April 20, 2024

आज हम बात करने वाले हैं मराठा साम्राज्य के चौथे पूर्णाधिकार प्राप्त एवम महानतम पेशवा के रूप में मान्य पेशवा माधवराव प्रथम के बारे में, जो अल्पवयस्क होने के बावजूद अद्भुत दूरदर्शिता एवं संगठन-क्षमता के कारण पानीपत के तृतीय युद्ध में मराठों की खोयी शक्ति एवं प्रतिष्ठा की पुनर्प्राप्ति संभव हो पायी। अब विस्तार से…

परिचय…

माधवराव (प्रथम) का जन्म १६ फरवरी, १७४५ को पेशवा बालाजी बाजीराव तथा उनकी पत्नी ‘गोपिकाबाई’ की प्रथम संतान के रूप में हुआ था तथा ९ दिसंबर, १७५३ को ‘माधवराव’ का विवाह ‘रमाबाई’ से हुआ था। पेशवा बालाजी बाजीराव को नाना साहब भी कहा जाता था, ने अपनी मृत्यु के पूर्व ही यह निर्णय कर दिया था कि उनके पश्चात् अल्पवयस्क होने के बावजूद उनका बड़ा पुत्र ‘माधवराव’ ही पेशवा की गद्दी पर बैठेगा तथा उसके वयस्क होने तक उसके चाचा रघुनाथराव (राघोबा) पेशवा की ओर से राजकाज सभालेंगे। इसी निर्णय के अनुसार पेशवा बालाजी बाजीराव के निधन होने पर श्राद्धकार्य संपन्न हो जाने के बाद माधवराव को छत्रपति से मिलने के लिए सतारा ले जाया गया। वहीं २० जुलाई, १७६१ को छत्रपति के द्वारा माधवराव को ‘पेशवा-पद’ के वस्त्र प्रदान किये गये।

गृहकलह…

सतारा से लौटने के बाद राघोबा ने अल्पवयस्क पेशवा के संरक्षक के रूप में शासन की बागडोर अपने हाथों में ले ली। सखाराम बापू दीवान नियुक्त किये गये। पेशवा की माता गोपिकाबाई महान् पेशवा बाजीराव के समय से ही पेशवाई के विभिन्न कार्यों तथा संकटों को भी देखती आई थी तथा काफी अनुभव प्राप्त थी। उन्हें राघोबा द्वारा सारा अधिकार अपने हाथ में ले लिया जाना अच्छा नहीं लगा तथा उन्हें पेशवा के भविष्य की चिंता होने लगी। उन्होंने राघोबा के एकाधिकार का विरोध करना आरंभ किया। इस प्रकार पूना के दरबार में गृह कलह आरंभ हुआ। सरदारों के दो पक्ष बन गये। एक गोपिकाबाई का समर्थक था और दूसरा राघोबा का। गोपिकाबाई के समर्थकों में प्रमुख थे- बाबूराव फड़णवीस, त्रिंबकराव पेठे, आनंदराव रस्ते, तात्या घोड़पड़े, गोपाल राव पटवर्धन, भवानराव प्रतिनिधि आदि। रघुनाथराव के समर्थकों में प्रमुख थे सखाराम बापू, चिन्तो विट्ठल रायरीकर, महिपतराव चिटणिस, कृष्णराव पारसनीस, आबा पुरंदरे, विठ्ठल शिवदेव विंचूरकर, नारोशंकर राजबहादुर आदि।

अनेक प्रमुख लोगों सहित आम जनता की स्वाभाविक सहानुभूति बालक पेशवा के प्रति थी और इसलिए जब राघोबा तथा सखाराम बापू को लगा कि उनका विरोध लगातार बढ़ता जा रहा है तो उन्होंने बालक पेशवा तथा गोपिकाबाई को विवश करने के उद्देश्य से अपने-अपने पदों से त्याग पत्र देने की धमकी देने लगे। उनका मानना था कि उनके बिना राजकार्य संभव ही नहीं हो पाएगा और तब मजबूरन गोपिकाबाई को झुकना पड़ेगा। परंतु गोपिकाबाई ने चतुराई का परिचय देते हुए इन दोनों को अलग ही रखते हुए इनके स्थानों पर बाबूराव फड़णवीस तथा त्रिंबकराव पेठे को नियुक्त कर देने की बात की। इससे राघोबा अत्यंत क्रुद्ध होकर निजाम को पेशवा के विरुद्ध भड़काने लगा। इसके साथ ही अपनी स्वयं की सेना भी एकत्र करने लगा। अल्पवयस्क होने के बावजूद माधवराव में स्वाभाविक दूरदर्शिता थी और वे विवेक संपन्न थे। उन्होंने राघोबा को समझाने और प्रसन्न करने का प्रयत्न किया तथा इस बात के लिए भी राजी हो गये कि भविष्य में उनकी सलाह के अनुसार कार्य करेंगे। परंतु, राघोबा स्वयं पेशवा पद पर आसीन होना चाहता था इसलिए उसने अनुचित माँगें रखीं।

