हिंदू कॉलेज के संस्थापकों में से एक थे, गोपी मोहन टैगोर। जो टैगोर परिवार की पथुरीघाट शाखा से ताल्लुक रखते थे। प्रसन्न कुमार टैगोर उन्हीं गोपी मोहन टैगोर के पुत्र थे, जिनपर आज हम चर्चा करने वाले हैं।
प्रारंभिक जीवन…
हिंदू समाज की रूढ़िवादी शाखा के नेताओं में से एक प्रसन्न कुमार टैगोर अथवा प्रोसुन्नो कुमार टैगोर का जन्म २१ दिसंबर, १८०१ को कलकत्ता में हुआ था। उनकी प्रारंभिक शिक्षा घर पर ही हुई, तत्पश्चात शेरबोर्न के स्कूल में उनका दाखिला करा दिया गया। उसके बाद वर्ष १८१७ में उनका नामांकन हिंदू कॉलेज में करा दिया गया। आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि हिंदू कॉलेज की स्थापना भी उसी वर्ष हुई थी और प्रसन्न कुमार नामांकन लेने वाले शुरुआती बच्चों में से थे। पारंपरिक स्मृति और पश्चिमी कानून के अपने ज्ञान के साथ, उन्होंने दीवानी अदालत (सिविल कोर्ट) में कानून का अभ्यास करना शुरू कर दिया। थोड़े समय के भीतर ही उन्हें सरकारी वकील नियुक्त कर दिया गया, लेकिन पारिवारिक संपत्ति की देखभाल के लिए वर्ष १८५० में उन्होंने वह नौकरी छोड़ दी। वर्ष १८५४ में जब वायसराय की परिषद् का गठन हुआ तो उन्हें लिपिक-सहायक के रूप में शामिल किया गया। उस समय वे बंगाल के प्रतिष्ठित बंगालियों में गिने जाते थे।
उपलब्धि…
१. वर्ष १८२३, वे रूढ़िवादी गौड़ीय समाज के संस्थापक-सचिव थे
२. उन्होंने सती प्रथा के उन्मूलन के लिए राजा राममोहन राय के अभियान में भी भाग लिया था। ब्रह्म सभा के १८३० ट्रस्ट डीड के अनुसार, वह ब्रह्म समाज के मूल ट्रस्टियों में से एक थे।
३. प्रसन्ना कुमार ने दुर्गा पूजा के उत्सव की शुरवात करवाई, जिसकी कड़ी आलोचना डेरोजियो ने की, जो स्वयं को आस्तिक राजा राममोहन राय का अनुयायी कहते थे।
४. वे उस समय के कई सामाजिक संगठनों से सक्रिय रूप से जुड़े हुए थे। जिनमें से एक में वे द्वारकानाथ टैगोर के साथ लैंडहोल्डर्स सोसाइटी और ब्रिटिश इंडियन एसोसिएशन की स्थापना में सक्रिय रूप से शामिल थे। वे वर्ष १८६७ में अध्यक्ष भी बने।
५. उन्होंने शिक्षा के प्रसार में भी अग्रणी भूमिका निभाई। कलकत्ता विश्वविद्यालय के प्रसिद्ध टैगोर लॉ प्रोफेसरशिप को उनके दान किए गए पैसे के ब्याज से ही बनाए रखा गया था।
६. जमींदारों के प्रवक्ता के रूप में उन्होंने सरकार का विरोध किया।
७. वर्ष १८६६ में ‘सिपाही विद्रोह सिद्धांत और ब्रिटिश सरकार’ शीर्षक से एक लेख प्रकाशित कर देशवासियों से एक अपील की।
८. बंगाल के हिंदू कानून के अनुसार उत्तराधिकार की मांग।
९. वर्ष १७९६ में पहली बार बंगाली नाटकों का मंचन हुआ जिसे रूसी विद्वान साहसी गेरासिम लेबेदेव ने किया। उल्लेखनीय यह है कि प्रसन्ना कुमार ने ही उस कार्यक्रम का फीता काटा।
१०. वर्ष १८३२ में, उन्होंने नारकेलडांगा के अपने घर में एक अस्थायी सभागार का निर्माण किया। हालाँकि वहाँ कुछ अंग्रेजी नाटकों का ही मंचन किया गया, परंतु यह एक नई शुरुआत थी। जिसके बाद अन्य लोगों ने इसका अनुसरण किया।
११. उन्होंने जीवन भर ईसाई मिशनरियों की गतिविधियों का विरोध किया।