महर्षि अगस्त्य वैदिक ॠषि तथा महर्षि वशिष्ठ के बड़े भाई थे। महर्षि अगस्त्य की पत्नी लोपामुद्रा विदर्भ देश की राजकुमारी थीं। महर्षि को सप्तर्षियों में से एक माना जाता है। देवताओं के अनुरोध पर उन्होंने काशी छोड़कर दक्षिण की यात्रा की और बाद में वहीं बस गये थे।
परिचय…
महर्षि अगस्त्य जन्म श्रावण शुक्ल पंचमी को काशी में जिस स्थान पर हुआ था, वर्तमान में वह स्थान अगस्त्यकुंड के नाम से प्रसिद्ध है। ऋग्वेद के अनुसार मित्र तथा वरुण नामक देवताओं का अमोघ तेज एक दिव्य यज्ञिय कलश में पुंजीभूत हुआ और उसी कलश के मध्य भाग से दिव्य तेज:सम्पन्न महर्षि अगस्त्य का प्रादुर्भाव हुआ।
“सत्रे ह जाताविषिता नमोभि: कुंभे रेत: सिषिचतु: समानम्। ततो ह मान उदियाय मध्यात् ततो ज्ञातमृषिमाहुर्वसिष्ठम्॥”
इस ऋचा के भाष्य में आचार्य सायण ने लिखा है…
“ततो वासतीवरात् कुंभात् मध्यात् अगस्त्यो शमीप्रमाण उदियाप प्रादुर्बभूव। तत एव कुंभाद्वसिष्ठमप्यृषिं जातमाहु:॥”
कथा के अनुसार…
एक यज्ञ सत्र में मित्र तथा वरुण के साथ उर्वशी भी सम्मिलित हुई थी। उन्होंने उसकी ओर देखा तो इतने आसक्त हो गए कि अपने वीर्य को रोक नहीं पाये। उर्वशी ने उपहासात्मक मुस्कराहट बिखेर दी। मित्र तथा वरुण बहुत लज्जित हुए। कुंभ का वह स्थान, वहां का जल तथा कुंभ सब अत्यंत पवित्र थे। यज्ञ के अंतराल में ही कुंभ में स्खलित वीर्य के कारण कुंभ से महर्षि अगस्त्य, स्थल में महर्षि वशिष्ठ तथा जल में मत्स्य का जन्म हुआ, अतः उर्वशी इन तीनों की मानस जननी मानी गयी।
विवाह…
पुराणों आदि ग्रंथों के अनुसार महर्षि अगस्त्य (पुलस्त्य) पतिव्रता पत्नी तथा श्रीविद्या की आचार्य का नाम ‘लोपामुद्रा’ था। महर्षि अगस्त्य तथा उनकी पत्नी लोपामुद्रा के विषय में विस्तार पूर्वक जानकारी वर्णित है।
एक बार की बात है, महर्षि अगस्त्य कहीं जा रहे थे। उन्होंने एक जगह अपने पितरों को देखा, जो एक गड्ढे में नीचे मुँह किये लटक रहे थे। तब उन लटकते हुए पितरों से अगस्त्य जी ने पूछा, “आप लोग यहाँ किसलिये नीचे मुँह किये काँपते हुए से लटक रहे है।” यह सुनकर उन वेदवादी पितरों ने उत्तर दिया, “संतान परम्परा के लोप की सम्भावना के कारण हमारी यह दुर्दशा हो रही है।” अपने पितरों की यह दुर्दशा देखने के बाद महर्षि ने विवाह करने का निश्चय किया। अगस्त्य ने एक अनुपम शिशु की रचना की और उन्हीं दिनों विदर्भ-नरेश भी सन्तान-प्राप्ति के लिए कठिन तपस्या करने में लीन थे, यह जानकर उन्होंने सोचा, ‘मैंने जिस शिशु की रचना की है, वही इस नरेश की पुत्री के रूप में जन्म लेगी।’ छ: महीनों बाद रानी ने एक कन्या को जन्म दिया। राजा की खुशी का ठिकना न रहा। कालांतर में यही बालिका लोपामुद्रा के नाम से प्रसिद्ध हुई। लोपामुद्रा बड़ी होकर अद्वितीय सुन्दरी और परम चरित्रवती के रूप में विकसित हुई। महर्षि अगस्त्य राजा के पास पहुँचे और उन्होंने कहा कि मैं आपकी पुत्री से विवाह करना चाहता हूँ। राजा यह बात सुनकर चिन्ता में डूब गए। उसी समय लोपामुद्रा राजा के पास आयी और बोली, “पिता जी, आप दुविधा में क्यों पड़ गये? मैं ॠषिवर से विवाह करने के लिए प्रस्तुत हूँ।” इस तरह लोपामुद्रा और महर्षि अगस्त्य का विवाह सम्पन्न हो गया। कई वर्षों बाद लोपामुद्रा ने एक पुत्र को जन्म दिया। इस प्रकार ऋषि अगस्त्य ने अपने पितरों को दिया हुआ वचन पूरा किया।
महान कृत्य…
१. एक बार समुद्रस्थ राक्षसों के अत्याचार से परेशान देवता महर्षि के शरण में गये और अपना दु:ख कह सुनाया। यह सुनकर महर्षि ने समुद्र का सारा जल पी लिया, जिससे सभी राक्षसों का विनाश हो सका।
२. इसी प्रकार इल्वल तथा वातापि नामक दुष्ट दैत्यों द्वारा हो रहे ऋषि-संहार को इन्होंने बंद किया और लोक का महान् कल्याण किया।
३. एक बार विन्ध्याचल पर्वत सूर्य का मार्ग रोककर खड़ा हो गया, जिससे सूर्य का आवागमन ही बंद हो गया। सूर्य इनकी शरण में आये, तब इन्होंने विन्ध्य पर्वत को स्थिर कर दिया और कहा, “जब तक मैं दक्षिण देश से न लौटूँ, तब तक तुम ऐसे ही निम्न बनकर रुके रहो।” ऐसा ही हुआ। विन्ध्याचल नीचे हो गया, फिर अगस्त्य जी लौटे नहीं, अत: विन्ध्य पर्वत उसी प्रकार निम्न रूप में स्थिर रह गया और भगवान सूर्य का सदा के लिये मार्ग प्रशस्त हो गया।
४. भगवान श्रीराम वनगमन के समय इनके आश्रम पर पधारे थे। भगवान ने उनका ऋषि-जीवन कृतार्थ किया। भक्ति की प्रेम मूर्ति महामुनि सुतीक्ष्ण इन्हीं अगस्त्य जी के शिष्य थे।
५. अगस्त्य संहिता आदि अनेक ग्रन्थों का इन्होंने प्रणयन किया, जो तान्त्रिक साधकों के लिये महान् उपादेय है।
६. सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि महर्षि अगस्त्य ने अपनी तपस्या से अनेक ऋचाओं के स्वरूपों का दर्शन किया था, इसलिये ये मन्त्र द्रष्टा ऋषि कहलाते हैं। ऋग्वेद के अनेक मन्त्र इनके द्वारा दृष्ट हैं। ऋग्वेद के प्रथम मण्डल के १६५ सूक्त से १९१ तक के सूक्तों के द्रष्टा ऋषि महर्षि अगस्त्य जी हैं। साथ ही इनके पुत्र दृढच्युत तथा दृढच्युत के पुत्र इध्मवाह भी नवम मण्डल के २५वें तथा २६वें सूक्त के द्रष्टा ऋषि हैं। महर्षि अगस्त्य और लोपामुद्रा आज भी पूज्य और वन्द्य हैं, नक्षत्र-मण्डल में ये विद्यमान हैं। दूर्वाष्टमी आदि व्रतोपवासों में इन दम्पति की आराधना-उपासना की जाती है।
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