखला कर दिया है।
(ख) रियल एस्टेट का दबाव: दिल्ली-NCR में जमीन की कीमत सोने जैसी है। बिल्डरों की नज़र इन ‘हरी-भरी’ ऊँचाइयों पर है। राजनीति अक्सर इन पूंजीपतियों को लाभ पहुँचाने के लिए नियमों की लचीली व्याख्या करती है।
(ग) अतिक्रमण: वीआईपी फार्महाउसों और अवैध कब्जों ने पहाड़ों की चोटी को समतल कर दिया है।
व्यंग्य का कड़वा सच: “वेबिनार” से बचती प्रकृति
हम एक ऐसे ‘समाधान-प्रिय’ देश हैं जहाँ समस्या पैदा होने पर उत्सव मनाए जाते हैं:
जब पहाड़ कटेंगे, तो पर्यावरण पर वेबिनार बढ़ेंगे।
जब जंगल उजाड़े जाएंगे, तो फाइव-स्टार होटलों में बड़ी-बड़ी कॉन्फ्रेंस होंगी।
असली विकास शायद वही है जहाँ प्रकृति केवल फाइलों और नक्शों में जीवित रहे, ज़मीन पर नहीं।
“अगर पहाड़ बोल पाता, तो वह पूछता कि क्या हिमालय भी १०० मीटर कम होने पर ‘मिट्टी का टीला’ कहलाएगा?”
भविष्य की भविष्यवाणी: अगर अरावली नहीं रही तो?
(क) पानी का अकाल: पानी की जगह ‘टैंकर कल्चर’ फलता-फूलता रहेगा और हम हर साल कहेंगे— “इस साल गर्मी कुछ ज्यादा ही है, है ना?”
(ख) धूल का साम्राज्य: दिल्ली के कनॉट प्लेस में आप धूल भरी आंधियों के बीच ऊँटों के कारवां देखने को मजबूर होंगे।
(ग) अस्तित्व का संकट: जब किसी चीज़ को ‘मानना’ बंद कर दिया जाए, तो उसे बचाने की ज़रूरत भी खत्म हो जाती है। हम ऑक्सीजन सिलेंडर खरीदने के लिए कतारों में खड़े होंगे, लेकिन मुफ्त की ऑक्सीजन देने वाले पहाड़ों को ‘अवैध’ घोषित कर देंगे।
निष्कर्ष: जागने का अंतिम समय
अरावली का कटना सिर्फ भूगोल की क्षति नहीं, बल्कि हमारी नैतिक मृत्यु है। यह हमारी आने वाली पीढ़ियों के साथ किया जा रहा सबसे बड़ा विश्वासघात है। अरावली अभी भी खड़ी है… बस इस उम्मीद में कि शायद इंसान कागजों की स्याही से ऊपर उठकर हकीकत की हरियाली को देख सके।
अरावली पर्वतमाला को बचाओ — कागजों पर नहीं, धरातल पर।