November 21, 2024

अमर पुरोधा, क्रांति के जनक व प्रथम क्रांतिकारी भारतीय वीर सपूत मातादीन वाल्मीकि जी का जन्म २९ नवम्बर, १८२५ को एक अछूत समझी जाने वाली जाति में हुआ था। मातादीन वाल्मीकि वर्ष १८५७ में हुए प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के प्रथम सेनानियों में से थे। वे ब्रितानी ईस्ट इण्डिया कम्पनी की एक इकाई में कारतूस निर्माण का कार्य करने वाले एक मजदूर थे। वे उन शुरुआती क्रांतिकारियों में से एक हैं जिन्होंने १८५७ में आजादी का बीज बोया था।

घटना…

वैसे तो १८५७ की क्रांति की पटकथा ३१ मई को लिखी गई थी, लेकिन मार्च में ही यह विद्रोह छिड़ गया। दरअसल हुआ यह था कि बैरकपुर छावनी, कलकत्ता से मात्र १६ किलोमीटर की दूरी पर था। फैक्ट्री में कारतूस बनाने वाले मजदूर अछूत समझी जाने वाली जाति यानी हेला, भंगी, मेहतर आदि जाति के होते थे। एक दिन की बात है, वहां से एक मुसहर जाति का एक मजदूर छावनी आया। ये वही मातादिन थे, जिनको प्यास लगी थी, तब उन्होंने वहां से गुजर रहे मंगल पांडेय नाम के सैनिक से पानी मांगी। मंगल पांडे, ऊंची जाति के होने के कारण पानी पिलाने से इंकार कर दिया। एक तो पहले से ही मातादीन थकान और प्यास से बौखलाए हुए थे और उसपर से इंकार सुनकर उनको गुस्सा आ गया। गुस्से में उन्होंने जो कहा वह इतिहास बन गया, उन्होंने कहा, ’कैसा है तुम्हारा धर्म जो एक प्यासे को पानी पिलाने की इजाजत नहीं देता और गाय जिसे हमारा हिंदू समाज मां मानता है, और सूअर जिससे मुसलमान नफरत करते हैं, उसी के चमड़े से बने और चर्बी लगे कारतूस को मुंह से खोलते हैं।’ मंगल पांडेय को यह पता नहीं था। यह सुनकर वे चकित रह गए। इसके बाद उन्होंने मातादीन को पानी पिलाया और इस बात के बारे में बैरक के सभी लोगों को बताया। हिंदू तो हिंदू, इस बात को जानकर मुसलमान भी बौखला उठे। इसके बाद २४ अप्रैल, १८५७ को ब्रितानी सेना की तीसरी हल्की अश्वारोही सेना के ८५ सैनिकों ने जिसमे मंगल पांडे भी थे, ने चर्बीयुक्त कारतूस का प्रयोग करने से इंकार कर दिया। बात बेहद छोटी है, मगर इसकी गूंज बड़ी तेज थी। इसके बाद अंग्रेजी शासन व्यवस्था के विरुद्ध विद्रोह पैदा हो गया। शुरुवाती क्रांति की अलख जगाने वाले इन ८५ सैनिकों में हवलदार मातादीन अग्रणी थे। इसकी पुष्टि सर जी. डब्लू. फॉरेस्ट के द्वारा लिखे स्टेट पेपर्स और जेबी पामर की १८५७ के विद्रोह का आरंभ किताब से होती है। इतना ही नहीं, शहीद स्मारक पर लगे शिलापट पर भी हवलदार मातादीन का नाम पहले नंबर पर अंकित है। हालांकि नाम के आगे कुछ नहीं लिखा है। इन ८५ घुड़सवार सैनिकों को फांसी देने का भी कोई साक्ष्य उपलब्ध नहीं है।

साक्ष्य का आधार…

१. मगर कैप्टन राइट के एक पत्र के अनुसार, जिसने एक पत्र मेजर वोनटीन दमदम के नाम लिखा था। इस पत्र में मातादीन द्वारा गुप्त जानकारी सैनकों को देकर शासन के खिलाफ बातचीत का उल्लेख था। जिससे पता चलता है कि महान पुरोधा मातादीन को ८ अप्रेल, १८५७ को फाँसी दे दी गई थी, वह भी मंगल पांडे से पहले।

२. चर्बी वाले कारतूस के प्रयोग के इंकार के बाद इन ८५ सैनिकों को मेरठ के विक्टोरिया पार्क स्थित जेल में कैद किया गया था। और दस मई की शाम इनके सैनिक साथियों ने शाम को जेल से मुक्त करा लिया था। इतिहास कहता है कि इसके उपरांत वे सब दीन! दीन! चिल्लाते हुए दिल्ली के लिये कूच कर गए थे (उनके इस तरह चिल्लाने का कारण क्या था?)। ११ मई, १८५७ को वे सब दिल्ली पहुंचकर अंतिम मुगल बादशाह बहादुरशाह जफर को अनुरोध करके, उन्हें बादशाह घोषित कर दिया और फिर लाल किले पर इन सैनिकों ने झंडा फहरा दिया। इसके बाद वे सभी ८५ सैनिक कहां गये या इनकी क्या गतिविधियां रहीं? इस संदर्भ में अभिलेख बिल्कुल मौन है।

About Author

Leave a Reply