📄प्रेम की त्रयी: ‘गुनाहों का देवता’ में ‘भक्ति’, ‘मर्यादा’ और ‘त्रासदी’
धर्मवीर भारती का कालजयी उपन्यास ‘गुनाहों का देवता’ सतही तौर पर एक विफल प्रेम कहानी प्रतीत होता है, लेकिन यह वास्तव में भारतीय मानस में रचे-बसे ‘प्रेम-दर्शन’ की व्याख्या है। यह उपन्यास तीन महत्वपूर्ण स्तंभों पर टिका है, जो इसे सिर्फ एक कहानी नहीं, बल्कि एक सामाजिक और मनोवैज्ञानिक अध्ययन बनाते हैं: भक्ति, मर्यादा और त्रासदी।
१. भक्ति: प्रेम का अलौकिक रूप
उपन्यास का नायक चंदर, नायिका सुधा के लिए केवल एक प्रेमी नहीं, बल्कि एक ‘देवता’ है। सुधा का प्रेम, साधारण लौकिक आकर्षण से ऊपर उठकर, भक्ति की श्रेणी में आता है।
सुधा का समर्पण: सुधा, चंदर से किसी शारीरिक या सामाजिक रिश्ते की मांग नहीं करती। वह उसे ‘गुरु’ या ‘देवता’ मानकर, उसकी पूजा करती है। यह भक्ति ही दोनों के बीच एक अलौकिक दूरी पैदा करती है, जो पवित्र तो है, पर मानवीय रिश्ते के लिए घातक सिद्ध होती है।
नायकत्व का भार: चंदर, अपने इस ‘देवत्व’ के भार के नीचे दब जाता है। वह सुधा को प्रेमिका के रूप में स्वीकार करने में संकोच करता है, क्योंकि उसे डर है कि ऐसा करने से उसकी ‘पवित्रता’ भंग हो जाएगी। यह प्रेम नहीं, बल्कि भक्ति-भाव का निर्वहन था, जिसने उनके मिलन को रोका।
२. मर्यादा: टूटी हुई सामाजिक और आंतरिक सीमाएँ
उपन्यास का मूल द्वंद्व ‘मर्यादा’ के चारों ओर घूमता है।
आंतरिक मर्यादा : चंदर, सुधा को इतना पवित्र मानता है कि उसे छूना, या उससे प्रेम विवाह करना, उसके लिए ‘गुनाह’ लगता है। वह सुधा के ‘देवता’ बने रहने की मर्यादा को तोड़ने की हिम्मत नहीं जुटा पाता।
जब चंदर अंततः विनती के प्रति आकर्षित होता है, तो वह इस मर्यादा को तोड़ता है। यह विनती एक तरह से ‘मानवीय’ प्रेम की माँग थी, जो सुधा के ‘दैवीय’ प्रेम में अनुपस्थित थी। चंदर का यह विचलित होना ही दर्शाता है कि ‘देवता’ भी अंततः एक मनुष्य ही था।
३. त्रासदी: बलिदान और ज्ञान की कमी
‘गुनाहों का देवता’ एक शुद्ध त्रासदी है, जहाँ पात्रों की दुर्बलता ही उनके विनाश का कारण बनती है।
प्रेम की त्रासदी: चंदर और सुधा का प्रेम, प्रेम की सही परिभाषा को समझ न पाने की त्रासदी है। वे समझते ही नहीं हैं कि भक्ति और प्रेम एक ही सिक्के के दो पहलू हो सकते हैं।
बलिदान: सुधा का अंतिम निर्णय—अयोग्य पुरुष से शादी करके अपने प्रेम का बलिदान देना—चंदर को उसके ‘गुनाहों’ से मुक्त करने और उसे हमेशा के लिए ‘देवता’ बनाए रखने का अंतिम प्रयास था।
निष्कर्ष:
धर्मवीर भारती ने इस उपन्यास के माध्यम से यह प्रश्न उठाया कि क्या प्रेम, भक्ति या मर्यादा की बलि पर चढ़ाया जाना चाहिए? इस कहानी का निष्कर्ष यही है कि जब प्रेम को ‘देवता’ बनाकर अत्यधिक अलौकिक कर दिया जाता है, तो वह जीवन के धरातल पर आने में विफल रहता है, और परिणाम सिर्फ अव्यक्त प्रेम की मार्मिक त्रासदी होती है।
विद्यावाचस्पति अश्विनी राय ‘अरुण’
गुनाहों का देवता और सुधा का प्रेम