पेशवा बालाजी विश्वनाथ के बाद उनका मेधावी पुत्र बाजीराव प्रथम मराठा साम्राज्य का वंशगत द्वितीय पेशवा बना, जिसका शासन वर्ष १७२० से लेकर उसके जीवन के अंतिम दिनों तक यानी वर्ष १७४० तक रहा। उसने अपनी दूरदृष्टि से देख लिया था कि मुग़ल साम्राज्य छिन्न-भिन्न होने जा रहा है। इसीलिए उसने महाराष्ट्र क्षेत्र से बाहर के हिन्दू राजाओं की सहायता से मुग़ल साम्राज्य के स्थान पर ‘हिन्दू पद पादशाही’ स्थापित करने की एक अविश्वसनीय एवम आलौकिक योजना बनाई थी।
परिचय…
बाजीराव प्रथम यानी बाजीराव बल्लाल या थोरले बाजीराव का जन्म १८ अगस्त, १७०० को पेशवा बालाजी विश्वनाथ तथा राधाबाई के यहां हुआ था। पेशवा बाजीराव की दो पत्नियां थीं, काशीबाई तथा मस्तानी। काशीबाई से उन्हें दो पुत्र हुए बालाजी बाजीराव तथा रघुनाथराव। वहीं मस्तानी से भी उन्हें एक पुत्र हुआ, जिसका नाम पहले कृष्णराव रखा गया, लेकिन पुणे के ब्राह्मणों ने उसका जनेऊ संस्कार करने से मना कर दिया। इसी वजह से उसे उसकी मां ने कृष्णसिंह नाम दिया। शमशेर बहादुर एक उपाधि है जो बाजीराव ने ही अपने पुत्र को दी थी। कालांतर में बाजीराव और मस्तानी की मृत्यु के बाद उस बालक को जानबूझ कर इस्लाम कुबूलवाया गया, ताकि आगे चल कर उसका पेशवा की गद्दी और पेशवाई में कोई अधिकार ना रहे। उसके बाद भी शमशेर बहादुर ने पेशवा परिवार की बड़े लगन और परिश्रम से सेवा की। वर्ष १७६१ में शमशेर बहादुर मराठों की ओर से लड़ते हुए पानीपत के मैदान में मारा गया।
योग्य सेनापति…
बाजीराव प्रथम ने मुग़ल साम्राज्य की कमज़ोर हो रही स्थिति का फ़ायदा उठाने के लिए शाहू महाराज को उत्साहित करते हुए कहा था, “आईए हम इस पुराने वृक्ष के खोखले तने पर प्रहार करें, शाखायें तो स्वयं ही गिर जायेंगी। हमारे प्रयत्नों से मराठा पताका कृष्णा नदी से अटक तक फहराने लगेगी।” इसके उत्तर में शाहूजी ने कहा, “निश्चित रूप से ही आप इसे हिमालय के पार गाड़ देगें। निःसन्देह आप योग्य पिता के योग्य पुत्र हैं।”
शाहू महाराज ने राज-काज से तकरीबन अपने को अलग कर लिया था और मराठा साम्राज्य के प्रशासन का पूरा काम पेशवा बाजीराव प्रथम के कुशल नेतृत्व के अंदर आ गया था। उन्होंने अपनी दूरदृष्टि से देख लिया था कि मुग़ल साम्राज्य छिन्न-भिन्न होने जा रहा है। इसीलिए उसने महाराष्ट्र क्षेत्र से बाहर के हिन्दू राजाओं की सहायता से मुग़ल साम्राज्य के स्थान पर ‘हिन्दू पद पादशाही’ स्थापित करने की योजना बनाई थी। इसी उद्देश्य से उसने मराठा सेनाओं को उत्तर भारत भेजा, जिससे पतनोन्मुख मुग़ल साम्राज्य की जड़ पर अन्तिम प्रहार किया जा सके। उसने वर्ष १७२३ में मालवा पर आक्रमण किया और वर्ष १७२४ में स्थानीय हिन्दुओं की सहायता से गुजरात जीत लिया। परन्तु इसके मामलों में बाजीराव प्रथम के हस्तक्षेप का एक प्रतिद्वन्द्वी मराठा दल ने, जिसका नेता पुश्तैनी सेनापति त्र्यम्बकराव दाभाड़े था, घोर विरोध किया।
