एक शिक्षक जिसके कई रूप हैं। एक रूप शिक्षक का, दूसरा देशभक्त का। वे ज्योतिष भी थे और उन्होंने चिकित्सीय क्षेत्र में भी दो अलग अलग मुकाम हासिल किए हैं, एक यूनानी चिकित्सा व दूसरा वैद विशारद की। उनका मूल कार्य तो शिक्षण ही था जिस कारण उन्हें ‘गुरुजी’ के रूप में जाना जाता रहा। उन्होंने अपने जीवन में कई लोगों को शिक्षित कर उनके मन में देशभक्ति की भावना को जागृत किया। वहीं कई लोगों को शिक्षक बनने हेतु प्रेरित भी किया। आईए आज हम गुरुजी के बारे में जानते हैं…

जन्म तथा शिक्षा…

गुरुजी का नाम लक्ष्मण प्रसाद दुबे (Laxman Prasad Dubey) था। जिनका जन्म छत्तीसगढ़ स्थित दुर्ग ज़िले के दाढी गांव में ९ जून, १९०९ को हुआ था। वे गांव में प्राथमिक शिक्षा ग्रहण करने के पश्चात बेमेतरा से उच्‍चतर माध्यमिक व शिक्षक प्रशिक्षण प्राप्त कर शिक्षकीय कार्य में जुट गये। उनकी पहली नियमित पद स्थापना वर्ष १९२९ में भिलाई के माध्यमिक स्कूल में हुई थी। उस समय दुर्ग में स्वतंत्रता आंदोलन का ओज फैला हुआ था। ज्योतिष के विद्वान लक्ष्मण प्रसाद दुबे जी ने यूनानी चिकित्सा व वैद विशारद की परिक्षा भी पास की थी एवं शिक्षा के साथ चिकित्सकीय कार्य भी किया करते थे।

क्रांतिकारी शुरुआत…

भिलाई में शिक्षक के रूप में कार्य करते हुए लक्ष्मण प्रसाद दुबे जी का संपर्क ज़िले के वरिष्ठ सत्याग्रही नरसिंह प्रसाद अग्रवाल जी से हुआ। उस समय अग्रवाल जी किशोर व युवाजन के आदर्श थे। उनके मार्गदर्शन व आदेश से लक्ष्मण प्रसाद जी भिलाई में अपने साथियों एवं छात्रों के साथ मिलकर ‘मद्य निषेध आंदोलन’ व ‘विदेशी वस्त्र आंदोलन’ को हवा देने लगे। उसी समय उन्होंने भिलाई में विदेशी वस्तुओं के साथ जार्ज पंचम का चित्र भी जलाया। बढ़ते आंदोलन की भनक से अक्टूबर, १९२९ में भिलाई का मिडिल स्कूल बंद कर दिया गया और उनका स्थानांतरण बालोद मिडिल स्कूंल में कर दिया गया। लक्ष्मण प्रसाद दुबे को अपने नेता के साथ रहने का सौभाग्य प्राप्त हो गया, क्‍योंकि अग्रवाल जी बालोद के मूल निवासी थे।

जंगल सत्याग्रह का नेतृत्त्व…

बालोद के ग्राम पोडी में हुए जंगल सत्याग्रह की पूरी रूपरेखा एवं दस्तावेजी कार्य नरसिंह प्रसाद अग्रवाल जी ने इन्हें सौंप दिया था। इन दस्ता‍वेजों को दुर्ग पुलिस एवं गुप्तचरों से बचाते हुए जंगल सत्याग्रही व अन्य क्रियाकलापों का विवरण वे एक रजिस्टर में दर्ज करते रहे। अग्रवाल जी के जेल जाने के बाद भी उनके द्वारा जंगल सत्याग्रह को नेतृत्व प्रदान करते हुए कायम रखा गया। वे बतलाते थे कि उस समय सत्याग्रह रैली व सभाओं में ८-१० महिलायें भी आती थीं, जो चरखा लेकर आंदोलन का प्रतिनिधित्व करती थीं।

