November 21, 2024

एक महिला दो बच्चियों की माँ है, वह जब तीसरी बार गर्भवती हुई तो उसने गर्भ जाँच कराया। इस बार भी लड़की है, यह जान उसने अपना गर्भ गिरा दिया। गर्भ गिराने की यह प्रक्रिया उसने आठ बार दोहराई। उसकी चाहत एक लड़के की है। मगर उसकी इस चाहत के शिखर पर आठ लड़कियों की बलि दी जा चुकी है और ना जाने कितनी और बलि दी जाएंगी।

यह सिर्फ एक माँ की नहीं और ना ही किसी एक घर की यह बात है। यहां हर दिन पूरे देश में भ्रूण हत्याकांड का खेल बदस्तूर जारी है, क्यूंकि जहाँ एक तरफ लड़के की अभिलाषा ने माँ बाप और परिवार को जकड़ रखा है वहीं दूसरी ओर इसका व्यवसाय और देखिए ना इस व्यवसाय में कभी मंदी भी तो नहीं आती। जन्म से पहले लड़कियों को मारने की प्रथा भारत में माँ के गर्भ की लैंगिक जाँच कराने की तकनीक आने के साथ ही आरंभ हो गई थी। यह एक तरह की बचत है, आज हजार दो हजार रूपये ख़र्च कीजिए, कल दहेज के १५ लाख रूपये की सीधी बचत। इस प्रकार के परीक्षण अल्ट्रसाउण्ड के ज़रिए किए जाते हैं। दिल्ली सहित देश के सभी अस्पताल और नर्सिंग होम के डाक्टर इस पर खेद व्यक्त करते हैं और हर परिवार इसे गुनाह मानता है तब यहां यह गुनाह कर कौन रहा है ?

अगर सर्वे को माना जाए तो भारत में लगभग ५०,००० डॉक्टर, रुपये की लालच में जीवनदायिनी तकनीक का दुरूपयोग कर रहे हैं। ऐसे लोग कन्या भ्रूण हत्या के अपराध में न सिर्फ भागीदार बनते हैं बल्कि बेटे की इच्छा रखने वाली माँओं को इसके लिए उकसाते भी हैं। बेटे की ख़्वाहिश तो हमेशा से थी लेकिन इन डॉक्टरों ने महिलाओं से कहा कि जब भी आपको लड़की नहीं चाहिए, हमारे पास आप आ जाइए, हम इसे गिरा देंगे।

एक सर्वे के अनुसार भारत में पिछले बीस वर्षों में क़रीब दो करोड़ कन्याओं को उनके जन्म से पहले ही मार दिया गया। कल भी लड़कियां बोझ थीं आज भी लड़कियां बोझ हैं। कल भी यह एक परंपरा थी और आज भी यह एक परंपरा है। इस परंपरा के वाहक अशिक्षित, निम्न व मध्यम समाज ही नहीं है बल्कि उच्च व शिक्षित समाज भी है। अब देखिए ना भारत के समृध्द राज्यों में पंजाब, हरियाणा, दिल्ली और गुजरात में लिंगानुपात सबसे कम है। मेरे पास नई जनगड़ना तो नहीं है इसलिए २००१ की जनगणना के ही अनुसार देखा जाए तो, एक हजार बालकों पर बालिकाओं की संख्या पंजाब में ७९८, हरियाणा में ८१९ और गुजरात में ८८३ है। कुछ अन्य राज्यों ने इस प्रवृत्ति को गंभीरता से लिया और इसे रोकने के लिए अनेक कदम भी उठाए हैं, जैसे गुजरात में ‘डीकरी बचाओ अभियान’ चलाया जा रहा है। इसी प्रकार से अन्य राज्यों में भी योजनाएँ चलाई जा रही हैं। भारत में पिछले चार दशकों से सात साल से कम आयु के बच्चों के लिंग अनुपात में लगातार गिरावट आ रही है। वर्ष १९८१ में एक हजार लड़कों पर ९६२ लड़कियां थीं। वर्ष २००१ में यह अनुपात घटकर ९२७ हो गया। वर्तमान समय में इस समस्या को दूर करने के लिए सामाजिक जागरूकता बढाने के साथ-साथ प्रसव से पूर्व तकनीकी जांच अधिनियम को सख्ती से लागू किए जाने की जरूरत है।

