November 21, 2024

काव्य प्रेमियों के मानस को अपनी कलम और वाणी से झकझोरने वाले जादुई कवि श्री कैलाश गौतम जी का जन्म ८ जनवरी, १९४४ को वाराणसी जनपद के चंदौली अंतर्गत डिग्घी नामक गांव में हुआ था। शिक्षा प्राप्ति के उपरांत कैलाश जी ने अपना कर्मक्षेत्र प्रयाग को चुना। इसलिए कैलाश गौतम के स्वभाव में काशी और प्रयाग दोनों के संस्कार रचे-बसे थे। जोड़ा ताल, सिर पर आग, तीन चौथाई आन्हर, कविता लौट पडी, बिना कान का आदमी आदि प्रमुख काव्य कृतियां हैं जो कैलाश गौतम को कालजयी बनाती हैं। परंतु जै-जै सियाराम और तम्बुओं का शहर जैसे महत्वपूर्ण उपन्यास अप्रकाशित रह गये।

कार्य…

आकाशवाणी इलाहाबाद से सेवानिवृत्त होने के बाद तत्कालीन उत्तरप्रदेश सरकार ने कैलाश गौतम को आजादी के पूर्व स्थापित हिन्दुस्तानी एकेडेमी के अध्यक्ष पद पर मनोनीत किया। एकेडेमी के अध्यक्ष पद पर रहते हुए इस महान कवि का ९ दिसम्बर २००६ को निधन हो गया। कैलाश गौतम को अपने जीवनकाल में पाठकों और श्रोताओं से जो प्रशंसा या खयाति मिली वह दशकों बाद किसी विरले कवि को नसीब होती है। कैलाश गौतम जिस गरिमा के साथ हिन्दी कवि सम्मेलनों का संचालन करते थे उसी गरिमा के साथ कागज पर अपनी कलम को धार देते थे।

सम्मान…

परिवार सम्मान, प्रतिष्ठित ऋतुराज सम्मान और मरणोपरान्त तत्कालीन उत्तर प्रदेश सरकार ने कैलाश गौतम को ‘यश भारती सम्मान’ (राशि ५.०० लाख रुपये) से इस कवि को सम्मानित किया।

रचनाएँ…

१. सीली माचिस की तीलियाँ (कविता संग्रह)
२. जोड़ा ताल (कविता संग्रह)
३. तीन चौथाई आंश (भोजपुरी कविता संग्रह)
४. सिर पर आग (गीत संग्रह)
५. बिना कान का आदमी (दोहा संकलन)
६. चिन्ता नए जूते की (निबंध-संग्रह)
७. आदिम राग (गीत-संग्रह)
८. तंबुओं का शहर (उपन्यास)

अमौसा के मेला…

भक्ति के रंग में रंगल गाँव देखा,
धरम में, करम में, सनल गाँव देखा।
अगल में, बगल में सगल गाँव देखा,
अमौसा नहाये चलल गाँव देखा।

एहू हाथे झोरा, ओहू हाथे झोरा,
कान्ही पर बोरा, कपारे पर बोरा।
कमरी में केहू, कथरी में केहू,
रजाई में केहू, दुलाई में केहू।

आजी रँगावत रही गोड़ देखऽ,
हँसत हँउवे बब्बा, तनी जोड़ देखऽ।
घुंघटवे से पूछे पतोहिया कि, अईया,
गठरिया में अब का रखाई बतईहा।

एहर हउवे लुग्गा, ओहर हउवे पूड़ी,
रामायण का लग्गे ह मँड़ुआ के डूंढ़ी।
चाउर आ चिउरा किनारे के ओरी,
नयका चपलवा अचारे का ओरी।

अमौसा के मेला, अमौसा के मेला।

(इस गठरी और इस व्यवस्था के साथ गाँव का आदमी जब गाँव के बाहर रेलवे स्टेशन पर आता है तब क्या स्थिति होती है ?)

मचल हउवे हल्ला, चढ़ावऽ उतारऽ,
खचाखच भरल रेलगाड़ी निहारऽ।
एहर गुर्री-गुर्रा, ओहर लुर्री‍-लुर्रा,
आ बीचे में हउव शराफत से बोलऽ

चपायल ह केहु, दबायल ह केहू,
घंटन से उपर टँगायल ह केहू।
केहू हक्का-बक्का, केहू लाल-पियर,
केहू फनफनात हउवे जीरा के नियर।

बप्पा रे बप्पा, आ दईया रे दईया,
तनी हम्मे आगे बढ़े देतऽ भईया।
मगर केहू दर से टसकले ना टसके,
टसकले ना टसके, मसकले ना मसके,

छिड़ल ह हिताई-मिताई के चरचा,
पढ़ाई-लिखाई-कमाई के चरचा।
दरोगा के बदली करावत हौ केहू,
लग्गी से पानी पियावत हौ केहू।
अमौसा के मेला, अमौसा के मेला।

(इसी भीड़ में गाँव का एक नया जोड़ा, साल भर के अन्दरे के मामला है, वो भी आया हुआ है। उसकी गती से उसकी अवस्था की जानकारी हो जाती है बाकी आप आगे देखिये…)

