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हम आज बात कर रहे हैं, द्विवेदी युग के एक ऐसे कवि के बारे में, जिनकी कविताओं में भक्ति-भावना, राष्ट्र-प्रेम तथा विद्रोह का स्वर प्रमुखता से दिखाई पड़ता है। उन्होंने ब्रजभाषा के प्रभाव से युक्त खड़ी बोली में काव्य रचना की। हम बात कर रहे हैं ऐसे रचनाकार के बारे में, जिनकी रचना संसार से अभिभूत होकर देश ने उन्हें वर्ष १९६९ में साहित्य एवं शिक्षा के क्षेत्र पद्मभूषण से सम्मानित किया था। जी हां! हम बात कर रहे हैं बालकृष्ण शर्मा नवीन जी के बारे में, वे परम्परा और समकालीनता के कवि थे। उनकी कविताओं में स्वच्छन्दतावादी धारा के प्रतिनिधि स्वर के साथ-साथ राष्ट्रीय आंदोलन की चेतना, गांधी दर्शन और संवेदनाओं की झंकृतियां समान ऊर्जा और उठान के साथ सुनी जा सकती हैं। इतना ही नहीं, वे जीवन पर्यंत पत्रकारिता और राष्ट्रीय आंदोलन से जुड़े रहे।

परिचय…

बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन’ जी का जन्म ८ दिसम्बर, १८९७ ई० को मध्यप्रदेश के शुजालपुर जिला अंतर्गत शाजापुर के निकट भयाना नामक गांव में हुआ था। उनके पिता जमुनादास शर्मा जी नाथद्वारा के मन्दिरों में पुरोहिती का कार्य करते थे। नवीन की शिक्षा ११ वर्ष की अवस्था में गृहजनपद के ही परगना स्कूल में हुई। आगे की शिक्षा के लिए उन्हें उज्जैन भेज दिया गया। जहां से माधव कॉलेज से मैट्रिक की पढ़ाई पूरी की। उज्जैन के अपने अध्ययनकाल के दौरान ही साहित्यिक वातावरण और राष्ट्रीय आन्दोलन की हलचलों में पर्याप्त रुचि लेने लगे थे। कानपुर से निकलने वाली व गणेशशंकर विद्यार्थी के सम्पादन में प्रकाशित होने वाली पत्रिका ‘प्रताप’ का वे नियमित अध्ययन करते थे। इसी दौरान वे माखनलाल चतुर्वेदी और मैथिलीशरण गुप्त के संपर्क में भी आए।

साहित्य…

शर्माजी की पहली रचना ‘सन्तू’ नामक एक कहानी थी, जिसे उन्होंने सरस्वती में छपने के लिए भेजा था। इसके बाद वे कविता की तरफ मुड़े। ‘जीव ईश्वर वार्तालाप’ शीर्षक की कविता से उनकी पहचान बनी। तो दूसरी ओर स्वतंत्रता आंदोलन से भी वे जुड़ गए। महात्मा गांधी के असहयोग आंदोलन उस समय इतना जोर था कि पढ़ाई छोड़कर वे राजनीति में आ गए। यहीं से नवीन जी की जेल यात्राओं का दौर शुरू हुआ और जो देश की आजादी तक निरंतर चलता रहा। असहयोग आंदोलन के बाद नमक सत्याग्रह, फिर व्यक्तिगत सत्याग्रह और अन्त में १९४२ का ऐतिहासिक भारत छोड़ो आंदोलन। इस प्रकार कुल छः जेल यात्राओं में जिन्दगी के नौ वर्ष नवीन जी ने जेल में गुजारे। मगर वह नौ वर्ष शर्माजी के लिए साहित्यक यात्रा रही, उनकी सर्वश्रेष्ठ रचनाएं इन्हीं जेल यात्राओं के दौरान रची गईं। जो निम्नवत हैं… कुमकुम, रश्मिरेखा, अपलक, क्वासि, उर्मिला, विनोबा स्तवन, प्राणार्पण तथा हम विषपायी जन्म के। जेलयात्रा के दौरान उनकी पहली रचना ‘उर्मिला’ थी।

रचना चर्चा…

साहित्य के विद्वानों के अनुसार, ‘उर्मिला महाकाव्य के प्रणयन में आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी की प्रेरणा साफ देखी जा सकती है। छः सर्गों वाली इस कृति में यद्यपि उर्मिला के जन्म से लेकर लक्ष्मण से पुर्नमिलन तक की कथा कही गई है, लेकिन अन्य पक्षों के बजाय उर्मिला का विरह-वर्णन कला की दृष्टि से सबसे सरस बन पड़ा है।’

देवि उर्मिले तेरी अकथित गाथा गाता हँ मैं,
किंवा तव चरिताम्बुधि-भजन के हित आता हँ मैं।
अति अगम्य बलवती लहर है थाह न पाता हँ मैं,
हृदय शिला पर तव चरणों को देवि बिठाता हँ मैं।।

इसके अलावा उनकी अधिकांश कविताएं कारागार के शून्य कक्ष में ही लिखी गई हैं। जेल से बाहर नवीन जी काव्य की दृष्टि से विशेष कुछ नहीं लिख पाए। ‘शिमला-समझौते में निराशा का अवतरण’, ‘मुसलमान भाइयों की खिदमत में’, ‘तुम्हारे उपवास की चिन्ता’, ‘एक ही थैली के चट्टे-बट्टे’ आदि शीर्षकों से जो असंख्य अग्रलेख और निबंध, जेल से बाहर के जीवन में नवीन जी ने लिखे, वे ‘प्रताप’ और ‘प्रभा’ में प्रकाशित होकर सतत् चर्चाओं के केन्द्र में रहे।

पत्रकारिता…

बालकृष्ण शर्मा एक अच्छे गद्यकार के साथ जागरूक पत्रकार भी थे। उन्होंने विद्यार्थी जी की ओजपूर्ण भावात्मक गद्य-शैली को अपना पाथेय बनाया था। विद्यार्थी जी के जीवनकाल में ही प्रताप और प्रभा के सम्पादन का स्वतंत्र दायित्व संभाल कर न सिर्फ उन्होंने अपनी पत्रकारिता संबंधी भाषाओं का परिचय दिया, बल्कि प्रभा के झण्डा अंक के द्वारा हिन्दी की राष्ट्रीय पत्रकारिता में एक गौरवपूर्ण पृष्ठ भी जोड़ा।

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