सफलताएँ…
बाजीराव ने सर्वप्रथम दक्कन के निज़ाम निज़ामुलमुल्क से लोहा लिया, जो मराठों के बीच मतभेद के द्वारा फूट पैदा कर रहा था। ७ मार्च, १७२८ को पालखेड़ा के संघर्ष में निजाम को बुरी तरह हार का सामना करना पड़ा और ‘मुगी शिवगांव’ संधि के लिए बाध्य होना पड़ा, जिसकी शर्ते कुछ इस प्रकार थीं…
१. शाहू को चौथ तथा सरदेशमुखी देना।
२. शम्भू की किसी तरह से सहायता न करना।
३. जीते गये प्रदेशों को वापस करना।
४. युद्ध के समय बन्दी बनाये गये लोगों को छोड़ देना आदि।
शिवाजी के वंश के कोल्हापुर शाखा के राजा शम्भुजी द्वितीय तथा निज़ामुलमुल्क, जो बाजीराव प्रथम की सफलताओं से जलते थे, त्र्यम्बकराव दाभाड़े से जा मिले। परन्तु बाजीराव ने अपनी उच्चतर प्रतिभा के बल पर अपने शत्रुओं की योजनाओं को विफल कर दिया। १ अप्रैल, १७३१ को ढावोई के निकट बिल्हापुर के मैदान में, जो बड़ौदा तथा ढावोई के बीच में है, एक लड़ाई हुई। इस लड़ाई में त्र्यम्बकराव दाभाड़े परास्त होकर मारा गया। बाजीराव प्रथम की यह विजय ‘पेशवाओं के इतिहास में एक युगान्तकारी घटना है।’ वर्ष १७३१ में निज़ाम के साथ की गयी एक सन्धि के द्वारा पेशवा को उत्तर भारत में अपनी शक्ति का प्रसार करने की छूट मिल गयी। बाजीराव का अब महाराष्ट्र में कोई भी प्रतिद्वन्द्वी नहीं रह गया था और राजा शाहू का उसके ऊपर केवल नाम मात्र नियंत्रण था।
दक्कन के बाद गुजरात तथा मालवा जीतने के प्रयास में बाजीराव प्रथम को सफलता मिली तथा इन प्रान्तों में भी मराठों को चौथ एवं सरदेशमुखी वसूलने का अधिकार प्राप्त हुआ। ‘बुन्देलखण्ड’ की विजय बाजीराव की सर्वाधिक महान् विजय में से मानी जाती है। मुहम्मद ख़ाँ वंगश, जो बुन्देला नरेश छत्रसाल को पूर्णत: समाप्त करना चाहता था, के प्रयत्नों पर बाजीराव प्रथम ने छत्रसाल के सहयोग से वर्ष १७२८ में पानी फेर दिया और साथ ही मुग़लों द्वारा छीने गये प्रदेशों को छत्रसाल को वापस करवाया। कृतज्ञ छत्रसाल ने पेशवा की शान में एक दरबार का आयोजन किया तथा काल्पी, सागर, झांसी और हद्यनगर पेशवा को निजी जागीर के रूप में भेंट किया।
निज़ामुलमुल्क पर विजय…