गुलब्बन के दुलहिन चलै धीरे धीरे
भरल नाव जइसे नदी तीरे तीरे।
सजल देहि जइसे हो गवने के डोली,
हँसी हौ बताशा शहद हउवे बोली।

देखैली ठोकर बचावेली धक्का,
मने मन छोहारा, मने मन मुनक्का।
फुटेहरा नियरा मुस्किया मुस्किया के
निहारे ली मेला चिहा के चिहा के।

सबै देवी देवता मनावत चलेली,
नरियर प नरियर चढ़ावत चलेली।
किनारे से देखैं, इशारे से बोलैं
कहीं गाँठ जोड़ें कहीं गाँठ खोलैं।

बड़े मन से मन्दिर में दर्शन करेली
आ दुधै से शिवजी के अरघा भरेली।
चढ़ावें चढ़ावा आ कोठर शिवाला
छूवल चाहें पिण्डी लटक नाहीं जाला।

अमौसा के मेला, अमौसा के मेला।

(इसी भीड़ में गाँव की दो लड़कियां, शादी वादी हो जाती है, बाल बच्चेदार हो जाती हैं, लगभग दस बारह बरसों के बाद मिलती हैं। वो आपस में क्या बतियाती हैं …)

एही में चम्पा-चमेली भेंटइली।
बचपन के दुनो सहेली भेंटइली।
ई आपन सुनावें, ऊ आपन सुनावें,
दुनो आपन गहना-गजेला गिनावें।

असो का बनवलू, असो का गढ़वलू
तू जीजा क फोटो ना अबतक पठवलू.
ना ई उन्हें रोकैं ना ऊ इन्हैं टोकैं,
दुनो अपना दुलहा के तारीफ झोंकैं।

हमैं अपना सासु के पुतरी तूं जानऽ
हमैं ससुरजी के पगड़ी तूं जानऽ।
शहरियो में पक्की देहतियो में पक्की
चलत हउवे टेम्पू, चलत हउवे चक्की।

मने मन जरै आ गड़ै लगली दुन्नो
भया तू तू मैं मैं, लड़ै लगली दुन्नो।
साधु छुड़ावैं सिपाही छुड़ावैं
हलवाई जइसे कड़ाही छुड़ावै।

अमौसा के मेला, अमौसा के मेला।

(कभी-कभी बड़ी-बड़ी दुर्घटनायें हो जाती हैं। दो तीन घटनाओं में मैं खुद शामिल रहा, चाहे वो हरिद्वार का कुंभ हो, चाहे वो नासिक का कुंभ रहा हो। सन ५४ के कुंभ में इलाहाबाद में ही कई हजार लोग मरे। मैंने कई छोटी-छोटी घटनाओं को पकड़ा। जहाँ जिन्दगी है, मौत नहीं है। हँसी है दुख नहीं है….)

करौता के माई के झोरा हेराइल
बुद्धू के बड़का कटोरा हेराइल।
टिकुलिया के माई टिकुलिया के जोहै
बिजुरिया के माई बिजुरिया के जोहै।

मचल हउवै हल्ला त सगरो ढुढ़ाई
चबैला के बाबू चबैला के माई।
गुलबिया सभत्तर निहारत चलेले
मुरहुआ मुरहुआ पुकारत चलेले।

छोटकी बिटउआ के मारत चलेले
बिटिइउवे प गुस्सा उतारत चलेले।

गोबरधन के सरहज किनारे भेंटइली।

(बड़े मीठे रिश्ते मिलते हैं।)
गोबरधन के सरहज किनारे भेंटइली।
गोबरधन का संगे पँउड़ के नहइली।
घरे चलतऽ पाहुन दही गुड़ खिआइब।
भतीजा भयल हौ भतीजा देखाइब।

उहैं फेंक गठरी, परइले गोबरधन,
ना फिर फिर देखइले धरइले गोबरधन।

अमौसा के मेला, अमौसा के मेला.

(अन्तिम पंक्तियाँ हैं. परिवार का मुखिया पूरे परिवार को कइसे लेकर के आता है यह दर्द वही जानता है. जाड़े के दिन होते हैं. आलू बेच कर आया है कि गुड़ बेच कर आया है. धान बेच कर आया है, कि कर्ज लेकर आया है. मेला से वापस आया है. सब लोग नहा कर के अपनी जरुरत की चीजें खरीद कर चलते चले आ रहे हैं. साथ रहते हुये भी मुखिया अकेला दिखाई दे रहा है….)

केहू शाल, स्वेटर, दुशाला मोलावे
केहू बस अटैची के ताला मोलावे
केहू चायदानी पियाला मोलावे
सुखौरा के केहू मसाला मोलावे।

नुमाइश में जा के बदल गइली भउजी
भईया से आगे निकल गइली भउजी
आयल हिंडोला मचल गइली भउजी
देखते डरामा उछल गइली भउजी।

भईया बेचारु जोड़त हउवें खरचा,
भुलइले ना भूले पकौड़ी के मरीचा।
बिहाने कचहरी कचहरी के चिंता
बहिनिया के गौना मशहरी के चिंता।

फटल हउवे कुरता टूटल हउवे जूता
खलीका में खाली किराया के बूता
तबो पीछे पीछे चलल जात हउवें
कटोरी में सुरती मलत जात हउवें।

अमौसा के मेला, अमौसा के मेला।

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