जैसे हम हैं वैसे ही रहें, लिये हाथ एक दूसरे का अतिशय सुख के सागर में बहें। मुदें पलक, केवल देखें उर में,- सुनें सब कथा परिमल-सुर में, जो चाहें, कहें वे, कहें।
हिंदी कविता अपने जीवनकाल में अनेक पड़ावों से गुज़रा है। जिसमें अनेक विचार धाराओं का बहुत तेज़ी से विकास हुआ। इसमें छायावादी युग, प्रगतिवादी युग, प्रयोगवादी युग, नयी कविता युग और साठोत्तरी कविता इन नामों से जाना गया, मगर छायावाद से पहले के पद्य को भारतेंदु हरिश्चंद्र युग और महावीर प्रसाद द्विवेदी युग के दो और युगों में बांटा गया।
इनमें छायावादी युग की अगर बात की जाए तो इसके चार प्रमुख स्तंभ हैं। जयशंकर प्रसाद, सुमित्रानंदन पंत और महादेवी वर्मा एवं सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’।
जन्म… इनका जन्म बंगाल की महिषादल रियासत (जिला मेदिनीपुर) में माघ शुक्ल ११, संवत् १९५५, दिनाँक २१ फरवरी, १८९९ को हुआ था। उनके पिताश्री पंडित रामसहाय तिवारी उन्नाव (बैसवाड़ा) के रहने वाले थे और महिषादल में सिपाही की नौकरी करते थे। वे मूल रूप से उत्तर प्रदेश के उन्नाव जिले के गढ़ाकोला नामक गाँव के निवासी थे।
शिक्षा… निराला की शिक्षा हाई स्कूल तक हुई। बाद में हिन्दी, संस्कृत और बाङ्ला का स्वतंत्र अध्ययन किया। पिता की छोटी-सी नौकरी की असुविधाओं और मान-अपमान का परिचय निराला को आरम्भ में ही प्राप्त हुआ। तीन वर्ष की आयु में माता और बीस वर्ष की आयु तक में पिता का देहांत हो गया। अपने परिवार के साथ संयुक्त परिवार का भी बोझ निराला पर पड़ा। पहले महायुद्ध के बाद जो महामारी फैली उसमें न सिर्फ पत्नी मनोहरा देवी का, बल्कि चाचा, भाई और भाभी का भी देहांत हो गया। शेष कुनबे का बोझ उठाने में महिषादल की नौकरी अपर्याप्त थी। इसके बाद का उनका सारा जीवन आर्थिक-संघर्ष में कैसे बीता होगा यह या तो निराला जानते होंगे अथवा ईश्वर। लेकिन कठिन से कठिन परिस्थितियों में भी उन्होंने सिद्धांत त्यागकर समझौते का रास्ता नहीं अपनाया, साहस के साथ जूझते रहे।
आगे से अंत तक उनकी जिंदगी इलाहाबाद के दारागंज मुहल्ले में स्थित रायसाहब की विशाल कोठी के ठीक पीछे बने एक कमरे में गुजरी।
कार्यक्षेत्र… सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ की पहली नियुक्ति महिषादल राज्य में ही हुई। उसके बाद संपादन, स्वतंत्र लेखन और अनुवाद कार्य की ओर प्रवृत्त हुए। कोलकाता से प्रकाशित ‘समन्वय’ का संपादन किया, तत्पश्चात १९२३ के अगस्त से मतवाला के संपादक मंडल में कार्य किया। इसके बाद लखनऊ में गंगा पुस्तक माला कार्यालय में उनकी नियुक्ति हुई जहाँ वे संस्था की मासिक पत्रिका सुधा से संबद्ध रहे। कुछ समय उन्होंने लखनऊ में भी गुजारा। इसके बाद १९४२ से अंत समय तक वे इलाहाबाद में रह कर स्वतंत्र लेखन और अनुवाद कार्य करते रहे।
