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चार दीवारी, पर घर नहीं

 

किराए का घर—एक अस्थायी पता,

जहाँ दीवारों को भी पता होता है;

कि एक दिन विदाई निश्चित है,

यही इस ठहराव का अंतिम सत्य है।

 

यहाँ छत अपनी होती है, पर नींव पराई है,

हर कील ठुकने से पहले, मालिक से सहमति है।

यह कमरा मेरा है, पर मालिकाना हवाओं का है,

जो मेरे ठहरने की अवधि गिन सकती हैं।

 

मैंने इसे सजाया, जैसे यह मेरा ही संसार था,

कोनों में बिखेरा प्रेम, अपना विस्तार था।

मैंने यहाँ हँसकर खाया, रोकर सोए हैं,

अंदर के सारे मौसम यहीं पर संजोए हैं।

 

बच्चे चलना सीखे, उनकी ऊँगली के निशान हैं,

कलम की स्याही में लिखा है—ये सब बेईमान हैं।

यह घर नहीं है, यह तो एक ठहराव है,

एक पुल, जो रोज़गार के तटों को जोड़ता है।

 

हम यात्री हैं, सामान बाँधने की कला में दक्ष,

पता है, इस देहरी पर विराम-चिह्न लगेगा;

और फिर एक दिन, चुपके से निकलना होगा,

जाते हुए, कोई शिकायत नहीं होगी।

 

बस मन में रहेगी एक सूनी आह—

कि हर किराए की जगह में, 

हम अपना एक टुकड़ा छोड़ आते हैं;

और वह टुकड़ा, हमेशा वहीं,

किराएदार बनकर रह जाता है।

 

विद्यावाचस्पति अश्विनी राय ‘अरुण’

अश्विनी राय ‘अरुण’ जी समकालीन हिंदी साहित्य के एक गंभीर और मर्मस्पर्शी रचनाकार हैं। आपकी लेखनी सामाजिक यथार्थ, मानवीय संवेदनाओं और जीवन के अनछुए पहलुओं को बड़ी सरलता और गहराई के साथ चित्रित करती है। ‘विद्यावाचस्पति’ की उपाधि आपके ज्ञान और साहित्य के प्रति आपके समर्पण का प्रमाण है। आपकी रचनाओं में शब्दों का चयन न केवल पाठकों को प्रभावित करता है, बल्कि उन्हें सोचने पर भी विवश कर देता है।

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