April 20, 2024

रानी लक्ष्मीबाई भाग १ से आगे

१८५७ का विद्रोह विस्तार से…

भारत की जनता में विद्रोह की ज्वाला भभक गई। समस्त देश में सुसंगठित और सुदृढ रूप से क्रांति को कार्यान्वित करने की तिथि ३१ मई, १८५७ निश्चित की गई, लेकिन इससे पूर्व ही क्रांति की ज्वाला प्रज्ज्वलित हो गई और ७ मई, १८५७ को मेरठ में तथा ४ जून, १८५७ को कानपुर में भीषण विप्लव हो गए। कानपुर तो २८ जून, १८५७ को पूर्ण स्वतंत्र हो गया। अंग्रेजो के कमांडर सर ह्यूरोज ने अपनी सेना को संगठित कर विद्रोह दबाने का प्रयत्न किया। उसने सागर, गढ़कोटा, शाहगढ़, मदनपुर, मडखेड़ा, वानपुर और तालबेहट पर अधिकार कर लिया। फिर झांसी की ओर अपना कदम बढ़ाया और अपना मोर्चा कैमासन पहाड़ी के मैदान में पूर्व और दक्षिण के मध्य लगा लिया।

रानी रोयीं रनिवासों में, बेगम गम से थीं बेजार,

उनके गहने कपड़े बिकते थे कलकत्ते के बाजार,

सरे आम नीलाम छापते थे अंग्रेज़ों के अखबार,

नागपुर के जेवर ले लो लखनऊ के लो नौलख हार।

यों परदे की इज्जत परदेशी के हाथ बिकानी थी,

बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,

खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥

झांसी का युद्ध…

लक्ष्मीबाई पहले से ही सतर्क थीं और वानपुर के राजा मर्दनसिंह से भी इस युद्ध की सूचना तथा उनके आगमन की सूचना प्राप्त हो चुकी थी। २३ मार्च, १८५८ को झांसी का ऐतिहासिक युद्ध आरंभ हुआ। कुशल तोपची गुलाम गौस खां ने झांसी की रानी के आदेशानुसार तोपों के लक्ष्य साधकर ऐसे गोले फेंके कि पहली बार में ही अंग्रेजी सेना के छक्के छूट गए। रानी लक्ष्मीबाई ने सात दिन तक वीरतापूर्वक झांसी की सुरक्षा की और अपनी छोटी-सी सशस्त्र सेना से अंग्रजों का बड़ी बहादुरी से मुकाबला किया और युद्ध में अपनी वीरता का परिचय दिया। वे अकेले ही अपनी पीठ के पीछे दामोदर राव को कसकर घोड़े पर सवार हो, अंग्रजों से युद्ध करती रहीं। बहुत दिन तक युद्ध का क्रम इस प्रकार चलना असंभव था। सरदारों का आग्रह मानकर रानी ने कालपी प्रस्थान किया।

कुटियों में भी विषम वेदना, महलों में आहत अपमान,

वीर सैनिकों के मन में था अपने पुरखों का अभिमान,

नाना धुंधूपंत पेशवा जुटा रहा था सब सामान,

बहिन छबीली ने रण-चण्डी का कर दिया प्रकट आहवान।

हुआ यज्ञ प्रारम्भ उन्हें तो सोई ज्योति जगानी थी,

बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,

खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥

नाना साहब पेशवा से भेंट…

उन्होंने नाना साहब और उनके योग्य सेनापति तात्या टोपे से संपर्क स्थापित किया और विचार-विमर्श किया। रानी की वीरता और साहस का लोहा अंग्रेज मान गए, लेकिन उन्होंने रानी का पीछा किया। रानी का घोड़ा बुरी तरह घायल हो गया और अंत में वीरगति को प्राप्त हुआ, लेकिन रानी ने साहस नहीं छोड़ा और शौर्य का प्रदर्शन किया। कालपी में महारानी और तात्या टोपे ने योजना बनाई और अंत में नाना साहब, शाहगढ़ के राजा, वानपुर के राजा मर्दनसिंह आदि सभी ने रानी का साथ दिया। रानी ने ग्वालियर पर आक्रमण किया और वहां के किले पर अधिकार कर लिया। विजयोल्लास का उत्सव कई दिनों तक चलता रहा लेकिन रानी इसके विरुद्ध थीं। यह समय विजय का नहीं था, अपनी शक्ति को सुसंगठित कर अगला कदम बढ़ाने का था।