उनकी पहली कविता जन्मभूमि प्रभा नामक मासिक पत्र में जून १९२० में, पहला कविता संग्रह १९२३ में अनामिका नाम से, तथा पहला निबंध बंग भाषा का उच्चारण अक्टूबर १९२० में मासिक पत्रिका सरस्वती में प्रकाशित हुआ। अपने समकालीन अन्य कवियों से अलग उन्होंने कविता में कल्पना का सहारा बहुत कम लिया है और यथार्थ को प्रमुखता से चित्रित किया है।
कृति…
काव्यसंग्रह… अनामिका, परिमल, गीतिका, अनामिका (द्वितीय) (इसी संग्रह में सरोज स्मृति और राम की शक्तिपूजा जैसी प्रसिद्ध कविताओं का संकलन है।), तुलसीदास, कुकुरमुत्ता, अणिमा, बेला, नये पत्ते, अर्चना, आराधना, गीत कुंज, सांध्य काकली, अपरा (संचयन)
बालोपयोगी साहित्य… भक्त ध्रुव, भक्त प्रहलाद, भीष्म, महाराणा प्रताप, सीखभरी कहानियाँ (ईसप की नीतिकथाएँ)।
अनुवाद… रामचरितमानस(विनय-भाग)-1948(खड़ीबोली हिन्दी में पद्यानुवाद), आनंद मठ(बाङ्ला से गद्यानुवाद), विष वृक्ष, कृष्णकांत का वसीयतनामा, कपालकुंडला, दुर्गेश नन्दिनी, राज सिंह, राजरानी, देवी चौधरानी, युगलांगुलीय, चन्द्रशेखर, रजनी, श्रीरामकृष्णवचनामृत(तीन खण्डों में), परिव्राजक, भारत में विवेकानंद, राजयोग(अंशानुवाद)।
रचनावली… निराला रचनावली नाम से 8 खण्डों में पूर्व प्रकाशित एवं अप्रकाशित सम्पूर्ण रचनाओं का सुनियोजित प्रकाशन (प्रथम संस्करण-1983)
और अंत में…
तुमने जो दिया दान दान वह, हिन्दी के हित का अभिमान वह, जनता का जन-ताका ज्ञान वह, सच्चा कल्याण वह अथच है– यह सच है!
बार बार हार हार मैं गया, खोजा जो हार क्षार में नया, उड़ी धूल, तन सारा भर गया, नहीं फूल, जीवन अविकच है– यह सच है!
बड़े बड़े लेखकों ने वक्त के बारे में बड़ी बड़ी बातें लिखी हैं तो मैंने सोचा की मैं क्या लिखूं, तब सोचा जब वक्त की बात करनी ही है तो क्यूँ ना अपने लेखकिय जीवन के बारे में ही क्यूँ ना करूँ…
पहले जब लोग मुझसे पूछते थे! की तुम क्या करते हो? तो मैं बगल झांकने लगता था, क्या कहूँ ? क्या ना कहूँ ? कुछ समझ में नहीं आता था। कभी कभी बातें बदलकर अटपटा सा जवाब देता या बात बनाने लगता। मगर जब मैं स्वयं अपनी बात से संतुष्ट नहीं होता तो लोग क्या संतुष्ट होते होंगे। आखिर अर्थ युग में अर्थ ही तो मापक है आपके काबिल होने के लिए, जो जितना अर्थपति वो उतना बड़ा काबिल।
मगर मैं तो इस मामले में नीरा अनाड़ी…कहां से काबिलियत की खरीददारी करूँ। अतः सोचा की की क्यूँ ना इस कालिख को छुड़ाने के लिए इसे माजा जाए शायद इसे माँजने पर यह कालिख छूट ही जाए। मैंने खूब जोर लगाया और लगातार स्वयं को माँजता रहा और आज भी इसे मांज रहा हूँ जिससे इसमें चमक आ सके।
