अशोक स्तंभ का इतिहास लगभग २५० ईसा पूर्व सम्राट अशोक के शासनकाल से शुरू होता है, जिन्होंने बौद्ध धर्म के प्रचार और अपने शासन की घोषणा के लिए कई स्तंभ बनवाए थे। सारनाथ में मिला स्तंभ, जहां भगवान बुद्ध ने अपना पहला उपदेश दिया था, राष्ट्रीय चिह्न के रूप में चुना गया, जिसे २६ जनवरी, १९५० को अपनाया गया। सारनाथ स्तंभ को १९०३ में फ्रेडरिक ऑस्कर ऑरटेल ने खोजा था और यह आज भी सारनाथ के संग्रहालय में संरक्षित है।
ऐतिहासिक पृष्ठभूमि…
निर्माण और उद्देश्य: सम्राट अशोक ने अपने साम्राज्य में, खासकर उन स्थानों पर जहां बौद्ध धर्म का संबंध था, स्तंभों का निर्माण करवाया था। ये स्तंभ उनके शासन के सिद्धांतों और धम्म (धर्म) का प्रचार करते थे।
बौद्ध धर्म से संबंध: सारनाथ में बना स्तंभ विशेष महत्व रखता है क्योंकि यह वह स्थान है जहां भगवान बुद्ध ने अपना पहला उपदेश दिया था, जिसे ‘धर्मचक्रप्रवर्तन’ भी कहा जाता है।
खोज: १९वीं सदी में, फ्रेडरिक ऑस्कर ऑरटेल ने सारनाथ में खुदाई के दौरान इस स्तंभ को खोजा था, जो पहले एक गुप्तकालीन मंदिर के अवशेष माने जा रहे थे।
राष्ट्रीय चिह्न के रूप में चयन…
चयन और कारण: भारत के राष्ट्रीय चिह्न के रूप में सारनाथ से प्राप्त अशोक स्तंभ को 26 जनवरी, 1950 को अपनाया गया। इसे भारत की शक्ति, साहस, आत्मविश्वास और एकता का प्रतीक माना जाता है।
प्रतीकवाद:
चार शेर: यह शक्ति, साहस और आत्मविश्वास को दर्शाते हैं, और वे चारों दिशाओं में धर्म के प्रचार का भी संकेत देते हैं।
अशोक चक्र: यह धर्म का पहिया है और इसकी 24 तीलियां मनुष्य के 24 गुणों का प्रतिनिधित्व करती हैं। इसे भारत के तिरंगे के केंद्र में भी स्थान दिया गया है।
अन्य पशु: स्तंभ के निचले हिस्से में हाथी, बैल, घोड़ा और सिंह भी बने हुए हैं, जो क्रमशः गर्भ, जन्म, त्याग और ज्ञान की प्राप्ति का प्रतीक माने जाते हैं।
महत्व और नियम…
महत्व: यह स्तंभ भारत की ऐतिहासिक और सांस्कृतिक विरासत का एक अभिन्न अंग है और भारत की शांतिपूर्ण नीति का भी प्रतीक है।
सरकारी उपयोग: अशोक स्तंभ का उपयोग केवल संवैधानिक पदों पर बैठे व्यक्तियों और सरकारी संस्थाओं के लिए ही सीमित है।
कानून: राष्ट्रीय चिन्ह (दुरुपयोग की रोकथाम) अधिनियम, 2005 के तहत, किसी भी आम नागरिक के लिए इस चिन्ह का गैर-संवैधानिक उपयोग वर्जित है और ऐसा करने पर जुर्माना और कैद हो सकती है।