महलों ने दी आग, झोंपड़ी ने ज्वाला सुलगाई थी,

यह स्वतंत्रता की चिनगारी अंतरतम से आई थी,

झाँसी चेती, दिल्ली चेती, लखनऊ लपटें छाई थी,

मेरठ, कानपुर,पटना ने भारी धूम मचाई थी,

जबलपुर, कोल्हापुर में भी कुछ हलचल उकसानी थी,

बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,

खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥

उपसंहार…

सेनापति सर ह्यूरोज अपनी सेना के साथ संपूर्ण शक्ति से रानी का पीछा करता रहा और आखिरकार वह दिन भी आ गया जब उसने ग्वालियर का किला घमासान युद्ध करके अपने कब्जे में ले लिया। रानी लक्ष्मीबाई इस युद्ध में भी अपनी कुशलता का परिचय देती रहीं। १८ जून, १८५८ को ग्वालियर का अंतिम युद्ध हुआ और रानी ने अपनी सेना का कुशल नेतृत्व किया। वे घायल हो गईं और अंततः उन्होंने वीरगति प्राप्त की।

इस स्वतंत्रता महायज्ञ में कई वीरवर आए काम,

नाना धुंधूपंत, ताँतिया, चतुर अज़ीमुल्ला सरनाम,

अहमदशाह मौलवी, ठाकुर कुँवरसिंह सैनिक अभिराम,

भारत के इतिहास गगन में अमर रहेंगे जिनके नाम।

लेकिन आज जुर्म कहलाती उनकी जो कुरबानी थी,

बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,

खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥

अपनी बात…

रानी अंग्रे़जों से युद्ध करते हुए वह सोनरेखा नाले की ओर बढ़ चलीं, किन्तु दुर्भाग्यवश रानी का घोड़ा इस नाले को पार नहीं कर सका। उसी समय अंग्रेजों ने उनपर हमला कर दिया। इसी दौरान रानी का एक सैनिक उन्हें लेकर पास के एक सुरक्षित मंदिर में पहुंचा, जहां पुजारी से रानी ने कहा, “मेरे बेटे दामोदर की रक्षा करना और अंग्रेजों को मेरा शरीर नहीं मिलना चाहिए।” इतना कहते हुए रानी ने प्राण त्याग दिए। मृत्यु के बाद वहां मौजूद रानी के अंगरक्षकों ने आनन-फानन में लकड़ियां एकत्रित कर रानी के पार्थिव शरीर को अग्नि दी।

इनकी गाथा छोड़, चले हम झाँसी के मैदानों में,

जहाँ खड़ी है लक्ष्मीबाई मर्द बनी मर्दानों में,

लेफ्टिनेंट वाकर आ पहुँचा, आगे बढ़ा जवानों में,

रानी ने तलवार खींच ली, हुया द्वंद असमानों में।

जख्मी होकर वाकर भागा, उसे अजब हैरानी थी,

बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,

खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥

महारानी का घोषणा-पत्र…

विद्रोह के कारण जनसाधारण में एक अनिश्चितता उत्पन्न हो गई थी। अतः विप्लव के बाद जनता के प्रति निश्चित नीति एवं सिद्धांतों की घोषणा के लिए इलाहाबाद में बड़ी धूमधाम से एक दरबार का आयोजन किया गया, जिसमें लार्ड केनिंग ने महारानी के घोषणा-पत्र को १ नवंबर, १८५८ को पढ़कर सुनाया। इस घोषणा-पत्र की प्रमुख बातें निम्नलिखित थी…

१. भारत में जितना अंग्रेजों का राज्य विस्तार है वह पर्याप्त है, इससे ज्यादा अंग्रेजी राज्य-विस्तार नहीं होगा।

२. देशी राज्यों व नरेशों के साथ जो समझौते व प्रबंध निश्चित हुए हैं, उनका ब्रिटिश सरकार सदा आदर करेगी तथा उनके अधिकारों की सुरक्षा करेगी।

३. धार्मिक सहिष्णुता एवं स्वतंत्रता की नीति का पालन किया जायेगा।

४. भारतीयों के साथ स्वतंत्रता का व्यवहार किया जायेगा तथा उनके कल्याण के लिए कार्य किये जायेंगे।

५. प्राचीन रीति-रिवाजों, संपत्ति आदि का संरक्षण किया जायेगा।

६. सभी भारतीयों को निष्पक्ष रूप से कानून का संरक्षण प्राप्त होगा।

७. बिना किसी पक्षपात के शिक्षा, सच्चरित्रता और योग्यतानुसार सरकारी नौकरियाँ प्रदान की जायेंगी।

८. उन सभी विद्रोहियों को क्षमादान मिलेगा, जिन्होंने किसी अंग्रेज की हत्या नहीं की है।