हाँ ! माँजने से एक बात जरूर बदल गई, जब आज लोग मुझसे पूछते हैं की आप क्या करते हैं? तो मेरा बस एक ही जवाब होता है… लिखता हूँ ! वो फिर पूछते हैं, जीने के लिए क्या करते हैं ? मैं बस इतना ही कहता हूँ, बस लिखता हूँ और लिखने के लिए पढ़ता हूँ। बस यही करता हूँ क्यूंकि जीने के लिए साँस जरूरी है। पढ़ना मेरे लिए साँस लेने के बराबर है और लिखना साँस छोड़ने के बराबर है, यानी जीने की पूरी प्रक्रिया।
मेरे लिखने पढ़ने के सहायक मेरे परिजन हैं। लेकीन इसके मुख्य कर्ता मेरे पूज्य मामाजी श्री ओम नारायण राय जी हैं, जिनसे मैं अक्सर झगड़ता रहता हूँ और वो हर बार मुझे माफ कर देते हैं।
रहा अर्थ की बात तो कभी भी मेरे पूज्य पिताश्री ने मुझे कमाने के लिए नहीं कहा जबकी उल्टे वे हर बार मुझे मेरी जरूरत के बारे में ही पूछते रहते हैं। दूसरी ओर मेरी पत्नी ने कभी भी मुझसे एक चौकलेट तक की भी फरमाईश नहीं की और ना ही पैसे को लेकर कोई उलाहना ही दिया। रही बात जरूरतों की उसकी कमी कभी मेरे छोटे भाईयों ने होने ना दी। इसलिए शायद अर्थ का महत्व मैं आज तक समझ ना सका। मगर आप यह सोच रहे होंगे की जब इतने लोग मेरे सहायक हैं तो मैंने सिर्फ मामा जी को ही मुख्य कर्ता क्यूँ कहा।
जी, हाँ ! इसकी एक वजह जो एक कहानी भी है…
मैं जब छोटा था, पढ़ाई से निफिक्र सिर्फ खेलना कूदना और बदमाशी। इतनी बदमाशी की सब परेशान रहते। लेकिन मामाजी के सामने मेरी सिट्टी पिट्टी गुम हो जाती थी, मगर पढ़ाने में वे भी सदा असफल रहे।
एक दिन वो कहीं बाहर से आए, उनके हाँथ में एक बंडल था। मैं उत्सुक था यह जानने के लिए की क्या है उसमें ? उन्होंने वह बंडल मुझे दिया और मैंने भी उसे बिना देर किए झट से खोल लिया।
यह क्या किताबें ? ? ? सिलेबस कि किताबो से अलग सुन्दर कवर वाले रंगीन पृष्ठ वाले ये किताब बड़े ही मनमोहक थे। पहली बार किताबो को देख मैं मुग्ध हुआ था। उन पुस्तकों के नाम कुछ इस प्रकार हैं, एलिस इन वंडरलैंड, अराउंड द वर्ल्ड इन 80 डेज, सिंदबाद जहाजी, तेनालीरामा, पंचतंत्र, हितोपदेश, अली बाबा 40 चोर आदि कोई और…
उस दिन पुस्तकों के किरदारों के साथ जो मैं जुड़ा, आज तक उनसे दूर ना हो सका। कितनी कोशिश की मैंने की मैं उनसे दूर हो सकूं और कुछ सामाजीक बन सकूं मगर मैं वो ना बन सका।
तो इस वर्ष का यह पहला आलेख अपनी ओर से मैं स्वयं को इस प्रतियोगिता के माध्यम से उपहार स्वरूप दे रहा हूँ। यूँ तो पहले से ही मैं लिखता रहा हूँ मगर अपने अतीत को झांकने का मौका इस विषय ने दिया है अतः मैं सपना जी का भी तहे दिल से धन्यवाद देता हूँ, जिन्होंने इतने खूबसूरत विषय को हम सबके मध्य रखा है। इधर कुछ दिनों से मैं अपने अतीत में लगातार घूम आया करता था जैसे कोई टाईम मशीन मेरे पास हो। इतने में इस विषय का आगमन हुआ और कलम चल पड़ी और ऐसी चली की रुकने का नाम ही नहीं ले रही है, भावनाएँ हैं, तो कुछ आपबीती तो और कुछ समाज की सच्चाईयाँ जिन्हें मेरी कलम लगातार उकेरती रही। आज मैं स्वयं पर आश्चर्य कर रहा हूँ की मैं लिख क्या रहा हूँ। जैसे मैं कोई बड़ा लेखक बन जाऊंगा।