सत्याग्रही क्रियाकलाप…

उन्हीं दिनों वर्ष १९३० में बालोद के सर्किल ऑफिसर नायडू से लक्ष्मण प्रसाद दुबे जी की बहस हो गई। तब अग्रवाल परिवार की मध्यस्थता से इनका स्थानांतरण धमधा कर दिया गया। अब इनकी दौड़ बालोद-दुर्ग, धमधा दाढी तक होती रही। वे विश्वनाथ तामस्कर, रघुनंदन प्रसाद सिंगरौल, लक्ष्मण प्रसाद बैद के साथ सत्याग्रह आंदोलन के क्रियाकलापों से जुड़े रहे। नरसिंह प्रसाद अग्रवाल के इस क्षेत्र में दौरे का प्रभार लक्ष्मण प्रसाद दुबे जी के पास ही होता था। वर्ष १९३२ में अग्रवाल जी के दाढी के दौरे में वे रास्ते भर सक्रिय रहे। नरसिंह प्रसाद अग्रवाल युवा सत्याग्रहियों को हमेशा समझाया करते थे कि जोश के साथ होश मत खोना, क्योंकि जोश के कारण सभी बड़े नेता सरकार की हिट लिस्ट में आ गये थे, जिस कारण उनकी गिरफ़्तारी होती रहती थी।

स्वतंत्रता आंदोलन को जीवंत रखने के लिए द्वितीय पंक्ति के सत्याग्रहियों को अपना दायित्व निभाना था, अत: लक्ष्मण प्रसाद दुबे अपने गांधीवादी नरम रवैये से शिक्षकीय कार्य करते रहे। वर्ष १९४२ में लक्ष्मण प्रसाद दुबे का स्थानांतरण डौंडी लोहारा कर दिया गया। जंगल सत्याग्रह की रणनीति में माहिर लक्ष्मण प्रसाद दुबे जी के लिए यह स्थान बालोद जैसा ही रहा, क्योंकि यह स्थान जंगलों के बीच है, अत: वे वहां अपने मूल कार्य के साथ पैदल गांव-गांव का दौरा कर सत्याग्रह का पाठ पढ़ाते रहे। इस बीच उनको मार्गदर्शन नरसिंह प्रसाद अग्रवाल से मिलता रहा।

खानाबदोश जीवन…

वर्ष १९४२ में ही जमुना प्रसाद अग्रवाल अपने बडे भाई नरसिंह प्रसाद का संदेश लेकर लक्ष्मण प्रसाद दुबे जी के पास आये और उन्हें सचेत किया कि आपकी भी गिरफ़्तारी हो सकती है। यहां से वापस लौटते ही जमुना प्रसाद अग्रवाल को बालोद में गिरफ़्तार कर लिया गया और उसी रात लक्ष्मण प्रसाद दुबे को भी गिरफ़्तार करने का आदेश डौंडी में जारी कर दिया गया, जिसे लाल ख़ान सिपाही ने तामील करने के पहले ही लीक कर दिया और लक्ष्मण प्रसाद दुबे जी स्कूल का त्यागपत्र मित्रों के हाथ सौंपकर फरार हो गये एवं बालोद आ गये। जहां से वे भूमिगत हो गए। रायपुर के प्रमुख सक्रिय स्वतंत्रता संग्राम सेनानी मोतीलाल जी त्रिपाठी से पारिवारिक संबंधों का लाभ इन्हें मिलता रहा और लक्ष्मंण प्रसाद दुबे घुर जंगल क्षेत्र में स्वतंत्रता आंदोलन की लौ जलाते रहे। १९४२ से १९४७ तक ये खानाबदोश जीवन व्यतीत करते रहे। दुर्ग ज़िले के ग्रामीण क्षेत्रों में पैदल घूम-घूम कर सत्या‍ग्रह-शिक्षा का अलख जगाने के कारण ये गिरफ़्तारी से बचे रहे।

मृत्यु…

लक्ष्मण प्रसाद दुबे जी शिक्षक जीवन से अवकाश प्राप्त करने के बाद सक्रिय राजनीति में जनपद पंचायत बेमेतरा के सदस्य रहे। उन्होंने दुर्ग ज़िला कांग्रेस की सदस्यता वर्ष १९३० में ग्रहण की थी। १९४२ से १९४७ तक ज़िला कांग्रेस के कार्यकारिणी सदस्य के रूप में उन्होंनें कार्य किया। अपनी मृत्यु २३ जुलाई, १९९३ तक वे ज़िला कांग्रेस के सक्रिय सदस्य बने रहे।

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