पेशवा की पराजय …

पेशवा द्वारा माँग पूरी न किये जाने पर राघोबा ने अपनी निजी सेना तथा निजाम की सहायता लेकर युद्ध छेड़ दिया। ७ नवंबर, १७६२ को पुणे से ३० मील दूर दक्षिण-पूर्व में घोड़ नदी के किनारे युद्ध हुआ, परंतु निर्णय न हो सका। पेशवा वहाँ से सेना हटाकर भीमा नदी के किनारे आलेगाँव चले गये। राघोबा ने निजाम की सेना के साथ पीछा करते हुए वहाँ पहुँचकर १२ नवंबर को अचानक पेशवा पर आक्रमण किया, जिसके लिए पेशवा तैयार न हो पाये थे। परिणामस्वरूप उनकी घोर पराजय हुई। इस गृहयुद्ध को लंबे समय तक न चलने देने के उत्तम उद्देश्य से पेशवा ने स्वयं राघोबा के शिविर में जाकर आत्मसमर्पण कर दिया। राघोबा ने ऊपर से यह दिखाया कि उसे पद या सत्ता का मोह नहीं है, परंतु गुप्त रूप से पेशवा तथा उनकी माता को एक प्रकार से नजरबंद कर दिया। दो हजार सैनिकों के एक रक्षादल को पेशवा पर कड़ी नजर रखने के लिए नियुक्त कर दिया। इसी प्रकार गोपिकाबाई को भी शनिवारवाड़ा में ही कड़ी सुरक्षा में रखा गया। अपनी स्थिति सुदृढ़ करने के लिए राघोबा ने समस्त अनुभवी तथा पेशवा के विश्वसनीय कर्मचारियों को पद से हटाकर अपने लोगों को बहाल कर दिया। राघोबा की प्रतिहिंसा से बचने के लिए अनेक प्रमुख सरदार निजाम के यहाँ चले गये। पुणे में दिनोंदिन राघोबा के प्रति असंतोष बढ़ता ही चला गया।

माधवराव की पूर्णतया सत्ता-प्राप्ति…

निजाम ने अपने भाई सलावतजंग को पदच्युत कर अपने समय के चतुर कूटनीतिज्ञ विट्ठल सुंदर को अपना दीवान बनाया था। विठ्ठल सुंदर ने जब देखा कि पानीपत की पराजय तथा उसके उपरांत गृहकलह के कारण मराठा राज्य निर्बल हो गया है तो उसने निजाम को पुणे पर आक्रमण करने का सुझाव दिया। निजाम ने पेशवा को लिखा कि भीमा नदी के पूर्व का सारा प्रान्त तथा पहले उससे लिये गये उसके सभी किले उसको सौंप दिये जाएं। जिन मराठा सरदारों की जागीर छीन ली गयी है वे उन्हें लौटा दी जाए। उसके द्वारा नियुक्त व्यक्ति को दीवान बनाया जाए तथा पेशवा दरबार का सारा राजकाज उसकी सलाह से किया जाए। निजाम के द्वारा इस प्रकार के दुस्साहसपूर्ण तथा अपमानजनक कदम उठाये जाने की बातों से समस्त मराठा सरदारों में जागरूकता की लहर सी दौड़ गयी और इस राष्ट्र-संकट के समय सभी एकजुट हो गये। सखाराम बापू तथा अन्य सरदारों ने भी राघोबा के अत्याचारों से त्रस्त होकर हैदराबाद गये हुए समस्त अनुभवी पुराने सरदारों को समझा-बुझाकर वापस बुला लिया। अब तक नजरबंदी में रह रहे पेशवा माधवराव ने ऐसे समय में अपना अपमान भुलाकर अपने विवेक तथा दूरदर्शिता का पूरा परिचय दिया तथा निजाम का सामना करने को तैयार हो गये।

