जगन्नाथ, सुभद्रा तथा बलराम और रथयात्रा
राजा इन्द्रद्युम्न, जो सपरिवार नीलांचल सागर (उड़ीसा) के पास रहते थे, को समुद्र में एक विशालकाय काष्ठ दिखा। राजा के उससे विष्णु मूर्ति का निर्माण कराने का निश्चय करते ही वृद्ध बढ़ई के रूप में विश्वकर्मा जी स्वयं प्रस्तुत हो गए। उन्होंने मूर्ति बनाने के लिए एक शर्त रखी कि मैं जिस घर में मूर्ति बनाऊँगा उसमें मूर्ति के पूर्णरूपेण बन जाने तक कोई न आए। राजा ने इसे मान लिया। आज जिस जगह पर श्रीजगन्नाथ जी का मन्दिर है उसी के पास एक घर के अंदर वे मूर्ति निर्माण में लग गए। राजा के परिवारजनों को यह ज्ञात न था कि वह वृद्ध बढ़ई कौन है। कई दिन तक घर का द्वार बंद रहने पर महारानी ने सोचा कि बिना खाए-पिये वह बढ़ई कैसे काम कर सकेगा। अब तक वह जीवित भी होगा या मर गया होगा। महारानी ने महाराजा को अपनी सहज शंका से अवगत करवाया। महाराजा के द्वार खुलवाने पर वह वृद्ध बढ़ई कहीं नहीं मिला लेकिन उसके द्वारा अर्द्धनिर्मित श्री जगन्नाथ, सुभद्रा तथा बलराम की काष्ठ मूर्तियाँ वहाँ पर मिली। महाराजा और महारानी दुखी हो उठे। लेकिन उसी क्षण दोनों ने आकाशवाणी सुनी, ‘व्यर्थ दु:खी मत हो, हम इसी रूप में रहना चाहते हैं मूर्तियों को द्रव्य आदि से पवित्र कर स्थापित करवा दो।’ आज भी वे अपूर्ण और अस्पष्ट मूर्तियाँ पुरुषोत्तम पुरी की रथयात्रा और मन्दिर में सुशोभित व प्रतिष्ठित हैं। रथयात्रा माता सुभद्रा के द्वारिका भ्रमण की इच्छा पूर्ण करने के उद्देश्य से श्रीकृष्ण व बलराम ने अलग रथों में बैठकर करवाई थी। माता सुभद्रा की नगर भ्रमण की स्मृति में यह रथयात्रा पुरी में हर वर्ष होती है
भगवान श्री जगन्नाथ जी की रथयात्रा आषाढ़ शुक्ल द्वितीया को जगन्नाथपुरी में आरम्भ होती है। यह रथयात्रा पुरी का प्रधान पर्व भी है। रथ यात्रा कई पारंपरिक वाद्ययंत्रों की आवाज के बीच बड़े-बड़े रथों को सैकड़ों लोग मोटे-मोटे रस्सों की मदद से खींचते हैं। सबसे पहले बलभद्र जी का रथ प्रस्थान करता, इसके बाद बहन सुभद्रा जी का रथ चलना शुरू होता है और सबसे आखिर में जगन्नाथ जी की रथ यात्रा निकलती है।
यह रथ यात्रा गुंडिचा मंदिर जाकर संपन्न मानी जाती है। कहा जाता है कि गुंडिचा मंदिर भगवान जगन्नाथ की मौसी का घर है। यह वही मंदिर’ है, जहां विश्वकर्मा ने तीनों देव प्रतिमाओं का निर्माण किया था। यह कहा जाता है कि पुरी में भगवान जगन्नाथ शहर में घूमने के लिए निकलते हैं।
पुरी में जिस रथ पर भगवान की सवारी चलती है वह विशाल एवं अद्वितीय है। वह 45 फुट ऊंचा, 35 फुट लंबा तथा इतना ही चौड़ाई वाला होता है। इसमें सात फुट व्यास के 16 पहिये होते हैं। इसी तरह बालभद्र जी का रथ 44 फुट ऊंचा, 12 पहियों वाला तथा सुभद्रा जी का रथ 43 फुट ऊंचा होता है। इनके रथ में भी 12 पहिये होते हैं। प्रतिवर्ष नए रथों का निर्माण किया जाता है। भगवान श्रीकृष्ण के अवतार ‘जगन्नाथ’ की रथयात्रा का पुण्य सौ यज्ञों के बराबर माना जाता है। यात्रा की तैयारी अक्षय तृतीया के दिन श्रीकृष्ण, बलराम और सुभद्रा के रथों के निर्माण के साथ ही शुरू हो जाती है। जगन्नाथ जी का रथ ‘गरुड़ध्वज’ या ‘कपिलध्वज’ कहलाता है। रथ पर जो ध्वज है, उसे ‘त्रैलोक्यमोहिनी’ या ‘नंदीघोष’ रथ कहते हैं। बलराम जी का रथ ‘तलध्वज’ के नाम से पहचाना जाता है। रथ के ध्वज को ‘उनानी’ कहते हैं। जिस रस्सी से रथ खींचा जाता है वह ‘वासुकी’ कहलाता है। सुभद्रा का रथ ‘पद्मध्वज’ कहलाता है। रथ ध्वज ‘नदंबिक’ कहलाता है। इसे खींचने वाली रस्सी को ‘स्वर्णचूडा’ कहते हैं।
यह उत्सव नौ दिनों तक चलता है। कहा जाता है कि 9 दिन पूरे होने के बाद भगवान जगन्नाथ, जगन्नाथ मंदिर में विराजते हैं ।
भगवन हम पर भी कभी कृपा करें । हर बार की तरह इस बार भी मैँ ख़ुद को आश्वासन दे रहा हूँ , अगली बार आऊंगा तेरे द्वार ।
भगवन यह कृपा सब पर करें