भारतीय संविधान की मूल प्रति का चित्रण…
नंदलाल बोस की मुलाकात पं. नेहरू से शांति निकेतन में हुई और वहीं नेहरू ने नंदलाल जी को इस बात का आमंत्रण दिया कि वे भारतीय संविधान की मूल प्रति को अपनी चित्रकारी से सजाएं। २२१ पेज के इस दस्तावेज के हर पन्नों पर तो चित्र बनाना संभव नहीं था। अतः नंदलाल जी ने संविधान के हर भाग की शुरुआत में ८-१३ इंच के चित्र बनाए। संविधान में कुल २२ भाग हैं। इस तरह उन्हें भारतीय संविधान की इस मूल प्रति को अपने २२ चित्रों से सजाने का मौका मिला। इन २२ चित्रों को बनाने में चार साल लगे। इस काम के लिए उन्हें २१,००० रुपए मेहनताना के रूप में दिया गया। नंदलाल बोस के बनाए इन चित्रों का भारतीय संविधान या उसके निर्माण प्रक्रिया से वास्तव में कोई ताल्लुक नहीं है। वास्तव में ये चित्र भारतीय इतिहास की विकास यात्रा हैं। सुनहरे बार्डर और लाल-पीले रंग की अधिकता लिए हुए इन चित्रों की शुरुआत होती है, भारत के राष्ट्रीय प्रतीक अशोक की लाट से। अगले भाग में भारतीय संविधान की प्रस्तावना है, जिसे सुनहरे बार्डर से घेरा गया है, जिसमें घोड़ा, शेर, हाथी और बैल के चित्र बने हैं। ये वही चित्र हैं, जो हमें सामान्यत: मोहन जोदड़ो की सभ्यता के अध्ययन में दिखाई देते हैं। भारतीय संस्कृति में शतदल कमल का महत्व रहा है, इसलिए इस बार्डर में शतदल कमल को भी नंदलाल जी ने जगह दी है। इन फूलों को समकालीन लिपि में लिखे हुए अक्षरों के घेरे में रखा गया है। अगले भाग में मोहन जोदड़ो की सील दिखाई गई है। वास्तव में भारतीय सभ्यता की पहचान में इस सील का बड़ा ही महत्व है। शायद यही कारण है कि हमारी सभ्यता की इस निशानी को शुरुआत में जगह दी गई है। अगले भाग से वैदिक काल की शुरुआत होती है। किसी ऋषि के आश्रम का चिह्न है। मध्य में गुरु बैठे हुए हैं और उनके शिष्यों को दर्शाया गया है। बगल में एक यज्ञशाला बनी हुई है।
परिचय…
संविधान की मूल प्रति पर चित्रकारी करने वाले प्रसिद्ध चित्रकार नंदलाल बोस का जन्म ३ दिसम्बर, १८८२ को बिहार के मुंगेर जिला में हुआ था। उनके पिता पूर्णचंद्र बोस पेशे से ऑर्किटेक्ट तथा दरभंगा राज की रियासत के मैनेजर थे। नंदलाल बोस को शिक्षा प्राप्त करने के लिए कई बार विद्यालय बदला गया मगर पढ़ाई में मन न लगने की वजह से हमेशा असफल होते रहते। उनकी रुचि शुरू से ही चित्रकला की ओर थी। उन्हें यह प्रेरणा अपनी माँ क्षेत्रमणि देवी से मिट्टी के खिलौने आदि बनाते हुए देखकर मिली। लाचारी में आकर नंदलाल को कला विद्यालय में भर्ती कराया गया। इस प्रकार ५ वर्ष तक उन्होंने चित्रकला की विधिवत शिक्षा ली। उन्होंने वर्ष १९०५ से १९१० के मध्य कलकत्ता गवर्नमेंट कॉलेज ऑफ़ आर्ट में अबनीन्द्ननाथ ठाकुर से कला की शिक्षा प्राप्त की। और फिर अंत में इंडियन स्कूल ऑफ़ ओरियंटल आर्ट में अध्यापन कार्य किया और तत्पाचात वर्ष १९२२ से १९५१ तक शान्तिनिकेतन के कलाभवन के प्रधानाध्यापक रहे।
प्रथम गुरु…
बिहार में प्राथमिक शिक्षा ग्रहण करने के बाद १५ वर्ष की आयु में नंदलाल उच्च शिक्षा की प्राप्ति के लिए बंगाल गए। उस समय बिहार, बंगाल से अलग नहीं था। कला के प्रति बालसुलभ मन का कौतुक उन्हें जन्मभूमि पर ही पैदा हुआ। यहाँ के कुम्भकार ही उनके पहले गुरु थे। बाद में वे बंगाल स्कूल के छात्र बने और फिर शांतिनिकेतन में कला भवन के अध्यक्ष। स्वतंत्रता आंदोलन में भी इन्होंने खूब हिस्सा लिया। वे गांधीजी, सुभाष चंद्र बोस तथा नेहरू के अत्यंत प्रिय थे। उन्हें अपनी बिहार की मिट्टी से इतना प्रेम था कि इतनी ऊंचाई पर पहुंच कर एवं अपने व्यस्ततम जीवनचर्या के बावजूद वे बार-बार अपनी जन्मभूमि को जीवनपर्यंत देखने आते रहे। छात्रों को साथ लेकर राजगीर और भीमबाध की पहाड़ियों में हर साल वे दो-तीन बार आया करते थे। परंतु आज विडंबना है कि राज्य सरकार द्वारा इनकी स्मृति को संरक्षित करने का कोई भी प्रयास आज तक नहीं हुआ।