एक विशाल सेना लेकर निजाम पुणे की ओर बढ़ा तथा मल्हारराव होलकर एवं दमाजी गायकवाड़ जैसे सेनानायकों के साथ मराठा सेना भी तैयार हुई। हालाँकि यह सेना इतनी शक्तिशाली न हो पायी थी कि खुले मैदान में निजाम की सेना का सामना कर सके। अतः एक ओर निजाम पुणे की ओर बढ़ रहा था तो दूसरी ओर पेशवा राघोबा के साथ औरंगाबाद की ओर बढ़ रहे थे। दोनों ने दोनों के प्रदेशों में भयंकर लूटपाट की। पुणे के प्रमुख लोगों के साथ वहाँ की जनता को भी भागना पड़ा। निजाम की सेना ने पुणे को लूट लिया। पुणे की कुछ प्रमुख हस्तियों ने जिसमें नाना फडणवीस भी थे, लोहगढ़ के किले में शरण ली। गोपिकाबाई को भी नारायणराव के साथ भागना पड़ा तथा उसने सिंहगढ़ में शरण ली। धीरे-धीरे निजाम के सभी मराठा सरदार उससे दूर होने लगे तथा पेशवा की शक्ति प्रबल होने लगी। राक्षसभुवन नामक स्थान पर दोनों सेनाओं में जबरदस्त युद्ध हुआ तथा निजाम की बुरी तरह पराजय हुई। उसके दीवान विट्ठल सुंदर भी इस युद्ध में मारे गये। २५ सितंबर, १७६३ ईस्वी को संधि हुई और निजाम को स्वार्थवश राघोबा ने जितने प्रदेश दे दिए थे, वे सभी प्रदेश निजाम ने पेशवा को समर्पित कर दिये। इस संधि को औरंगाबाद की संधि कहा जाता है। माधवराव की दूरदर्शिता तथा पराक्रम का इस युद्ध में पूरा परिचय मिला तथा मराठा सरदारों में उनकी प्रतिष्ठा काफी बढ़ गयी। पानीपत की पराजय के कारण मराठों की खोयी हुई प्रतिष्ठा कुछ हद तक इस विजय से पुनः प्राप्त हो गयी। दो वर्षों से चल रहा गृह कलह एक प्रकार से समाप्त हो गया तथा पेशवा पूर्ण शक्ति-संपन्न होकर शासन सँभालने लगे। समस्त शासनाधिकार अपने हाथ में लेकर पेशवा ने योग्य सरदारों को पुनः उपयुक्त पदों पर बहाल किया। भवानराव पुनः प्रतिनिधि बनाये गये। बालाजी जनार्दन भानु (नाना फड़णवीस) को फड़णवीस पद पर नियुक्त किया गया तथा पेशवा ने सभी सरदारों से उत्तम संबंध बना लिये। महादजी शिंदे को भी उन्होंने अपना सहयोगी बना लिया।

मराठा राज्य का पुनर्विस्तार…

पानीपत में मराठों की पराजय के बाद मैसूर में हैदरअली को अपना प्रभाव-विस्तार करने की स्वाभाविक छूट मिल गयी थी। वह मैसूर और कर्नाटक पर सत्ता स्थापित करने से भी संतुष्ट नहीं हुआ तथा एक विशाल साम्राज्य का शासक होने का स्वप्न देखने लगा। उसने एक बड़ी सेना एकत्रित कर मराठों के राज्य पर आक्रमण आरंभ किया। पेशवा माधवराव ने स्वयं मराठा सेना का नेतृत्व कर हैदर अली पर तीन बार प्रत्याक्रमण किया। वर्ष १७७० से १७७२ के जुलाई तक चले तीसरे आक्रमण में आरंभिक ६ महीने तक स्वयं पेशवा अभियान में उपस्थित रहे परंतु बाद में अस्वस्थ हो जाने के कारण त्रिम्बकराव पेठे को सेनानायक बनाकर स्वयं पुणे वापस आ गये। ७ मार्च, १७७१ को मोती तालाब के युद्ध में हैदरअली पराजित हो गया। पेशवा की इच्छा हैदरअली को गद्दी से हटाकर पूर्व हिंदू राजा को राज्य सौंपने की थी, परंतु राघोबा ने पेशवा के अधिकार में कमी रखने के उद्देश्य से ऐसा न होने दिया…

“चूँकि हैदरअली निजाम की भाँति दक्षिण में मराठों का खुला दुश्मन था, अतः रघुनाथराव ने यह प्रबन्ध किया कि अगर पेशवा उससे अधिक शक्तिशाली सिद्ध हो तो अन्त में हैदरअली को बराबर के जोड़ के रूप में छोड़ दिया जाय। अतः किसी न किसी बहाने हैदरअली को सरल शर्तें देकर रघुनाथ राव ने युद्ध बन्द करने का प्रस्ताव किया। पेशवा अपने चाचा को रुष्ट नहीं करना चाहता था। अतः हैदरअली का पूर्णतया दमन करने की योजना कुछ समय के लिए स्थगित कर दी गयी। ३० मार्च को हैदरअली के प्रतिनिधि मीर फैजुल्ला के द्वारा सन्धि पत्र पर हस्ताक्षर कर दिये गये।”