जीवन बचाने वाली आधुनिक प्रौद्योगिकी का दुरुपयोग रोकने का हरसंभव प्रयास किया जाना चाहिए। देश की पहली महिला राष्ट्रपति प्रतिभा पाटील ने पिछले वर्ष महात्मा गांधी की १३८वीं जयंती के मौके पर केंद्रीय स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय की बालिका बचाओ योजना (सेव द गर्ल चाइल्ड) को लांच किया था। राष्ट्रपति ने इस बात पर अफसोस जताया था कि लडक़ियाें को लडक़ाें के समान महत्व नहीं मिलता। लडक़ा-लडक़ी में भेदभाव हमारे जीवनमूल्याें में आई खामियाें को दर्शाता है। उन्नत कहलाने वाले राज्याें में ही नहीं बल्कि प्रगतिशील समाजाें में भी लिंगानुपात की स्थिति चिंताजनक है। हिमाचल प्रदेश जैसे छोटे राज्य में लिंग अनुपात सुधार और कन्या भ्रूण हत्याकांड रोकने के लिए प्रदेश सरकार ने एक अनूठी स्कीम तैयार की है। इसके तहत कोख में पल रहे बच्चे का लिंग जांच कराने के बाद गर्भ पात कराने वालों के बारे में जानकारी देने वाले को दस हजार रुपए की नकद राशि इनाम स्वरूप देने की घोषणा की गई है। भ्रूण जांच तकनीक अधिनियम १९९४ को सख्ती से लागू किए जाने की भी सख्त जरूरत है।

इंदिरा गांधी बालिका सुरक्षा योजना के तहत पहली कन्या के जन्म के बाद स्थाई परिवार नियोजन अपनाने वाले माता-पिता को २५ हजार रुपए तथा दूसरी कन्या के बाद स्थाई परिवार नियोजन अपनाने माता-पिता को २० हजार रुपए प्रोत्साहन राशि के रूप में प्रदान किए जा रहे हैं। बालिकों पर हो रहे अत्याचार के विरुद्ध देश के प्रत्येक नागरिक को आगे आने की जरूरत है साथ ही लड़कियों के सशक्तिकरण में हर प्रकार के सहयोग देने की जरूरत है और यह काम अपने घर से ही शुरू करनी होगी। यह विडंबना ही है कि हमारे देश के समृद्ध राज्याें में पंजाब, हरियाणा, दिल्ली और गुजरात में लिंगानुपात सबसे कम है।

बालिका भूण हत्या की सोच अमानवीय और घृणित कार्य है। पितृ सत्तात्मक की मानसिकता वाले समाज को कुछ चिकित्सक लिंग निर्धारण परीक्षण जैसी सेवा देकर और अधिक बढावा दे रहे हैं। यह अत्यंत चिंताजनक विषय है।
२४ वर्ष पहले भारत सरकार ने एक कानून पारित कर भ्रूण परीक्षण पर प्रतिबंध लगा दिया था, मगर कानून पर अभी तक सख्ती से अमल नहीं किया गया है। लड़कियों को जन्म से पहले मारने की कुप्रथा धीरे-धीरे अन्य जगहों पर भी अपने पांव पसारती जा रही है। जम्मू-कश्मीर के जिले जो पंजाब के साथ लगते हैं, वो तो पहले से ही पंजाब की राह पर निकल पड़े थे लेकिन अब तो पूरे श्रीनगर में स्थिति चिंताजनक हो गई है। लड़कियों के साथ यह नकारात्मकता स्वभाव के साथ गंभीर सामाजिक और अनन्य प्रभाव भी हो सकते हैं।

गर्भपात से औरतों के स्वास्थ्य पर बुरा असर पड़ता है। ग़ैर-सरकारी संगठनों ने – महिला उत्थान अध्ययन केंद्र और सेंटर फॉर एडवोकेसी एंड रिसर्च ने एक संयुक्त प्रकाशन में चेतावनी दी है कि यदि महिलाओं की संख्या यूँ ही घटती रही तो महिलाओं के ख़िलाफ़ हिंसात्मक घटनाएं लगातार बढ़ती जाएंगी। विवाह के लिए उनका अपहरण किया जाएगा, उनकी इज़्ज़त पर लगातार हमले होते रहेंगे। अगर इसी तरह गर्भ गिरता रहा तो शायद भविष्य में आगे जाकर उन्हें एक से अधिक पुरूषों की पत्नी बनने पर मजबूर भी किया जा सकता है।

अरब देशों में लड़कियों को ज़िंदा दफ़न करने की प्रथा असभ्य काल में प्रचलित थी लेकिन भारत में कन्या भ्रूण हत्या की प्रथा उन क्षेत्रों में ज्यादा उभरी है जहाँ शिक्षा, ख़ासकर महिलाओं की शिक्षा काफी उच्च स्तर पर है और लोगों की आर्थिक स्थिति भी पहले से कहीं अच्छी है।

जहाँ तक मेरा मानना है, ‘महिला शिक्षा अपने आप में महिला उत्थान का कारण नहीं बन सकती बल्कि यह शिक्षा के उत्तम स्तर पर अधिक निर्भर करता है।’

अश्विनी राय ‘अरूण’

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