यह समय है और समय के गर्भ में क्या छिपा है कोई नहीं जान सकता। आप भी नहीं और मैं भी नहीं…
कई पुस्तकों के अध्यन उपरांत मैं यही समझा पच्चीस वर्ष की आयु से पचास वर्ष की आयु तक के बोले गए झूठ और बटोरे गए पैसे किसी काम के नहीं रहते। मैं यह कदापि नहीं कहता की आप काम ना करो मगर अति सदा वर्जित है, आप इससे बचो। आप देखेंगे बड़े बड़े अवकाश प्राप्त अफसर, नेता और बड़े व्यवसाई कुछ वक्त के बाद पैसे के आगे धर्म, कर्म, अध्ययन अध्यापन अथवा अध्यात्म, सेवा आदि कर्म को महत्व देने लगते हैं। उन्हें माया की सच्चाई का पता थोड़ा ही सही, चलने जरूर लगता है। उन्हें किताबें अच्छी लगने लगती हैं। वे स्वयं तो पढ़ते ही हैं दूसरों को भी पढ़ने के लिए प्रोत्साहित करते हैं, जैसे मेरे पूज्य मामा जी ने मुझे प्रोत्साहित किया…
मामा जी के द्वारा दी गई उन पुस्तकों का प्रभाव मेरे ऊपर इतना पड़ा की पढ़ते पढ़ते आज लिखने भी लगा। इसके अलावा आप सभी स्नेहिल मित्रों के प्रेम व सान्निध्य का भी बेहद शुक्रिया जो मुझे लिखने हेतु सतत प्रेरित करते रहे…
मगर यह बिल्कुल प्रथम अनुभव है अपने अतीत को किसी के सम्मुख प्रस्तुत करना। सच में आज हृदयतल पुलकित सा हो रहा है, मेरे लिए रोमांचित करने वाली बात है ये। आज आपके मित्र यानी मैं अश्विनी राय ‘अरुण’ की कुछ एकल अथवा साझा पुस्तकों ने आपके मित्र से कहीं ज्यादा नाम कमाया है और कुछ अभी भी अपनी बारी के इंतजार में हैं…
1. एकल प्रकाशित पुस्तक :-
‘बिहार – एक आईने की नजर से’
प्रकाश्य :-
ये उन दिनों की बात है, आर्यन, जीवननामा (१२ खंड), दक्षिण भारत की यात्रा, आपातकाल, महाभारत – मेरी नजर से, बक्सर – एक आईने की नजर से, बहाव (कविता संग्रह), अनाम (लेख संग्रह) आदि।
2. प्रकाशित साझा संग्रह :-
पेनिंग थॉट्स, अंजुली रंग भरी, ब्लौस्सौम ऑफ वर्ड्स, उजेस, हिन्दी साहित्य और राष्ट्रवाद, दिनेश्वर प्रसाद सिंह ‘दिनेश’, गंगा गीत माला (भोजपुरी), स्पंदन, रामकथा के विविध परिप्रेक्ष्य आदि। कुछ और भी साझा संग्रह प्रकाशन के इंतजार में हैं। साथ ही पत्र पत्रिकाओं, ब्लॉग आदि में भी सतत लेखन।
आज मामाजी, मेरे परिजन एवं मित्रों के सहयोग का ही यह असर रहा जो मैं कई संस्थाओ द्वारा सम्मान/पुरस्कार से अलंकृत एवं सम्मानित हो सका… साथ ही आज मैं विभिन्न संस्थाओ के आधिकारिक पद पर भी विराजमान हूँ।
जिंदगी है यह चलती तो रहेगी ही, मगर यह यूँ ही चलती रहेगी या इसमें रफ़्तार आएगी यह तो आप सभी मित्रों के हाँथ में है…