१७ दिसंबर, १९५८ का दिन था, अग्रवाडेकर जी कहीं जा रहे थे एकाएक उन्हें यह एहसास हुआ की उनका पीछा किया जा रहा है वो सम्हल गए और एक पेड़ के पीछे छुप कर अंदाजा लगाने लगे। “अरे! यह किसी एक या दो लॊगॊ के पदचाप की आवाज तो नहीं लगती, यह तो कोई बड़ी टोली जान पड़ती है” यह घटना गोआ के अनजुना जंगल की है। पुर्तगालियों की सेना ने पुरे जंगल को घेर रखा था और यह सेना पुर्तगाल सरकार के कहने पर सिर्फ और सिर्फ अग्रवाडेकर जी को पकड़ने के लिए आई थी। कहने को तो इतिहास ने इसे एक मुठभेड़ का नाम दिया है जिसमें एक बड़े पुलिस दल और अग्रवाडेकर के बीच हुई थी, जिसमें वो वीरगति को प्राप्त कर गए थे। मगर कभी किसी ने इतिहास से ये नहीं पूछा की क्या पुलिस आठ हजार सैनिक के साथ चलती है, अथवा आठ हजार सैनिक कभी मुठभेड़ के लिए जाते हैं या युद्ध के लिए। साथ हीं इस युद्ध से कितने वापस आए थे ? यह भी इतिहास बताए।

मगर यह कोई नहीं बताएगा क्यूंकि यह वह पल था जिसे याद रखना भारत सरकार अथवा भारतीय सैनिक के एक तमगे को छीन लेना होगा। अपने कॉलर को ऊँचा रखने की आदत ने इस महान क्रांतिकारी के इतिहास को छुपा दिया, जिससे अपनी साख बने अथवा बनी रहे। आठ हजार सैनिकों से लगातार कई दिनों तक छापामार युद्ध लड़ता यह योद्धा वीरगति को प्राप्त हो गया, मगर पुर्तगालियों के हाँथ नहीं लग। कैसे मरा, कब मरा, खुद मरा या किसी ने मारा यह तो कोई नहीं जानता। मगर इतना तो सभी जानते हैं की गुमशुदगी के बाईससौ और मरने के डेढ़ हजार केस आज भी पुर्तगाली कोर्ट में पेंडिंग हैं। इतना ही नहीं इतिहास इस पर भी प्रकाश डाले की उन दिनों पंजी (पणजी)के सारे अस्पताल सैनिकों से क्यूँ भरे पड़े थे। कोई रेगुलर जांच का बहाना ही बना दे इतिहास मगर जवाब दे।

इतिहास के जानकारों के अनुसार यही वाह पल था, जिसकी पीठ पर चढ़ कर भारतीय सेना ने गोवा, दमन और दीव को करीब ४५० साल के पुर्तगाली साम्राज्य से आजाद कराया था,और अंत में १८ दिसंबर १९६१ को भारतीय सेना ने गोवा में ऑपरेशन विजय की शुरुआत की और १९ दिसंबर को पुर्तगाली सेना ने आत्मसर्पण कर दिया। गोआ आजाद हो गया।

यह वीर था, माफ कीजिए हमारे दिलों में राज करने वाले इस माहबीर का नाम है…

श्री यशवंत अग्रवाडेकर
जिनका जन्म १५ जनवरी, १९१८ को गोवा के सियोलिम ग्राम में हुआ था। श्री अग्रवाडेकर पुर्तग़ाली पुलिस की दृष्टि में इतने खतरनाक क्रांतिकारी थे कि उनकी गिरफ्तारी के लिए पुर्तग़ाल सरकार ने उस जमाने में पाँच हजार रूपए का पुरस्कार तक घोषित कर दिया था। उन्होंने कई मुठभेड़ों में पुलिस को इतनी भारी जनहानि पहुँचाई थी, की अंत में लाचार हो कर पुलिस को सेना की मदद लेनी पड़ गई थी। वे जिस दल को लेकर चलते थे उस दल का नाम था गोमांतक दल। आजादी के बाद ना तो गोमान्तक दल का पता चला और ना ही उसके सदस्यों का, कहाँ गए, क्या हुआ उनके साथ ? ? ?

मगर अश्विनी राय ‘अरुण’ हर उस भूले, अथवा बिसरा दिए गए आत्माओं को नमन करता है! वंदन करता है !

धन्यवाद !

एक सूचना, “इस महान योद्धा का चित्र हम खोज नहीं पाए अतः हम क्षमा प्रार्थी हैं”।

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