बाजीराव ने सौभाग्यवश आमेर के सवाई जयसिंह द्वितीय तथा छत्रसाल बुन्देला की मित्रता प्राप्त कर ली। वर्ष १७३७ में वह सेना लेकर दिल्ली के पार्श्व तक गया, परन्तु बादशाह की भावनाओं पर चोट पहुँचाने से बचने के लिए उसने अन्दर प्रवेश नहीं किया। इस मराठा संकट से मुक्त होने के लिए बादशाह ने बाजीराव के घोर शत्रु निज़ामुलमुल्क को सहायता के लिए दिल्ली बुला भेजा। निज़ामुलमुल्क को वर्ष १७३१ के समझौते की उपेक्षा करने में कोई हिचकिचाहट महसूस नहीं हुई। उसने बादशाह के बुलावे का शीघ्र ही उत्तर दिया, क्योंकि इसे उसने बाजीराव की बढ़ती हुई शक्ति के रोकने का अनुकूल अवसर समझा। भोपाल के निकट दोनों प्रतिद्वन्द्वियों की मुठभेड़ हुई। निज़ामुलमुल्क पराजित हुआ तथा उसे विवश होकर सन्धि करनी पड़ी। इस सन्धि के अनुसार उसने निम्न बातों की प्रतिज्ञा की…
१. बाजीराव को सम्पूर्ण मालवा देना तथा नर्मदा एवं चम्बल नदी के बीच के प्रदेश पर पूर्ण प्रभुता प्रदान करना।
२. बादशाह से इस समर्पण के लिए स्वीकृति प्राप्त करना।
३. पेशवा का ख़र्च चलाने के लिए पचास लाख रुपयों की अदायगी प्राप्त करने के लिए प्रत्येक प्रयत्न को काम में लाना।
मृत्यु…
इन प्रबन्धों के बादशाह द्वारा स्वीकृत होने का परिणाम यह हुआ कि मराठों की प्रभुता, जो पहले ठेठ हिन्दुस्तान के एक भाग में वस्तुत: स्थापित हो चुकी थी, अब क़ानूनन भी हो गई। पश्चिमी समुद्र तट पर मराठों ने पुर्तग़ालियों से वर्ष १७३९ में साष्टी तथा बसई छीन ली। परन्तु शीघ्र ही बाजीराव, नादिरशाह के आक्रमण से कुछ चिन्तित हो गया। अपने मुसलमान पड़ोसियों के प्रति अपने सभी मतभेदों को भूलकर पेशवा ने पारसी आक्रमणकारी को संयुक्त मोर्चा देने का प्रयत्न किया। परन्तु इसके पहले की कुछ किया जा सकता, २८ अप्रैल, १७४० में नर्मदा नदी के किनारे उसकी मृत्यु हो गई। इस प्रकार एक महान् मराठा राजनीतिज्ञ चल बसा।
विशेष…
बाजीराव ने मराठा शक्ति के प्रदर्शन हेतु २९ मार्च, १७३७ को दिल्ली पर धावा बोल दिया था। मात्र तीन दिन के दिल्ली प्रवास के दौरान उसके भय से मुग़ल सम्राट मुहम्मदशाह दिल्ली को छोड़ने के लिए तैयार हो गया था। इस प्रकार उत्तर भारत में मराठा शक्ति की सर्वोच्चता सिद्ध करने के प्रयास में बाजीराव सफल रहा था। उसने पुर्तग़ालियों से बसई और सालसिट प्रदेशों को छीनने में सफलता प्राप्त की थी। शिवाजी महाराज के बाद बाजीराव प्रथम ही दूसरा ऐसा मराठा सेनापति था, जिसने गुरिल्ला युद्ध प्रणाली को अपनाया। वह ‘लड़ाकू पेशवा’ के नाम से भी जाना जाता है। उसने अपने जीवनकाल में किसी की भी परवाह नहीं की, उसका एकमात्र लक्ष्य मराठा साम्राज्य का विस्तार और मजबूती प्रदान करना था। यदि बाजीराव कुछ समय और जीवित रहता, तो इतिहास कुछ अलग ही होता। इसीलिए तो उसे मराठा साम्राज्य का द्वितीय संस्थापक माना जाता है।
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