‘राक्षसभुवन’ के युद्ध में विजय प्राप्त करने के बाद से माधवराव द्वारा सारे अधिकार अपने हाथ में ले लिये जाने से राघोबा विवश होकर चुप तो था परंतु विद्रोह का अवसर लगातार ढूँढ़ रहा था। पेशवा बनने की अपनी महत्वाकांक्षा को वह दबा नहीं पाया तथा नागपुर के भोंसले की सहायता से उसने माधवराव के विरुद्ध विद्रोह कर दिया। पेशवा के सामने भी अब राघोबा पर आक्रमण के सिवा कोई रास्ता नहीं बचा। अंततः राघोबा को परास्त कर माधवराव ने शनिवारवाड़ा में ही उन्हें बंद कर दिया ताकि वह पुनः उत्पात न खड़ा कर सके।

उत्तर में महान् विजय…

पानीपत में पराजय के परिणामस्वरूप उत्तर भारत में मराठा राज्य प्रायः नष्ट ही हो गया था। दिल्ली, आगरा, दोआब, बुंदेलखंड, मालवा आदि स्थानों के छोटे-छोटे शासक मराठा सत्ता का पूरी तरह से अंत करने के प्रयत्न में लगे हुए थे। माधवराव पेशवा ने उत्तर भारत के अपने खोये हुए राज्य पर पुनः सत्ता स्थापित करने का पुरजोर प्रयत्न आरंभ किया। वर्ष १७६१ ईस्वी में जयपुर के राजा माधव सिंह को मल्हार राव होलकर के द्वारा परास्त करवा कर राजपूतों पर मराठों की धाक पुनः जमायी गयी। पेशवा ने महादजी शिंदे के मुख्य नायकत्व में तुकोजीराव होलकर तथा रामचंद्र गणेश के साथ विसाजी कृष्ण नामक दो सेनानायकों को भी उत्तर भारत भेजा। महादजी शिंदे की सूझबूझ तथा प्रबल पराक्रम के कारण जाट तथा रुहेलों का दमन हुआ, फर्रुखाबाद के नवाब बंगश तथा बुंदेलखंड के शासक तो परास्त हुए ही, महादजी ने अंग्रेजों के संरक्षण में इलाहाबाद में अपने दुर्दिन काट रहे मुगल बादशाह शाहआलम को भी मुक्त करा लिया तथा दिल्ली ले जाकर उन्हें पुनः सिंहासनासीन करवा दिया। दिल्ली पर पुनः मराठा शक्ति का प्रभुत्व कायम हुआ और इसके साथ ही महादजी का यशोसूर्य भी दिग-दिगंत में दीपित हो उठा। बादशाह शाहआलम ने महादजी को अनेक उपाधियों के अतिरिक्त वकील ए मुतलक की उपाधि भी प्रदान की जिसका अधिकार बादशाह से कुछ ही कम होता था। इस प्रकार पेशवा माधवराव की सूझबूझ दूरदर्शिता तथा संगठन क्षमता के कारण मराठा साम्राज्य अपने सर्वोच्च विस्तार तक पहुँच गया।

निधन…

अपने अल्पकालीन शासन में भी बड़े-बड़े कार्य करने वाले पेशवा माधवराव के अंतिम २ वर्ष बड़े कष्टपूर्ण बीते। उन्हें क्षय रोग हो गया था, जिसके कारण वे पीड़ा से तड़पते हुए शैया पर ही पड़े रहते थे। कभी-कभी पीड़ा इतनी तीव्र हो जाती थी कि वे अपने सेवकों से अपना अंत कर देने को कहने लगते थे। परंतु इतनी पीड़ा झेलने के बावजूद उनकी समझ मंद नहीं पड़ी थी तथा वे अंतिम समय तक मराठा राज्य के उज्ज्वल भविष्य के लिए चिंतित रहे। उन्होंने राघोबा को भी मुक्त करके अपने पास बुला कर अपने छोटे भाई नारायणराव को उन्हें सौंपते हुए उनकी रक्षा करने का वचन देने को कहा। राघोबा ने वचन दिया कि वे सदा उनकी सहायता तथा रक्षा करेंगे। पेशवा की साध्वी पत्नी रमाबाई पति परायणा थी तथा पेशवा की रुग्णावस्था में अधिकतर उनके निकट ही रहती थी। पेशवा की बड़ी इच्छा थी कि उन्हें इष्टदेव भगवान् गणेश के चरणों में मृत्यु प्राप्त हो। उनकी इच्छा के अनुरूप उन्हें थेऊर के मंदिर में ले जाया गया। वहीं से महीनों राजकार्य का भी संचालन होते रहा। १८ नवंबर, १७७२ ईस्वी को पेशवा माधवराव का निधन हो गया। उनकी पतिपरायणा पत्नी रमाबाई स्वेच्छापूर्वक, लोगों के काफी मना करने के बावजूद, सती हो गयी।

 

श्रीमन्त पेशवा नारायणराव भट

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