🌹चंदर-सुधा का प्रेम: एक अव्यक्त राग
कमरे के कोने में पड़ी खाली किताब, गुनाहों का देवता, धूल भरी थी, पर सुधा की आँखों में धूल नहीं थी। उसकी आँखों में थी एक अव्यक्त, अलौकिक पीड़ा—वह पीड़ा जो प्रेम को देवता मानकर, उसे कभी भी प्रेम की भाषा में न पुकार पाने से जन्म लेती है।
सूर्य अस्त होता था, और सुधा को लगता था, जैसे उसके भीतर का सत्य अब क्षितिज पर डूब रहा है। चंदर… उसका ‘देवता’। उसने उसे कभी प्रेम की सामान्य परिभाषाओं में नहीं बांधा। उसके लिए प्रेम का अर्थ था सर्वोच्च समर्पण, वह भक्ति जिसमें इच्छाएँ नहीं होतीं, केवल ईश्वर की सत्ता स्वीकार होती है। वह जानती थी कि चंदर उसका है, लेकिन चंदर को यह एहसास दिलाना कि वह केवल एक पुरुष है, सुधा को अपने प्रेम का अपमान लगता था।
प्रेम और भक्ति के बीच की वह महीन मर्यादा… वह मर्यादा जिसे चंदर अंत तक पार नहीं कर पाया। चंदर चाहता था कि सुधा उसे पूजे, लेकिन शायद वह यह नहीं जानता था कि पूजा की वेदी पर माँगना वर्जित होता है। सुधा ने कभी नहीं माँगा—न शादी, न शारीरिक सान्निध्य, न समाज की स्वीकृति। उसने बस प्रतीक्षा की—उस क्षण की जब उसका देवता स्वयं नीचे उतरकर, उसे अपनी प्रेमिका के रूप में स्वीकार करता।
जब चंदर ने द्वंद्व में डूबकर उससे दूरी बना ली, और सुधा की शादी हुई, तो उसे लगा जैसे वह अपनी वेदी छोड़कर जा रही है। उसका शरीर कहीं और गया, पर उसकी आत्मा, उसका अव्यक्त राग, उसी कमरे, उसी कोने में, उसी धूल भरी किताब के पास छोड़ आया। वह जानती थी कि इस बलिदान का परिणाम क्या होगा, क्योंकि देवता की पूजा करने वाली देवी को, जब प्रेम नहीं मिलता, तो वह दुनिया छोड़कर चली जाती है—ताकि उसका देवता, हमेशा की तरह, अमर बना रहे।
उसकी मृत्यु कोई साधारण अंत नहीं थी। वह शुद्धिकरण था। वह उस प्रेम की पराकाष्ठा थी, जिसने खुद को एकतरफ़ा भक्ति की बलि पर चढ़ा दिया।
सुधा मर गई, पर उसका अव्यक्त प्रेम, वह गुनाहों का देवता को दिया गया सबसे पवित्र बलिदान था।
विद्यावाचस्पति अश्विनी राय ‘अरुण’