महारानी की इस घोषणा को मेग्नाकार्टा कहा जाता है।

रानी बढ़ी कालपी आई, कर सौ मील निरंतर पार,

घोड़ा थक कर गिरा भूमि पर गया स्वर्ग तत्काल सिधार,

यमुना तट पर अंग्रेज़ों ने फिर खाई रानी से हार,

विजयी रानी आगे चल दी, किया ग्वालियर पर अधिकार।

अंग्रेज़ों के मित्र सिंधिया ने छोड़ी राजधानी थी,

बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,

खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥

विप्लव का आर्थिक प्रभाव…

आर्थिक दृष्टि से भी विप्लव के कुप्रभाव दृष्टिगोचर हुए। अंग्रेजों ने अब केवल ब्रिटिश पूँजीपतियों को भारत में पूँजी लगाने हेतु प्रोत्साहित किया तथा उन्हें सुरक्षा प्रदान की। अब चाय, कपास, जूट, कॉफी, तंबाकू आदि के व्यापार का बढ़ावा दिया, तथा भारतीय उद्योगों से संरक्षण हटा ली गई। नई ईस्ट इंडिया कॉटन कंपनी स्थापित की गई जो भारत से रूई ले जाकर इंग्लैण्ड से कपड़ा बनवाकर भारत भेजती थी। यातायात के साधनों का विकास भी अंग्रेजों के लिये लाभप्रद रहा। इसके अतिरिक्त कंपनी भारत सरकार पर ३ करोड़ ६० लाख पौण्ड का कर्ज छोड़ गई, जिसकी पूर्ति भारत सरकार अब भारतीयों का शोषण करके ही कर रही थी। अंग्रेजों के इस आर्थिक शोषण से देश निरंतर गरीब होता गया।

विजय मिली, पर अंग्रेज़ों की फिर सेना घिर आई थी,

अबके जनरल स्मिथ सम्मुख था, उसने मुहँ की खाई थी,

काना और मंदरा सखियाँ रानी के संग आई थी,

युद्ध श्रेत्र में उन दोनों ने भारी मार मचाई थी।

पर पीछे ह्यूरोज़ आ गया, हाय! घिरी अब रानी थी,

बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,

खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥

विप्लव से लाभ…

क्रांति पूरी तरह से असफल रहा तथा इसके अनेक दुष्परिणाम भी निकले, किन्तु इसके कारण भारतीयों को अनेक लाभ भी हुए। विद्रोह के बाद सर्वप्रथम ब्रिटिश सरकार ने देश की आंतरिक दशा को ठीक करने का प्रयत्न किया तथा लोगों की भौतिक उन्नति के प्रयास आरंभ हुए। विप्लव के बाद से ही भारत के संवैधानिक विकास की प्रक्रिया आरंभ हुई। जिसका सूत्रपात वर्ष १८५८ के रानी के घोषणा पत्र से हुआ था।

तो भी रानी मार काट कर चलती बनी सैन्य के पार,

किन्तु सामने नाला आया, था वह संकट विषम अपार,

घोड़ा अड़ा, नया घोड़ा था, इतने में आ गये सवार,

रानी एक, शत्रु बहुतेरे, होने लगे वार-पर-वार।

घायल होकर गिरी सिंहनी उसे वीर गति पानी थी,

बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,

खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥

भारतीयों को लाभ…

धीरे-धीरे भारतीयों को शासन में भाग लेने का अवसर मिलने लगा। शासन में भाग लेने से अब उनमें एक नयी चेतना आने लगी। यद्यपि १८५७ में ब्रिटिश शासन को समाप्त करने के प्रयास का दमन कर दिया गया था, किन्तु इससे भारतीयों के मन में राष्ट्रीय भावना अत्यधिक तीव्र हो उठी और इसी राष्ट्रीय भावना ने हमारे राष्ट्रीय आंदोलनों का संचालन किया तथा वर्ष १९४७ में विदेशी सत्ता की इतिश्री कर दी।

रानी गई सिधार चिता अब उसकी दिव्य सवारी थी,

मिला तेज से तेज, तेज की वह सच्ची अधिकारी थी,

अभी उम्र कुल तेइस की थी, मनुज नहीं अवतारी थी,

हमको जीवित करने आयी बन स्वतंत्रता-नारी थी,

दिखा गई पथ, सिखा गई हमको जो सीख सिखानी थी,

बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,

खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥

और अंत में…

वर्ष १८५७ का विप्लव भारतीय इतिहास की प्रेरणादायक घटना है, जिसने ब्रिटिश साम्राज्य की नींव को हिला दिया। भविष्य में भी यह विप्लव भारतीयों को प्रेरणा देता रहा और हमारे राष्ट्रीय आंदोलनों के काल में वर्ष १८५७ के शहीदों को बड़े गौरव से याद किया गया। वस्तुतः अनेक इतिहासकार इसे मध्य युग का अंत तथा आधुनिक युग का आरंभ मानते हैं।

जाओ रानी याद रखेंगे ये कृतज्ञ भारतवासी,

यह तेरा बलिदान जगावेगा स्वतंत्रता अविनासी,

होवे चुप इतिहास, लगे सच्चाई को चाहे फाँसी,

हो मदमाती विजय, मिटा दे गोलों से चाहे झाँसी।

तेरा स्मारक तू ही होगी, तू खुद अमिट निशानी थी,

बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,

खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥

 

नाना साहब पेशवा द्वितीय

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