देश भक्ति…
राष्ट्रीयता की भावना से ओतप्रोत श्री नंदलाल बसु असहयोग आंदोलन, नमक आंदोलन आदि आंदोलनों में सक्रिय भूमिका में भागीदारी निभाते रहे थे। स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान पुरानी विचार धारा और राष्ट्र की जरूरतों के मेल से जो नए अवधारणाएँ बन रही थीं, उनका प्रभाव उस समय के कलाकारों की कला में साफ दिख रहा था। नंदलाल बोस के हरिपुरा कांग्रेस अधिवेशन के लिए बनाए एक विशेष पोस्टर श्रृंखला में औरत की आध्यात्मिक शक्तियों को जो चित्रण नंदलाल बोस ने किया था, उससे यह साफ झलक रहा था कि इस कला की सारी प्रेरणा भारतीय संवेदना की प्रतीक है। वर्ष १९३६ में महात्मा गांधी अपने विचारों को फलितार्थ देखना चाहते थे। इसलिए अखिल भारतीय कांग्रेस के अधिवेशन में ग्रामीण कला और क्राफ्ट की एक कला प्रदर्शनी लगवाई गई थी। परिकल्पना गांधी जी ने की थी किंतु चरितार्थ नंदलाल बोस ने किया था। महात्मा गांधी ने उस अधिवेशन के पहले नंदलाल बोस को सेवाग्राम में बुलवाया और अपना दृष्टिकोण समझाया। हरिपुरा कांग्रेस अधिवेशन में भी इसी प्रकार की प्रदर्शनी की रचना हुई थीं। दोनों ही जगहों पर गांधीवादी कला दृष्टि अभिव्यक्त हुई। परंतु दुर्भाग्यपूर्ण बात यह है कि उन प्रदर्शनियों की कोई निशानी आज बची हुई नहीं है। राजनीतिक वैमनस्यता ने उनके वजूद को हर एक कोशिश की मगर वे आज भी जनमानस तुलिकाओं की रंगों में कहीं ना कहीं दिख ही जाते हैं।
सम्मान…
१. विश्वभारती ने उन्हें ‘देशोत्तम’ की उपाधि से सम्मानित किया।
२. भारत सहित विदेशों की अनेकों विश्वविद्यालयों ने उन्हें डी. लिट्. की उपाधि से सम्मानित कर स्वयं को सम्मान दिया है।
३. वर्ष १९५४ में वे भारत सरकार द्वारा ‘पद्मविभूषण’ से सम्मानित किए गए।
परंतु देश और कला की इतनी सेवा करने के बाद भी देश की किसी भी सरकार ने उन्हें वह सम्मान प्रदान नहीं किया जिसके वे सदा से हकदार थे। ऊपर दिए गए सारे सम्मान सिर्फ खानापूर्ति के थे। नंदलाल बोस १६ अप्रैल, १९६६ में हम सभी के बीच से चले गए, मगर अपने देश में कला को वह स्थान वे नहीं दिला पाए जो पश्चिम के देशों ने दिया है।
प्रसिद्ध चित्रकारी…
भगवान शिव द्वारा हलाहल विष का सेवन, यह चित्र वर्ष १९३३ में बनाई गई थी। इसकी एक पेंटिंग नैशनल गैलरी ऑफ मॉडर्न आर्ट और दूसरी ओसियान आर्काइव ऐंड लाइब्रेरी कलेक्शन में संग्रह के रूप में रखी हुई है। इसमें कोई शक नहीं नंदलाल बोस देश के पहले और सच्चे नवयुग चित्रकार थे। विद्वानों के अनुसार, इसे बनाने का माध्यम लाइन वॉश और वॉटर कलर था। जो अब राष्ट्रीय आधुनिक कला संग्रह में सुरक्षित है। उनके नाम से आज भी अधिकांश लोग अच्छी तरह वाकिफ हैं। इन्होंने अपनी चित्रकारी के माध्यम से आधुनिक आंदोलनों के विभिन्न स्वरूपों, सीमाओं और शैलियों को उकेरा, जिसे शांतिनिकेतन में बड़े पैमाने पर रखा गया। निस्संदेह नंदलाल बोस की चित्रकारी में एक अजीब सा जादू था, जो किसी को भी बरबस अपनी ओर आकर्षित कर लेता था। उनकी चित्रकारी में ख़ूबसूरती की एक अमिट छाप दिखाई पड़ती थी। बोस की पेंटिंग तकनीक भी कमाल की थी जिसका कोई जवाब नहीं है। नंदलाल की पेंटिंग का एशिया सहित पश्चिम के देशों में भी बड़ा प्रभाव था।